क्या राष्ट्रीय स्तर पर दुहराएगा 2005 का बिहार ?
सांप्रदायिकता को भष्टाचार और शासनहीनता से अधिक खतरनाक मानने वाले दलों को 2005 में बिहार में चुनावी मात मिली थी। क्या वही चुनावी कथा इस बार राष्ट्रीय स्तर पर भी दुहराएगी जाएगी? पता नहीं कि अंततः क्या होगा। क्योंकि देश बड़ा है और चुनावों में एक साथ कई फैक्टर काम करते रहते हैं। अधिकतर क्षेत्रों में मतदान होने भी अभी बाकी हैं।
फिर भी मतदाताओं के जो प्रारंभिक किंतु अपुष्ट रुझान मिले हैं, उनसे लगता है कि अधिकतर मतदाताओं के समक्ष सांप्रदायिकता की अपेक्षा भ्रष्टाचार व महंगाई के दानव बहुत बड़ी समस्या बन कर उपस्थित हुआ है। अनिर्णय, अशासन व कुशासन ने इन समस्याओं को बढ़ाया है। बिहार में भी यही हुआ था।
बिहार में 1991 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही जनता के सामने भ्रष्टाचार, अविकास, शासनहीनता व जंगल राज की समस्याएं बड़ी तीव्रता से उठ खड़ी हुई थीं।
राज्य में 1990 से 1997 तक लालू प्रसाद मुख्यमंत्री थे। 1997 से 2005 तक राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं। सन 2000 से 2005 तक तो बिहार में राजद और कांग्रेस की मिलीजुली सरकार थी।
कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी इस बीच लगातार बिहार सरकार का बचाव करती रहीं। इन दलों ने तब कहा कि वे सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने के लिए लालू-राबड़ी की सरकार का साथ दे रही हैं। इसके विपरीत अधिकतर जनता के लिए सांप्रदायिकता की समस्या की अपेक्षा भ्रष्टाचार, जंगल राज और अविकास की समस्याएं काफी बड़ी समस्याएं थीं।
1996 में समता पार्टी के नेता नीतीश कुमार ने भी यह बात समझ ली थी। इसीलिए उन्होंने तब भाजपा से हाथ मिला लिया।
नतीजतन 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू-भाजपा गठबंधन सत्ता में आ गई। एकतरफा व ढोंगी धर्म निरपेक्षता की माला जपने वाली पार्टियां हाशिए पर चली गईं। नीतीश सरकार में भाजपा की मजबूत उपस्थिति रही। हालांकि भाजपा नीतीश कुमार के दबंग व्यक्तित्व के कारण बिहार में हिन्दुत्व का एजेंडा नहीं चला सकी। यहां तक कि वह पूर्वोत्तर बिहार में बंगलादेशी घुसपैठियों की समस्या भी भूल गई जिसको लेकर ए.बी.वी.पी. अक्सर आंदोलन करता रहता था।
सत्ता में आने के बाद नीतीश सरकार ने भागलपुर सांप्रदायिक दंगे में शामिल दोनों पक्षों के आरोपियों को अदालतों से सजाएं दिलवाई। इसके लिए बंद करा दिये गये मुकदमों को भी फिर से खुलवाया गया था। इस कदम से दोनों समुदाओं में से किसी ने भी यह महसूस नहीं किया कि शासन किसी के साथ पक्षपात कर रहा है। याद रहे कि इस मामले में बिहार सरकार ने वैसी एकतरफा कार्रवाई नहीं की जैसी कार्रवाई हाल के मुजफ्फरनगर दंगे के सिलसिले में करने का आरोप अखिलेश सरकार पर लगा।
याद रहे कि इस काम में भाजपा ने नीतीश सरकार का विरोध नहीं किया। भागलपुर दंगे के एक आरोपी व एक हिन्दू संगठन से जुड़े कामेश्वर यादव के खिलाफ भी बंद केस को फिर से खुलवा कर शासन ने उसे अदालत से सजा दिलवाई। इसका भी भाजपा ने विरोध नहीं किया।
ऐसा करके नीतीश कुमार अपने नेता डा. राम मनोहर लोहिया का ही अनुसरण कर रहे थे जिन्होंने अपने जीवनकाल में दोनों धर्मों के कट्टरपंथियों का समान रुप से विरोध किया था।
