बिहार के महाराजगंज लोकसभा उपचुनाव में जदयू उम्मीदवार की हार से जदयू और भाजपा के बीच कड़वाहट बढ़ गई है। दरअसल इस उपचुनाव पर भी नरेंद्र मोदी की अदृश्य छाया पड़ गई थी जो जदयू के लिए अपशकुन साबित हुई।
महाराजगंज में जदयू के उम्मीदवार पी.के. शाही को महाबली लालू प्रसाद और बाहुबली प्रभुनाथ सिंह के साथ- साथ दिग्गज नरेंद्र मोदी की अदृश्य ताकत से भी एक साथ मुकाबला करना पड़ा था।
प्रतिष्ठा के इस चुनाव क्षेत्र में नरेंद्र मोदी की भी अदृश्य किंतु मजबूत उपस्थिति रही। ऐसा नहीं था कि लालू प्रसाद और नरेंद्र मोदी में कोई भीतरी तालमेल था। बल्कि नीतीश कुमार के मोदी विरोधी रुख से महाराजगंज चुनाव क्षेत्र के भी मोदी समर्थक सख्त नाराज थे। वे जदयू को सबक सिखाना चाहते थे। नरेंद्र मोदी समर्थकों में अब ऐसे लोग भी शामिल हो चुके हैं जो भाजपा के सदस्य या समर्थक नहीं हैं। नरेंद्र मोदी बनाम नीतीश कुमार को लेकर बिहार भाजपा के कुछ नेताओं की राय जग जाहिर है। हालांकि सुशील कुमार मोदी सहित कई नेताओं ने जदयू के पक्ष में महाराजगंज में दिल से प्रचार भी किया था। पर, सरजमीन पर चुनाव को लेकर जदयू और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच कम ही तालमेल हो पाया।
सन 2009 के लोकसभा चुनाव में महाराजगंज में बहुत ही कम मतों से राजद के उमाशंकर सिंह ने जदयू के प्रभुनाथ सिंह को हराया था। उमाशंकर सिंह के निधन से यह सीट खाली हुई थी। इस बार राजद के प्रभुनाथ सिंह ने जदयू के पी.के. शाही को एक लाख 37 हजार मतों से हरा दिया। मतों का भारी अंतर राजग खास कर जदयू के लिए चिंता का कारण बना हुआ है।
अनेक मतदाता जो प्रभुनाथ सिंह से खुश नहीं भी रहे हैं, वैसे लोगों ने भी जदयू को सबक सिखाने के लिए राजद को इस बार वोट दे दिया। ऐसे लोग नीतीश कुमार के मोदी विरोधी रुख से नाराज हैं। ऐसे लोगों में भाजपा के कट्टर समर्थक तो शामिल हैं ही। जदयू उम्मीदवार पी.के. शाही का यह आरोप गलत नहीं लगता है कि असहयोग के कारण उनकी हार हुई है। असहयोग सिर्फ भाजपा समर्थकों की ओर से ही नहीं था। बल्कि कुछ स्थानीय जदयू नेताओं की ओर से भी शाही को पूर्ण सहयोग नहीं रहा। कहा जाता है कि जदयू के कुछ स्थानीय नेता अपना भी राजनीतिक भविष्य देख रहे थे। वे प्रभुनाथ सिंह से दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहते थे। इसके बावजूद जदयू उम्मीदवार पी.के. शाही को 2 लाख 44 हजार मत मिले। इन मतों में भाजपा का योगदान कम ही रहा। इससे यह बात भी साफ है कि जदयू की भी अपनी एक ताकत है जो महाराजगंज सहित पूरे राज्य में भी फैली हुई है। यह ताकत विपरीत परिस्थिति में भी जदयू को काम आने वाली है।
हालांकि महाराजगंज की स्थिति विशेष है। इसी तरह की एक विशेष राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति मेें 1994 में लोकसभा का उपचुनाव वैशाली में हुआ था। तब के सत्ताधारी दल जनता दल को निर्दलीय लवली आनंद के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा था। हालांकि एक ही साल बाद हुए बिहार विधानसभा के आम चुनाव में लालू प्रसाद यादव के दल को पूर्ण बहुमत मिल गया था।
