दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को निजी सुरक्षा के संबंध में इतिहास तथा ‘जनता दरबार’ के संबंध में वर्तमान से सीखना चाहिए। भगदड़ मच जाने का खतरा सामने होने पर मुख्यमंत्री को शनिवार को अपने ‘जनता दरबार’ को बीच में ही स्थगित कर देना पड़ा। अब वे बेहतर तरीके से जनता दरबार आयोजित करने का प्रयास करेंगे।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वर्षों से ‘जनता के दरबार में मुख्यमंत्री’ कार्यक्रम आयोजित करते रहे हैं। वहां कोई भगदड़ नहीं मचती क्योंकि भीड़ को नियंत्रित रखने के उपाय किये जाते हैं। केजरीवाल को उस अनुभव से लाभ उठाना चाहिए था।
दूसरी ओर, अपनी निजी सुरक्षा को लेकर उन्हें इतिहास से सीखना चाहिए। जो इतिहास से नहीं सीखता, वह उसे दुहराने के लिए अभिशप्त होता है।
नेता नहीं, विशेषज्ञ करें सुरक्षा का फैसला
केजरीवाल ने शुक्रवार को भी कहा है कि वे जेड श्रेणी की सुरक्षा स्वीकार नहीं करेंगे। दरअसल किस नेता को किस श्रेणी की सुरक्षा चाहिए, उसका फैसला खुद नेता को नहीं बल्कि विशेषज्ञों को करने देना चाहिए।
इस बीच यह खबर आई है कि केजरीवाल के इस निर्णय से मुख्यमंत्री की सुरक्षा का खर्च बढ़ गया है। क्योंकि उनकी परोक्ष सुरक्षा पर शासन को अधिक खर्च करना पड़ रहा है।
मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल जनहित में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। उनके प्रारंभिक सरकारी फैसलों से भी निहितस्वार्थी तत्व सख्त नाराज हो सकते हैं। उन्हें नुकसान पहुंचाने की कोशिश भी कर सकते हैं।
केजरीवाल कहते हैं कि उनका जीवन भगवान के हाथों में है। पर कहावत है कि ‘भगवान भी उसी की मदद करता है जो अपनी मदद खुद करता है।’
देश भुगत चुका है नुकसान
सुरक्षा के मामलों में लापरवाही बरतने या फिर इसे भगवान के भरोसे छोड़ दे़ने का भारी नुकसान यह देश कई बार भुगत चुका है। मध्य युग में जब विदेशी हमलावर हमारे मंदिरों पर आक्रमण करते थे तो पुजारीगण हमलावरों का मुकाबला करने -करवाने के बदले उसी समय भगवान की प्रार्थना करने लगते थे। वे मंदिर की रक्षा के लिए भगवान को बुलाने लगते थे। भगवान को तो न आना होता था और न ही वे आते थे। नतीजों की कहानियां हमारे इतिहास के पन्नों पर मौजूद हैं।ं
महात्मा गांधी ने भी किया था इंकार
केजरीवाल को महात्मा गांधी हत्याकांड से भी सबक लेना चाहिए। महात्मा गांधी तब दिल्ली के बिड़ला हाउस में प्रार्थना सभाएं आयोजित करते थे। उनमेंं शामिल होने के लिए आने वालों की तलाशी लेने तक की अनुमति उन्होंने शासन को कभी नहीं दी थी।
यदि सघन तलाशी ली गई होती तो नाथूराम गोडसे अपनी पिस्तौल लेकर गांधी जी के नजदीक नहीं पहुंच पाता। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने भी अपनी सुरक्षा के मामले में अव्यावहारिक रुख अपनाया था।
दुश्मनों की कमी नहीं
केजरीवाल की भी सुरक्षा की समस्या सिर्फ उनकी खुद की समस्या नहीं है। दरअसल केजरीवाल अब उन लोगों की भी संपत्ति हैं जिन लोगों ने उनसे एक बेहतर सरकार व नई राजनीतिक शैली की उम्मीद लगा रखी है। वे कितने दिनों तक दिल्ली की गद्दी पर रहते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे सत्ता से बाहर भी रहेंगे तो उनके दुश्मनों की अब कोई कमी नहीं रहेगी। क्योंकि केजरीवाल शैली की राजनीति को यह सिस्टम स्वीकार करने के लिए अभी तैयार ही नहीं दिखता है। निहितस्वार्थियों की जमात ऐसे भी हर समय सक्रिय रहती है।
बेहतर सरकारी फैसलों के साथ- साथ सादा जीवन बिताना केजरीवाल का स्वभाव सा बन गया है। इससे केजरीवाल के पक्ष में देश में अच्छा संदेश गया है। इसे ही पर्याप्त माना जाना चाहिए था।
जनता को हक का हौसला
इस देश में आतंकवाद, नक्सलवाद और आर्थिक तथा आपराधिक माफियागिरी का दौर -दौरा चल रहा है। उसमें किसी ईमानदार व देशभक्त नेता की सुरक्षा कभी भी खतरे में पड़ सकती है। आम आदमी की सरकार दिल्ली के जिन बड़े- बड़े व ताकतवर आर्थिक अपराधियों के स्वार्थों को क्षति पहुंचाकर आम जनता को उनका हक दिलाने का हौसला बांध रही है, वैसी स्थिति में केजरीवाल की निजी व बेहतर सुरक्षा बहुत जरूरी है।