1967 के आम चुनाव से ठीक पहले डा. लोहिया ने सार्वजनिक रुप से यह कह दिया था कि वे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के पक्षधर हैं। याद रहे कि भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्वों वाले अनुच्छेद में यह लिखा हुआ है कि शासन देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करेगा।
पर डा. लोहिया के इस बयान का अल्पसंख्यकों के एक बड़े हिस्से ने कड़ा विरोध कर दिया।
खुद डा. लोहिया के दल के कुछ बड़े नेताओं ने लोहिया से कहा कि चुनाव सिर पर है और आपने ऐसा बयान दे दिया। अब तो आप चुनाव हार जाएंगे।
डा. लोहिया ने जवाब दिया कि मैं सिर्फ चुनाव जीतने के लिए राजनीति में नहीं हूं। बल्कि देश की बेहतरी के लिए राजनीति में हूं। इस विवाद के कारण 1967 में डा. लोहिया मुश्किल से मात्र लगभग चार सौ मतों से ही लोकसभा चुनाव जीत सके थे।
याद रहे कि लोहिया यह भी कहा करते थे कि इस देश में जब -जब कट्टर हिन्दुत्व हावी रहा है तब -तब देश कमजोर हुआ है। पर इसके विपरीत स्थिति होने पर देश का भला हुआ है। पर आज के कितने नेतागण सांप्रदायिक समस्या पर इस तरह सम्यक व संतुलित रूप से सोचते हैं ?
पर, बिहार में सन 2009 के लोकसभा चुनाव व 2005 और 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव नतीजों के विश्लेषण से यह साफ लगता है कि आम जनता में से अधिकतर लोग उन नेताओं व दलों को ंपसंद नहीं करते हैं जो सांप्रदायिक समस्या का एकतरफा हौवा खड़ा करते रहते हैं।
जनता के चुनावी फैसलों से यह नतीजा निकलता है कि वह दोनों तरह की कट्टरताओं को नापसंद करती है। ताजा लोकसभा चुनाव मंे हो रहे मतदान के ताजा रुझान भी कमोवेश यही संकेत दे रहे हैं। इसके बावजूद दोनों पक्षों के अतिवादी नेताओं के उत्तेजक व एकतरफा बयान आने थम नहीं रहे हैं। यदि यह सब जारी रहा तो इसका असर आगे के मतदानों पर भी पड़ सकता है।
बिहार के चुनाव नतीजों व ताजा लोकसभा चुनाव के मतदान के आरंभिक रुझानों से एक साफ संदेश मिलता है। पर क्या नेता व बुद्धिजीवी लोग संकेत ग्रहण करना चाहेंगे ?
यदि वे कथित सांप्रदायिक दलों को सत्ता में आने से सचमुच रोकना चाहते हैं तो वे कुछ कथित सेक्युलर दलों से भी यह अपील करें कि वे अपने दल व सरकार में जारी भ्रष्टाचार, अपराध, वंशवाद और जातिवाद पर काबू पाएं।
दरअसल संविधान व कानून का पालन करने वाली भ्रष्टाचारमुक्त व अपराधमुक्त पार्टी व निर्मल शासन-व्यवस्था ही सभी रंगों के सांप्रदायिक तत्वों से भी कारगर तरीके लड़कर उन्हें पराजित सकती है। याद रहे कि भ्रष्टाचार से महंगाई बढ़ती है। महंगाई जाति और संप्रदाय के स्तर पर कोई भेदभाव नहीं करती।
सांप्रदायिकता को भष्टाचार और शासनहीनता से अधिक खतरनाक मानने वाले दलों को 2005 में बिहार में चुनावी मात मिली थी। क्या वही चुनावी कथा इस बार राष्ट्रीय स्तर पर भी दुहराएगी जाएगी? पता नहीं कि अंततः क्या होगा। क्योंकि देश बड़ा है और चुनावों में एक साथ कई फैक्टर काम करते रहते हैं। अधिकतर क्षेत्रों में मतदान होने भी अभी बाकी हैं।
फिर भी मतदाताओं के जो प्रारंभिक किंतु अपुष्ट रुझान मिले हैं, उनसे लगता है कि अधिकतर मतदाताओं के समक्ष सांप्रदायिकता की अपेक्षा भ्रष्टाचार व महंगाई के दानव बहुत बड़ी समस्या बन कर उपस्थित हुआ है। अनिर्णय, अशासन व कुशासन ने इन समस्याओं को बढ़ाया है। बिहार में भी यही हुआ था।