कोई माने या नहीं माने, पर देश के एक बड़े हिस्से में इन दिनों नरेंद्र मोदी की मंद बयार हवा बह रही है। उसमें जातीय, उप जातीय व सांप्रदायिक वोट बैंक की राजनीति वाला बिहार भी शामिल है।
यह हवा सिर्फ गुजरात दंगे में मोदी की कथित भूमिका को लेकर नहीं है। कुछ अन्य तत्व भी हैं। एक तो मोदी की छवि कठोर प्रशासक की बन गई है और उन पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का कोई आरोप भी नहीं है। दूसरी ओर केंद्र सरकार में इन गुणों की भारी कमी है।
जो लोग यह मानते हैं कि यह देश नक्सली हिंसा, आतंकवादी घटनाओं, व्यापक सरकारी भ्रष्टाचार, लुंजपुज शासन तथा सीमा की रक्षा के प्रति लापरवाही की समस्याओं से जूझ रहा है, उन्हें नरेंद्र मोदी से उम्मीद जग गई है। यह और बात है कि अंततः उनकी उम्मीदें पूरी होंगी या नहीं।
स्वाभाविक है कि ऐसे लोग महाराजगंज में भी हैं। उन्हें मोदी के खिलाफ नीतीश कुमार का रुख अच्छा नहीं लग रहा है। ऐसे लोगों ने अपने कारणों से इस बार राजद को वोट दे दिये। जरूरी नहीं कि वे लोग 2015 में लालू प्रसाद के दल को बिहार की गद्दी सौंपने के प्रयास को भी मदद पहुंचा ही देंगे।
नरेंद्र मोदी के खिलाफ नीतीश कुमार के राजनीतिक रुख का सैद्धांतिक आधार है। पर, महाराजगंज का चुनाव नतीजा उन्हें यह बताने के लिए पर्याप्त है कि नरेंद्र मोदी का विरोध जदयू के लिए अगले चुनाव में महंगा पड़ सकता है। क्योंकि यह जरूरी नहीं है कि मोदी विरोध के बावजूद अल्पसंख्यकों के मत थोक में जदयू को मिल ही जाएंगे। यदि थोक वोट नहीं मिलेंगे तो भाजपा से अलग होने के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई जदयू कैसे कर पाएगा?
हालांकि नीतीश कुमार ने यह भी कहा है कि वे अपने रुख पर कायम रहेंगे, भले इसके लिए उन्हें कोई भी राजनीतिक कीमत क्यों न चुकानी पड़े। यदि सचमुच कीमत चुकानी पड़ी तो इस तरीके से नीतीश कुमार का नाम इतिहास में दर्ज जरूर हो जा सकता है कि उन्होंने सिद्धांत के लिए गद्दी को खतरे में डाल दिया। ऐसे नेता देश में नहीं के बराबर हैं। पर वैसी स्थिति आई तो इसके साथ ही बिहार की जनता के उस हिस्से को भी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है जो लालू प्रसाद के दल के शासन की वापसी कत्तई नहीं चाहते।क्योंकि अनेक लोगों को लालू प्रसाद के इस वायदा पर कतई विश्वास नहीं है कि वे सत्ता में आने के बाद इस बार शांति व्यवस्था व विकास के लिए काम करेंगे। जिस तरह उत्तर प्रदेश में मुलायम -अखिलेश अपना यह वादा नहीं पूरा कर पा रहे हैं, उसी तरह इस वायदे को पूरा करना खुद लालू प्रसाद के हाथ में भी नहीं है।क्योंकि आरोप है कि उनके साथ शांति व विकास विरोधी लोग ही अधिक हैं।
वैसे महाराजगंज की हार के कई और कारण भी हैं जिन पर सत्ताधारी जदयू को विचार करना होगा। महाराजगंज के आम राजपूत मतदाताओं के बीच इस बात को लेकर नाराजगी थी कि जदयू ने पहले की तरह उनके समुदाय के ही किसी नेता को टिकट नहीं दिया। सारण प्रमंडल में प्रभुनाथ सिंह जातीय पहचान के प्रतीक बन गये हैं।
हालांकि यह बात भी सच है कि जदयू ने इस बार राजपूत समुदाय से आने वाले जिस नेता को पहले टिकट का आॅफर किया था, उसने लड़ने से ही इनकार कर दिया।