पटेल को मना किया था महात्मा गांधी ने
20 जनवरी, 1948 को दिल्ली के बिड़ला हाउस के पास बम विस्फोट हुआ था। उस घटना के बाद तत्कालीन गृह मंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने एक एस.पी. को बापू के स्टाफ के पास भेजा। एस.पी. ने उन लोगों से कहा कि हम चाहते हैं कि प्रार्थना सभा में शामिल होने वालों की तलाशी ली जाए।
पर गांधी जी इसके लिए तैयार नहीं हुए। उसके बाद डी.आइ.जी. स्तर के एक अधिकारी गांधी जी से मिले। उनसे गांधी जी ने कहा कि मेरी जान ईश्वर के हाथ है। अंत में सरदार पटेल ने खुद गांधी से मिलकर उनसे प्रार्थना की। पर गांधी जी ने साफ -साफ कह दिया कि यदि किसी की भी तलाशी शुरू कराओगे तो मैं आमरण अनशन शुरू कर दूंगा। शासन लाचार हो गया और नाथू राम गोडसे सफल हो गया। हालांकि तब घटना के समय वहां सादे कपड़े में 30 पुलिस अधिकारी तैनात थे।
इंदिरा ने की चेतावनी की अनदेखी
अब जरा इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या की चर्चा की जाए। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में जून ,1984 में हुए ब्लू स्टार आपरेशन की पृष्ठभूमि में उनके निजी सुरक्षाकर्मियों ने ही उनके आवास में इंदिरा जी की हत्या कर दी।
आपरेशन ब्लू स्टार के बाद ही इंदिरा गांधी की जान पर खतरा काफी बढ़ गया था। खुफिया सूत्रों ने इंदिरा गांधी के निजी सचिव आर.के. धवन से कहा था कि एक खास समुदाय के सुरक्षाकर्मियों को प्रधानमंत्री की सुरक्षा से हटा दिया जाना चाहिए। उन्हें नहीं हटाया गया। धवन ने बाद में एक आयोग के समक्ष कहा कि ‘उन सुरक्षाकर्मियों को न हटाने का निर्णय खुद प्रधानमंत्री का था न कि मेरा।’
हालांकि एक अन्य खबर के अनुसार इंदिरा गांधी ने 1971 के बंगलादेश युद्ध के समय संदिग्ध लोगों को महत्वपूर्ण स्थानों से हटवा दिया था।
यह और बात है कि तब प्रतिपक्षी नेता जार्ज फर्नांडिस ने यह सवाल उठाया था। जार्ज 1972 की अपनी जनसभाओं में इस बात को लेकर इंदिरा जी की आलोचना किया करते थे।
राजीव गांधी ने भी तोड़ा था नियम
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश व खुद कांग्रेस की राजनीति बदल गई। राजीव गांधी की 1991 में मद्रास के पास बेरहम हत्या कर दी गई। जिस सभा में मानव बम के जरिए तमिल उग्रवादियों ने उनकी हत्या की, उस सभा में सुरक्षा नियमों को खुद राजीव गांधी और तमिलनाडु कांग्रेस के नेताओं ने तोड़ा था। राजीव गांधी ने मानव बम बनी युवती को अपने पास आने दिया जबकि सुरक्षा की दृष्टि से ऐसा करने की मनाही थी। राजीव गांधी के नहीं रहने पर कांग्रेस को और अधिक नुकसान हुआ।
राजीव गांधी आज होते तो कांग्रेस की जैसी स्थिति आज बनी हुई है, शायद वैसी नहीं होती। आज सोनिया -राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस बिना पतवार की दिशा विहीन नाव बन चुकी है। एक बड़ी पार्टी की दुर्दशा का दंश पूरा देश भी झेल रहा है।
देश के लिए महत्वपूर्ण थे नेता
इसलिए कई बार किसी देश की राजनीति को प्रभावित करने के लिए एक नेता का बड़ा रोल होता है। कल्पना कीजिए कि यदि महात्मा गांधी आजादी के पांच-दस साल बाद तक भी हमारे बीच रहते तो क्या सत्ताधारी कांग्रेसियों की वैसी ही दशा-दिशा होती जैसी प्रारंभिक वर्षों में ही सत्ताधारियों ने बना दी ?
याद रहे कि जब गांधी की हत्या हुई तब उनकी उम्र 80 साल भी पूरी नहीं हुई थी। गांधी की तरह ही निजी जीवन में संयमी मोरारजी देसाई करीब सौ साल तक हमारे बीच थे। करीब 95 साल तक तो मोरार जी भाई दिमागी तौर पर सजग व सक्रिय थे।
इस पृष्ठभूमि में अपनी निजी सुरक्षा को लेकर आज अरविंद केजरीवाल जैसे नेता लापरवाही व अपरिपक्वता अपनाते हैं तो वे राजनीति के इस मोड़ पर खुद से अधिक उस जनता को भी अनिश्चितता में डालते हैं जो लोग उनकी ओर उम्मीद भरी नजरों से आज देख रहे हैं।
(इस विश्लेषण का संपादित अंश 12 जनवरी, 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)
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