अन्ना हजारे ने भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को चिट्ठी लिखकर उनसे मदद मांगी है। यह मदद किसी जन कल्याणकारी काम के लिए नहीं मांगी गई है। मदद अन्ना की खुद की मूर्ति की स्थापना के लिए मांगी गई है।
विख्यात समाजसेवी अन्ना हजारे ने भाजपा नेता से आग्रह किया है कि वे गुड़गांव में उनकी मूर्ति लगाने में आ रही अड़चन को दूर करें। अन्ना समर्थकों द्वारा अन्ना हजारे की मूर्ति लगाने की कोशिश का स्थानीय भाजपा नेता विरोध कर रहे हैंं।
भाजपा अध्यक्ष ने अन्ना की चिट्ठी पर क्या कदम उठाया है, यह तो पता नहीं चला है, पर अन्ना की यह चिट्ठी चैंकाती है। (ताजा जानकारी के अनुसार राजनाथ सिंह के हस्तक्षेप के बाद गुड़गांव के भाजपा नेता ने अन्ना की मूर्ति के लिए स्थल चयन में मदद करने का आश्वासन दिया है।)
यह बात खुद अन्ना हजारे के स्वभाव व व्यक्तित्व के खिलाफ लगती है। अन्ना हजारे की छवि एक निःस्वार्थ सेवाभावी की बनी है। उस छवि में इस बात का कोई स्थान नहीं है कि वे अपने जीवनकाल में ही अपनी मूर्ति लगवाने के काम में मदद करें। आज की तारीख में तो अन्ना हजारे करोड़ों लोगों के दिलों में घर बना चुके हैं। उन्हें मूर्तियों में समेटना बनावटी लगता है।
राजनाथ सिंह को लिखी चिट्ठी से अन्ना हजारे की खुद की छवि को धक्का लगता है। अन्ना के अनेक प्रशंसकों ने इसे अच्छा नहीं माना है। उन्हें डर है कि इससे अन्ना के विरोधियों को बल मिलेगा। अन्ना के भ्रष्टाचारविरोधी अभियान के कारण अनेक निहितस्वार्थी तत्व अन्ना के विरोधी हो गये हैं।
इससे पहले मायावती अपनी मूर्ति को लेकर काफी चर्चा में आई थीं। अपने शासनकाल में उन्होंने उत्तर प्रदेश में अपनी भी मूर्तियां लगवाईं।
मायावती जैसी नेताओं को यह आशंका हो सकती है कि उनके नहीं रहने के बाद पता नहीं कोई उनकी मूर्तियां लगवाएगा या नहीं। पर अन्ना हजारे को तो इसकी कोई आशंका नहीं होनी चाहिए थी।
उनके नहीं रहने पर उनकी मूर्तियां लगेंगी ही ऐसी उम्मीद तो की ही जा सकती है। भ्रष्टाचार विरोधी अभियान व जन सेवा के क्षेत्रों में उनके काम उल्लेखनीय रहे हैं। अभी तो उन्हें और भी काम करने हैं।
डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि किसी व्यक्ति की मूर्ति उसके निधन के सौ साल बाद ही लगनी चाहिए। क्योंकि इतिहास तब तक उस व्यक्ति के बारे में निष्पक्ष आकलन कर चुका होता है।
नब्बे के दशक मेंे मास्को में उस देश के वासियों द्वारा ही जब लेनिन की मूर्ति सरेआम तोड़ दी गई तो कुछ लोगों ने डा. लोहिया की उक्ति याद की थी। तब तक बोल्शेविक क्रांति के सौ साल पूरे नहीं हुए थे।
पर इसी देश में संभवतः पहली बार इलाहाबाद में खुद डा. लोहिया की मूर्ति लगनी शुरू हुई तो विरोध होने पर उनके कुछ अनुयायियों ने डा.लोहिया की उक्ति को ही झुठला दिया। एक लोहियावादी ने कहा कि डा.लोहिया ने सौ साल बाद नहीं बल्कि दस साल बाद की ही सीमा बांधी थी।
दरअसल जिन्हें डा. लोहिया के कहे अनुसार नहीं चलना था, उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु को मूर्तियों तक ही सीमित कर देना ठीक समझा।
इस संबंध में अविभाजित कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा की टिप्पणी याद आती है। 1994 में कर्नाटका के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरप्पा मोइली ने घोषणा की कि वे एस. निजलिंगप्पा की मूर्ति उनके जीवनकाल में ही लगवाना चाहते हैं। इसके लिए विधायकों की एक समिति गठित की जाएगी।
पर, उस समय जब इस बारे में निजलिंगप्पा से एक पत्रकार ने पूछा तो उन्होंने एक अंग्रेज कवि की कविता सुना दी,--‘अनसंग, अनवेप्ट, अनहर्ड, लेट मी डाइ। लेट नाॅट अ स्टोन टेल व्हेयर आई लाइ।’ निजलिंगप्पा ने यह भी कहा कि ‘मैं नहीं चाहता कि कौवे मेरी मूर्ति पर बैठ कर उसे गंदा करें।’
कर्नाटका के मुख्यमंत्री रहे निजलिंगप्पा के लिए लोगों के मन में सम्मान था क्योंकि आजादी की लड़ाई के एक यांेद्धा थे। पर, उससे कम इज्जत अन्ना हजारे के लिए आज नहीं है जिन्होंने भ्रष्टाचार से आजादी के लिए अपनी जान जोखिम में डाला। लंुजपुंज ही सही, पर उनके प्रयास से एक लोकपाल कानून देश के सामने आया।
इसलिए अन्ना से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वे खुद अपनी मूर्ति के लिए प्रयास करें। नेताओं की मूर्तियों की स्थापना को लेकर इस देश में अक्सर विवाद होते रहे हैं।
जीवनकाल में ही मूर्तियां लगवाने की परंपरा संभवतः तमिलनाडु में शुरू हुई थी। सन 1961 में तत्कालीन मुख्यमंत्री के. कामराज की मूर्ति मद्रास में लगवाई गई थी जिसका अनावरण तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने किया था। तब भी एक तबके ने उसका विरोध किया था।
कामराज का निधन 1975 में हुआ। सन् 1967 में तत्कालीन मुख्यमंत्री सी.एन. अन्नादोरै की मूर्ति मद्रास में ही लगाई गई तब भी उसकी आलोचना हुई थी।
यह ऐसी ही बात है जैसे कोई व्यक्ति अपने जीवनकाल में ही अपना श्राद्ध कर्म करा ले। इस देश में कुछ ऐसे गिने -चुने लोग कराते भी रहे हैं जिन्हें यह आशंका होती है कि उनके नालायक वंशज यह काम ठीक से नहीं करेंगे। या, वे अपने नालायक वंशज से इतने नाराज होते हैं कि उनके हाथों यह काम नहीं होने देना चाहते।
पर, यह देश इतना कृतघ्न नहीं है कि उनके नहीं रहने पर अन्ना हजारे की सेवाओं को भूल जाए और उनकी मूर्ति न लगाए।
(06 जनवरी, 2014 के जनसत्ता से साभार)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें