सोमवार, 22 जुलाई 2013

सही साबित हो रही है नीतीश की आशंका

 
नरेंद्र मोदी का राजनीतिक अभियान या यूं कहें कि चुनावी अभियान शुरू हो चुका है। जिन शब्दों और प्रतीकों के जरिए वह चल  रहा है, उससे लगता है कि भाजपा से अलग होने का नीतीश कुमार का निर्णय सही था। जदयू को यह  आशंका पहले से ही थी। उसे लगता था कि विभाजनकारी व्यक्तित्व वाले नेता होने के कारण नरेंद्र मोदी को कमान सौंपी गई तो वे देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की स्थिति ला देंगे। वह नुकसानदेह साबित होगा। आज लगता है कि यही हो रहा है।

  यहां तक कि खुद भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा को हाल में यह कहना पड़ा कि बहस वास्तविक मुद्दों से भटक गई है। आगामी चुनावों के लिए बहस आर्थिक स्थिति और आम आदमी को पेश आ रही समस्याओें पर होनी चाहिए जिनके लिए कांग्रेस सरकार जिम्मेदार है, न कि सांप्रदायिकता बनाम धर्म निरपेक्षता पर।

    क्या श्री सिन्हा की सलाह नरेंद्र मोदी मानेंगे ? पता नहीं। क्योंकि इस देश में दूसरी तरफ दिग्विजय सिंह जैसे बड़बोले नेता भी उपलब्ध हैं जो ऐसे विवादों की  आग में घी डालने का काम करते रहते हैं। इस देश में इन दिनों नरेंद्र मोदी और दिग्विजय सिंह सांप्रदायिकतायुक्त राजनीतिक विमर्श के मुख्यतः दो ध्रुव बन चुके हैं। यदि नरेंद्र मोदी कहते हैं कि मैं हिंदू राष्ट्रवादी हंू तो दिग्विजय सिंह कहते हैं कि मैं कर्मकांडी हिंदू हंू। मोदी इन दिनों धार्मिक स्थलों का कुछ अधिक ही भ्रमण कर रहे हैं। उधर दिग्विजय सिंह को अपने बारे में यह बात सार्वजनिक करना जरूरी लगता है कि ‘मैं हर एकादशी का व्रत रखता हूं।’

   क्या भारतीय राजनीति के विमर्श का यही स्तर होना चाहिए ? ऐसी नौबत किसने लाई ? इसके आगे और कैसे नतीजे होंगे ?

 यदि भाजपा चुनाव अभियान समिति के प्रधान को किसी ने बीच में नहीं रोका तो अगला चुनाव सांप्रदायिक मुददों पर ही होगा। चुनाव तो अभी दूर है, उससे पहले देश का माहौल बिगड़ जाएगा। इसे बिगाड़ने में भाजपा और कांग्रेस दोनों के निहितस्वार्थ है, पर अन्य लोगों व संगठनों का क्या होगा ? नीतीश कुमार ने शायद इस स्थिति का पूर्वानुमान कर लिया था।

  समाजवादी पृष्ठभूमि के नीतीश कुमार ने गत जून के मध्य में ं ही भाजपा का साथ छोड़ते हुए ऐसी आशंका व्यक्त की थी। उन्होंने कहा था कि हम अपने बुनियादी उसूलों के साथ समझौता नहीं कर सकते चाहे इसका जो भी नतीजा हो। संभवतः वे यह भी इशारा कर रहे थे कि चुनाव हारने की कीमत पर भी देश को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की ओर ले जाने के काम में मददगार नहीं बनेंगे।

    उससे पहले भाजपा ने पंजिम में 9 जून को बड़े जोशो -खरोस और भारी ताम झाम के साथ नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रधान बनाया था। ताजपोशी तो उनकी चुनाव अभियान समिति के प्रधान पद पर हो रही थी, पर लग रहा था कि उन्हें भावी प्रधान मंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जा रहा था।

     नरेंद्र मोदी ने बुर्के वाली बात कहकर अपने इरादे का खुलेआम प्रदर्शन कर दिया कि वे आखिर अपने चुनावी व राजनीतिक अभियान को किस तरीके से चलाना चाहते हैं।उन्होंने गत 14 जुलाई को पूणे में कहा कि अपनी विफलताओं पर पर्दा डालने के लिए कांग्रेस धर्म निरपेक्षता के बुर्के के पीछे छिप जाती है। इस बयान पर विवाद उठना ही था।उठा भी।राजनीतिक और सांप्रदायिक माहौल गरमाया। मोदी की इस प्रतीकात्मक टिप्पणी को अल्पसंख्यकों ने किस रुप में लिया ?इसका जवाब भाजपा के ही एक अल्पसंख्यक नेता के बयान से मिल जाता है।

   भाजपा के ही  शाहनवाज हुसेन ने मोदी की इस टिप्पणी को ज्यों का त्यों नहीं दोहराया।बल्कि उन्होंने यह कहा कि कांग्रेस धर्म निरपेक्षता का कंबल ओढ़ कर गलत तरीके से वोट हथियाना चाहती है।बुर्के के बदले उन्होंने कंबल शब्द का इस्तेमाल किया।शाहनवाज को लगा होगा कि उनके मुंह से बुरका शब्द का इस्तेमाल अल्पसंख्यक पसंद नहीं करेंगे।

