शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने गत 9 सितंबर को कहा था कि भाजपा की ओर से सुषमा स्वराज को ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय राजनीति को लेकर बाल ठाकरे की यह संभवतः अंतिम इच्छा थी। भावी प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के नाम के शोर के बीच बाल ठाकरे की यह संतुलित आवाज सामने आई थी।
बाल ठाकरे की इस इच्छा पर उनकी विचार धारा या फिर उनकी रणनीति का कोई असर नहीं था।
याद रहे कि सुषमा स्वराज न तो महाराष्ट्र की हैं और न ही कट्टर हिंदुत्व की पैरोकार हैं। हालांकि वह आज भाजपा की राजनीति में भले घुल -मिल गई लगती हैं, पर मूलतः वह समाजवादी धारा की राजनीति से निकल कर भाजपा में आई हैं।
बाल ठाकरे में सुषमा स्वराज को प्रतिभाशाली और बुद्धिमान बताते हुए कहा था कि वह एकमात्र नेता हैं जो इस पद के योग्य हैं। प्रधानमंत्री के रूप में वह अच्छा काम करेंगी।
बाल ठाकरे की इस राय पर भाजपा नेताओं ने तब सधी हुई प्रतिक्रिया दी थी। बलवीर पुंज ने कहा था कि हमारे दल में प्रधानमंत्री पद के कई योग्य उम्मीदवार हैं। श्री पुंज की प्रतिक्रिया वाजिब भी थी। क्योंकि जब तक पार्टी या फिर राजग में इस मुद्दे पर कोई अंतिम फैसला नहीं हो जाता है, तब तक बाल ठाकरे की इस सलाह पर सार्वजनिक रूप से यही प्रतिक्रिया हो सकती थी।
वैसे भी भाजपा पर आर.एस.एस. के बढ़ते दबदबे के इस दौर में इस बात की उम्मीद कम ही है कि भाजपा के बहुमत सुषमा के पक्ष में हो जाए। पर सहयोगी दल का क्या रुख होगा, यह अभी तय नहीं है। लोकसभा की चुनावी राजनीति के जानकार लोग बताते हैं कि यदि भाजपा नरेंद्र मोदी को भी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर चुनाव लड़े तो भी अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को अपने बूते बहुमत नहीं मिलेगा। क्योंकि भाजपा करीब पौने तीन सौ सीटों पर ही पहले या दूसरे नंबर पर रहती आई है।
हालांकि यह बात गौर करने की है कि बाल ठाकरे ने इस मुद्दे पर अपनी विचार धारा और राजनीतिक राय से अलग हट कर बात कही थी। उनके ऐसे संतुलित बयान शायद ही कभी आते थे।
लगता है कि बाल ठाकरे ने सुषमा स्वराज के बारे में ऐसी राय संभवतः कई बातों पर ध्यान रख कर ही दी थी। उन बातों की चर्चा कुछ राजग नेताओं व राजनीतिक प्रेक्षकों की ओर से भी होती रहती है।
जानकार सूत्रों के अनुसार जहां नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी का सर्वाधिक विरोध हो रहा है, उस बिहार के भी कुछ राजग नेतागण सुषमा स्वराज को उम्मीदवार बनाने के पक्ष में हैं। पर वे अभी इसकी सार्वजनिक तौर पर मांग नहीं कर रहे हैं। वैसे तो इस बारे में अंतिम फैसला राजग को ही करना है, पर उम्मीदवारों की पात्रता को लेकर अभी से चर्चा स्वाभाविक हो चुकी है। सपा ने लोकसभा के अपने उम्मीदवारों की घोषणा करके ऐसी चर्चा को तेज कर दिया है।
गंगा-यमुनी संस्कृति वाले देश में नरेंद्र मोदी के बारे में कुछ आशंकाएं कई लोगों के दिलो -दिमाग में हैं। हालांकि उनके खिलाफ कोई आरोप अदालत में अभी साबित नहीं हुआ है, पर मुख्य सवाल उनकी छवि को लेकर हंै। सबको साथ लेकर चलने की उनकी क्षमता पर भी प्रश्न चिह्न लगाये जाते हैं।
दूसरी ओर यह कहा जाता है कि सुषमा स्वराज लोकसभा में भाजपा की नेता हैं। ब्रिटेन में तो प्रतिपक्षी दल अपना छाया मंत्रिमंडल भी बना लेता है। फिर प्रतिपक्ष के नेता को छाया प्रधानमंत्री यानी भावी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार क्यों नहीं माना जाना चाहिए ?
वैसे भी सुषमा स्वराज समाजवादी पृष्ठभूमि की है जो नरंेद्र मोदी की पृष्ठभूमि से बिलकुल अलग है। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार सुषमा स्वराज के पक्ष में एक बात यह भी है कि वह महिला हैं। इस देश में इंदिरा गांधी को महिला होने का भी राजनीतिक खास कर चुनावी लाभ मिला था। कुछ चुनाव विश्लेषकों का यह भी मानना है कि सन 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बढ़त इसलिए भी मिल गई थी क्योंकि भाजपा की ओर से उस समय प्रधानमंत्री के उम्मीदवार एक गैर ब्राह्मण यानी लाल कृष्ण आडवाणी थे। उधर कांग्रेस के पास राहुल गांधी थे। सुषमा स्वराज के उम्मीदवार होने के बाद यह लाभ कांग्रेस को अगली बार शायद नहीं मिल सकेगा क्योंकि सुषमा गैर ब्राह्मण नहीं हैं।
यह अकारण नहीं था कि गत विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को कम सीटें व वोट मिले जबकि लोकसभा चुनावों में उसे अधिक सीटें व वोट मिल गये। बिहार में भी लगभग यही हुआ।
बाल ठाकरे ने यदि सुषमा स्वराज का नाम सुझाया था तो इसलिए नहीं कि सुषमा ठाकरे की विचार धारा के करीब हैं। बल्कि ठाकरे को देश के चुनावी गणित और भाजपा के भीतर की गुटबंदी का अधिक ज्ञान था। कई बार दिल्ली से दूर बैठा व्यक्ति ऐसे मामले में निरपेक्ष ढंग से बेहतर निर्णय करने की स्थिति में होता है।
(जनसत्ता ः20 नवंबर 2012 से साभार)
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