2009 में पराजय के बाद प्रभुनाथ सिंह क्षेत्र में सक्रिय रहे, लोगों से इस बार विनम्रता से बातें करते रहे और अपने सामाजिक समीकरण को मजबूत बनाते रहे।
एक तरफ विधायक फंड के बंद होने और दूसरी ओर सरकारी दफ्तरों में जम कर घूसखोरी जारी रहने का असर राजग कार्यकर्ताओं पर भी पड़ा। उनमें से अनेक लोगों ने इस चुनाव में वैसी सक्रियता नहीं दिखाई जैसी उन्हें दिखानी चाहिए थी। दूसरी ओर बाहुबली प्रभुनाथ सिंह की ऐसी छवि बनी हुई है कि वे अपने लोगों के काम के लिए सरकारी दफ्तरों पर खुद भारी दबाव भी बना सकते हैं।
इधर इन दिनों किसानों को खेतिहर मजदूर कम मिल रहे हैं। ऐसा मनरेगा और राज्य सरकार की ओर से गरीब परिवारों को तरह- तरह के मदों में मिल रही भारी आर्थिक व अनाज की मदद के कारण हो रहा है। खेतिहर मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत बढ़ गई है। अनेक किसानों के एक बड़े हिस्से को यह लगता है कि सरकार किसानों की अपेक्षा खेतिहर मजदूरों की ही अधिक मदद कर रही है। ऐसे किसान भी महाराजगंज में प्रभुनाथ सिंह के काम आ गये।
अब सवाल यह है कि क्या महाराजगंज का नतीजा लोकसभा व बिहार सभा के आगामी चुनावों में भी दोहराएगा ? यदि भाजपा और जदयू साथ- साथ रहे तो बिहार में इस गठबंधन को हराना किसी के लिए आसान नहीं होगा।
अधिक लोगों की तो यही राय है कि वैशाली लोकसभा उप चुनाव की तरह महाराजगंज का एक विशेष स्थान है जहां प्रभुनाथ सिंह जैसे एक ताकतवर नेता हैं। हर जगह ऐसे दबंग व जमीनी नेता लालू प्रसाद को ंनहीं मिल सकते। ऐसी जातीय बनावट भी हर क्षेत्र में नहीं है।
पर किसानों की वाजिब शिकायतों व बुनियादी जरुरतों पर भी राज्य सरकार को विशेष ध्यान देना होगा। हां, जिन अर्ध सामंती किसानों को इस बात का गुस्सा है कि नीतीश कुमार ने कमजोर वर्ग के लोगों का मन बढ़ा दिया है, तो उस मानसिक समस्या का हल तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं मिलेगा।
नरेंद्र मोदी को लेकर बिहार जदयू और भाजपा के बीच बढ़ती खटास को देखते हुए इस पर कोई फैसला जल्द करना होगा अन्यथा बाद में देर हो जाएगी। क्योंकि इस बीच जदयू और भाजपा कार्यकर्ताओं व नेताओं के बीच भी कटुता बढ़ती जाएगी। इसका विपरीत असर साथ चुनाव लड़ने के बावजूद पड़ सकता है।
महाराजगंज में जदयू के उम्मीदवार पी.के. शाही को महाबली लालू प्रसाद और बाहुबली प्रभुनाथ सिंह के साथ- साथ दिग्गज नरेंद्र मोदी की अदृश्य ताकत से भी एक साथ मुकाबला करना पड़ा था।
प्रतिष्ठा के इस चुनाव क्षेत्र में नरेंद्र मोदी की भी अदृश्य किंतु मजबूत उपस्थिति रही। ऐसा नहीं था कि लालू प्रसाद और नरेंद्र मोदी में कोई भीतरी तालमेल था। बल्कि नीतीश कुमार के मोदी विरोधी रुख से महाराजगंज चुनाव क्षेत्र के भी मोदी समर्थक सख्त नाराज थे। वे जदयू को सबक सिखाना चाहते थे। नरेंद्र मोदी समर्थकों में अब ऐसे लोग भी शामिल हो चुके हैं जो भाजपा के सदस्य या समर्थक नहीं हैं। नरेंद्र मोदी बनाम नीतीश कुमार को लेकर बिहार भाजपा के कुछ नेताओं की राय जग जाहिर है। हालांकि सुशील कुमार मोदी सहित कई नेताओं ने जदयू के पक्ष में महाराजगंज में दिल से प्रचार भी किया था। पर, सरजमीन पर चुनाव को लेकर जदयू और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच कम ही तालमेल हो पाया।