  यह और बात है कि बुर्के की चर्चा करने पर अल्पसंख्यक नेताओं ने कम बल्कि उन गैर-अल्पसंख्यक नेताओं ने ही अधिक तीखी प्रतिक्रियाएं जाहिर कीं जो अल्पसंख्यक मतों के सौदागर माने जाते हैं।ऐसे नेताओं के लिए नरेंद्र मोदी जैसे नेता चुनावी राजनीति में अनुकूल साबित होते हैं। सांप्रदायिक धु्रवीकरण का लाभ दोनों को मिलता  है।

  पर यशवंत सिंहा जैसे नेता भी इसके खतरे देख रहे हैं।अविभाजित बिहार के मूल निवासी होने के कारण सिंहा  अच्छी तरह जानते हैं कि अपवादों को छोड़ दें तो हिंदू मतदाता तो आम तौर पर जातियों में बंटे होते हैं,पर अल्पसंख्यक मतदाताओें में यदि भय पैदा होगा तो वे किसी एक ताकतवर  दल के पक्ष  में मजबूती से एकजुट हो जाएंगे।मजबूत दल अलग -अलग राज्य में अलग -अलग दल हो सकते हैं।

  क्या नरेंद्र मोदी  को ऐसे उद्गार प्रकट करने से कोई रोक पाएगा ? लगता तो नहीं है।क्योंकि ताजा खबर यह है कि जो कुछ मोदी जी कर रहे हैं,उनमें भाजपा के कुछ बड़े नेताओं के साथ -साथ संघ की भी सहमति है।इस बीच राम मंदिर का नारा भी एक बार फिर तेज कर दिया गया है।मोदी के अनन्य सहयोगी अमित शाह ने इसकी शुरुआत की है।उत्तर प्रदेश और बिहार के जातीय समीकरण के सामने भाजपा के विकास का मुद्दा नहीं चल पाने के कारण शायद ऐसा किया जा रहा है।

    आज नरेंद्र मोदी जिस तरह के उकसावापूर्ण भाषण दे रहे हैं और जिस गति से धार्मिक स्थलों का दौरा कर रहे हैं, वैसा वे नहीं भी करते तो भी उन्हें कोई राजनीतिक घाटा नहीं होता, ऐसा कुछ राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है। देश में ऐसे लोगों की संख्या अब कम नहीं है जो मनमोहन सिंह की कथित निकम्मी व भ्रष्ट सरकार से बुरी तरह उब चुके हैं। वे लोग लोग प्रधानमंत्री के पद पर नरेंद्र मोदी की तरह के ही एक सफल प्रशासक चाहते हैं। सन 2002 के दंगे के कारण भले नरेंद्र मोदी की एक खास छवि बन चुकी है, पर उनकी यह भी उपलब्धि गौर करने लायक है कि उन्होंने 2002 के बाद गुजरात में एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं होने दिया। यदि 2002 के दंगे के लिए उन्हें दोषी माना जाता है तो दंगे नहीं होने देने का श्रेय भी उन्हें मिलना ही चाहिए। यदि कोई व्यक्ति वर्षों तक दंगे रोकने का श्रेय मोदी को नहीं देना चाहता है तो उसे 2002 के दंगे के लिए भी उन्हें जिम्मेदार ठहराने का नैतिक  हक नहीं है।

 अक्सर बड़े दंगों के लिए चर्चित गुजरात में दंगे रोकने का काम कोई सफल प्रशासक ही कर सकता है।

  गुजरात विकास के मामले में पहले भी आगे था। पर नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के बाद भी अपने शासन काल में उसे आगे बढ़ाया है। मोदी की कुछ विफलताएं हैं तो कई सफलताएं भी हैं। अनेक सर्वेक्षणों के अनुसार नरेंद्र मोदी अभी देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। ऐसे सर्वेक्षण नतीजे उनके बुर्के और हिंदू राष्ट्रवादी वाले बयानों से पहले ही आ चुके हैं।

   पर, शायद नरेंद्र मोदी को यह गलतफहमी है कि गुजरात के बाहर इस देश के लोग उन्हें एक कट्टर हिंदू के रूप में ही देखना चाहते हैं।

  जबकि अधिक सही बात यह है कि इस देश के अधिकतर लोग प्रधान मंत्री पद के लिए एक ईमानदार और कड़ा प्रशासक और सब तरह की संकीर्णताओं से दूर रहने वाला नेता चाहते हैं। क्योंकि यह विभिन्नताओं का देश है। यदि मोदी खुद को हिंदू राष्ट्रवादी के रुप में ही पेश करना चाहते हैं तो भी उन्हें सार्वजनिक रूप से यह कहने की कोई जरूरत नहीं। उनकी उपस्थिति और उनका नाम ही बहुत कुछ कह जाता है।

( 21 जुलाई 2013 )
       

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