अनेक मतदाता जो प्रभुनाथ सिंह से खुश नहीं भी रहे हैं, वैसे लोगों ने भी जदयू को सबक सिखाने के लिए राजद को इस बार वोट दे दिया। ऐसे लोग नीतीश कुमार के मोदी विरोधी रुख से नाराज हैं। ऐसे लोगों में भाजपा के कट्टर समर्थक तो शामिल हैं ही। जदयू उम्मीदवार पी.के. शाही का यह आरोप गलत नहीं लगता है कि असहयोग के कारण उनकी हार हुई है। असहयोग सिर्फ भाजपा समर्थकों की ओर से ही नहीं था। बल्कि कुछ स्थानीय जदयू नेताओं की ओर से भी शाही को पूर्ण सहयोग नहीं रहा। कहा जाता है कि जदयू के कुछ स्थानीय नेता अपना भी राजनीतिक भविष्य देख रहे थे। वे प्रभुनाथ सिंह से दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहते थे। इसके बावजूद जदयू उम्मीदवार पी.के. शाही को 2 लाख 44 हजार मत मिले। इन मतों में भाजपा का योगदान कम ही रहा। इससे यह बात भी साफ है कि जदयू की भी अपनी एक ताकत है जो महाराजगंज सहित पूरे राज्य में भी फैली हुई है। यह ताकत विपरीत परिस्थिति में भी जदयू को काम आने वाली है।
हालांकि महाराजगंज की स्थिति विशेष है। इसी तरह की एक विशेष राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति मेें 1994 में लोकसभा का उपचुनाव वैशाली में हुआ था। तब के सत्ताधारी दल जनता दल को निर्दलीय लवली आनंद के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा था। हालांकि एक ही साल बाद हुए बिहार विधानसभा के आम चुनाव में लालू प्रसाद यादव के दल को पूर्ण बहुमत मिल गया था।
कोई माने या नहीं माने, पर देश के एक बड़े हिस्से में इन दिनों नरेंद्र मोदी की मंद बयार हवा बह रही है। उसमें जातीय, उप जातीय व सांप्रदायिक वोट बैंक की राजनीति वाला बिहार भी शामिल है।
यह हवा सिर्फ गुजरात दंगे में मोदी की कथित भूमिका को लेकर नहीं है। कुछ अन्य तत्व भी हैं। एक तो मोदी की छवि कठोर प्रशासक की बन गई है और उन पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का कोई आरोप भी नहीं है। दूसरी ओर केंद्र सरकार में इन गुणों की भारी कमी है।
जो लोग यह मानते हैं कि यह देश नक्सली हिंसा, आतंकवादी घटनाओं, व्यापक सरकारी भ्रष्टाचार, लुंजपुज शासन तथा सीमा की रक्षा के प्रति लापरवाही की समस्याओं से जूझ रहा है, उन्हें नरेंद्र मोदी से उम्मीद जग गई है। यह और बात है कि अंततः उनकी उम्मीदें पूरी होंगी या नहीं।
स्वाभाविक है कि ऐसे लोग महाराजगंज में भी हैं। उन्हें मोदी के खिलाफ नीतीश कुमार का रुख अच्छा नहीं लग रहा है। ऐसे लोगों ने अपने कारणों से इस बार राजद को वोट दे दिये। जरूरी नहीं कि वे लोग 2015 में लालू प्रसाद के दल को बिहार की गद्दी सौंपने के प्रयास को भी मदद पहुंचा ही देंगे।
नरेंद्र मोदी के खिलाफ नीतीश कुमार के राजनीतिक रुख का सैद्धांतिक आधार है। पर, महाराजगंज का चुनाव नतीजा उन्हें यह बताने के लिए पर्याप्त है कि नरेंद्र मोदी का विरोध जदयू के लिए अगले चुनाव में महंगा पड़ सकता है। क्योंकि यह जरूरी नहीं है कि मोदी विरोध के बावजूद अल्पसंख्यकों के मत थोक में जदयू को मिल ही जाएंगे। यदि थोक वोट नहीं मिलेंगे तो भाजपा से अलग होने के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई जदयू कैसे कर पाएगा?
हालांकि नीतीश कुमार ने यह भी कहा है कि वे अपने रुख पर कायम रहेंगे, भले इसके लिए उन्हें कोई भी राजनीतिक कीमत क्यों न चुकानी पड़े। यदि सचमुच कीमत चुकानी पड़ी तो इस तरीके से नीतीश कुमार का नाम इतिहास में दर्ज जरूर हो जा सकता है कि उन्होंने सिद्धांत के लिए गद्दी को खतरे में डाल दिया। ऐसे नेता देश में नहीं के बराबर हैं। पर वैसी स्थिति आई तो इसके साथ ही बिहार की जनता के उस हिस्से को भी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है जो लालू प्रसाद के दल के शासन की वापसी कत्तई नहीं चाहते।क्योंकि अनेक लोगों को लालू प्रसाद के इस वायदा पर कतई विश्वास नहीं है कि वे सत्ता में आने के बाद इस बार शांति व्यवस्था व विकास के लिए काम करेंगे। जिस तरह उत्तर प्रदेश में मुलायम -अखिलेश अपना यह वादा नहीं पूरा कर पा रहे हैं, उसी तरह इस वायदे को पूरा करना खुद लालू प्रसाद के हाथ में भी नहीं है।क्योंकि आरोप है कि उनके साथ शांति व विकास विरोधी लोग ही अधिक हैं।
वैसे महाराजगंज की हार के कई और कारण भी हैं जिन पर सत्ताधारी जदयू को विचार करना होगा। महाराजगंज के आम राजपूत मतदाताओं के बीच इस बात को लेकर नाराजगी थी कि जदयू ने पहले की तरह उनके समुदाय के ही किसी नेता को टिकट नहीं दिया। सारण प्रमंडल में प्रभुनाथ सिंह जातीय पहचान के प्रतीक बन गये हैं।
हालांकि यह बात भी सच है कि जदयू ने इस बार राजपूत समुदाय से आने वाले जिस नेता को पहले टिकट का आॅफर किया था, उसने लड़ने से ही इनकार कर दिया।
2009 में पराजय के बाद प्रभुनाथ सिंह क्षेत्र में सक्रिय रहे, लोगों से इस बार विनम्रता से बातें करते रहे और अपने सामाजिक समीकरण को मजबूत बनाते रहे।
एक तरफ विधायक फंड के बंद होने और दूसरी ओर सरकारी दफ्तरों में जम कर घूसखोरी जारी रहने का असर राजग कार्यकर्ताओं पर भी पड़ा। उनमें से अनेक लोगों ने इस चुनाव में वैसी सक्रियता नहीं दिखाई जैसी उन्हें दिखानी चाहिए थी। दूसरी ओर बाहुबली प्रभुनाथ सिंह की ऐसी छवि बनी हुई है कि वे अपने लोगों के काम के लिए सरकारी दफ्तरों पर खुद भारी दबाव भी बना सकते हैं।
इधर इन दिनों किसानों को खेतिहर मजदूर कम मिल रहे हैं। ऐसा मनरेगा और राज्य सरकार की ओर से गरीब परिवारों को तरह- तरह के मदों में मिल रही भारी आर्थिक व अनाज की मदद के कारण हो रहा है। खेतिहर मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत बढ़ गई है। अनेक किसानों के एक बड़े हिस्से को यह लगता है कि सरकार किसानों की अपेक्षा खेतिहर मजदूरों की ही अधिक मदद कर रही है। ऐसे किसान भी महाराजगंज में प्रभुनाथ सिंह के काम आ गये।
अब सवाल यह है कि क्या महाराजगंज का नतीजा लोकसभा व बिहार सभा के आगामी चुनावों में भी दोहराएगा ? यदि भाजपा और जदयू साथ- साथ रहे तो बिहार में इस गठबंधन को हराना किसी के लिए आसान नहीं होगा।
अधिक लोगों की तो यही राय है कि वैशाली लोकसभा उप चुनाव की तरह महाराजगंज का एक विशेष स्थान है जहां प्रभुनाथ सिंह जैसे एक ताकतवर नेता हैं। हर जगह ऐसे दबंग व जमीनी नेता लालू प्रसाद को ंनहीं मिल सकते। ऐसी जातीय बनावट भी हर क्षेत्र में नहीं है।
पर किसानों की वाजिब शिकायतों व बुनियादी जरुरतों पर भी राज्य सरकार को विशेष ध्यान देना होगा। हां, जिन अर्ध सामंती किसानों को इस बात का गुस्सा है कि नीतीश कुमार ने कमजोर वर्ग के लोगों का मन बढ़ा दिया है, तो उस मानसिक समस्या का हल तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं मिलेगा।
नरेंद्र मोदी को लेकर बिहार जदयू और भाजपा के बीच बढ़ती खटास को देखते हुए इस पर कोई फैसला जल्द करना होगा अन्यथा बाद में देर हो जाएगी। क्योंकि इस बीच जदयू और भाजपा कार्यकर्ताओं व नेताओं के बीच भी कटुता बढ़ती जाएगी। इसका विपरीत असर साथ चुनाव लड़ने के बावजूद पड़ सकता है।
(संपादित अंश जनसत्ता के 7 जून 2013 के अंक में प्रकाशित)
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