बिहार में 1991 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही जनता के सामने भ्रष्टाचार, अविकास, शासनहीनता व जंगल राज की समस्याएं बड़ी तीव्रता से उठ खड़ी हुई थीं।
राज्य में 1990 से 1997 तक लालू प्रसाद मुख्यमंत्री थे। 1997 से 2005 तक राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं। सन 2000 से 2005 तक तो बिहार में राजद और कांग्रेस की मिलीजुली सरकार थी।
कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी इस बीच लगातार बिहार सरकार का बचाव करती रहीं। इन दलों ने तब कहा कि वे सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने के लिए लालू-राबड़ी की सरकार का साथ दे रही हैं। इसके विपरीत अधिकतर जनता के लिए सांप्रदायिकता की समस्या की अपेक्षा भ्रष्टाचार, जंगल राज और अविकास की समस्याएं काफी बड़ी समस्याएं थीं।
1996 में समता पार्टी के नेता नीतीश कुमार ने भी यह बात समझ ली थी। इसीलिए उन्होंने तब भाजपा से हाथ मिला लिया।
नतीजतन 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू-भाजपा गठबंधन सत्ता में आ गई। एकतरफा व ढोंगी धर्म निरपेक्षता की माला जपने वाली पार्टियां हाशिए पर चली गईं। नीतीश सरकार में भाजपा की मजबूत उपस्थिति रही। हालांकि भाजपा नीतीश कुमार के दबंग व्यक्तित्व के कारण बिहार में हिन्दुत्व का एजेंडा नहीं चला सकी। यहां तक कि वह पूर्वोत्तर बिहार में बंगलादेशी घुसपैठियों की समस्या भी भूल गई जिसको लेकर ए.बी.वी.पी. अक्सर आंदोलन करता रहता था।
सत्ता में आने के बाद नीतीश सरकार ने भागलपुर सांप्रदायिक दंगे में शामिल दोनों पक्षों के आरोपियों को अदालतों से सजाएं दिलवाई। इसके लिए बंद करा दिये गये मुकदमों को भी फिर से खुलवाया गया था। इस कदम से दोनों समुदाओं में से किसी ने भी यह महसूस नहीं किया कि शासन किसी के साथ पक्षपात कर रहा है। याद रहे कि इस मामले में बिहार सरकार ने वैसी एकतरफा कार्रवाई नहीं की जैसी कार्रवाई हाल के मुजफ्फरनगर दंगे के सिलसिले में करने का आरोप अखिलेश सरकार पर लगा।
याद रहे कि इस काम में भाजपा ने नीतीश सरकार का विरोध नहीं किया। भागलपुर दंगे के एक आरोपी व एक हिन्दू संगठन से जुड़े कामेश्वर यादव के खिलाफ भी बंद केस को फिर से खुलवा कर शासन ने उसे अदालत से सजा दिलवाई। इसका भी भाजपा ने विरोध नहीं किया।
ऐसा करके नीतीश कुमार अपने नेता डा. राम मनोहर लोहिया का ही अनुसरण कर रहे थे जिन्होंने अपने जीवनकाल में दोनों धर्मों के कट्टरपंथियों का समान रुप से विरोध किया था।
1967 के आम चुनाव से ठीक पहले डा. लोहिया ने सार्वजनिक रुप से यह कह दिया था कि वे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के पक्षधर हैं। याद रहे कि भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्वों वाले अनुच्छेद में यह लिखा हुआ है कि शासन देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करेगा।
पर डा. लोहिया के इस बयान का अल्पसंख्यकों के एक बड़े हिस्से ने कड़ा विरोध कर दिया।
खुद डा. लोहिया के दल के कुछ बड़े नेताओं ने लोहिया से कहा कि चुनाव सिर पर है और आपने ऐसा बयान दे दिया। अब तो आप चुनाव हार जाएंगे।
डा. लोहिया ने जवाब दिया कि मैं सिर्फ चुनाव जीतने के लिए राजनीति में नहीं हूं। बल्कि देश की बेहतरी के लिए राजनीति में हूं। इस विवाद के कारण 1967 में डा. लोहिया मुश्किल से मात्र लगभग चार सौ मतों से ही लोकसभा चुनाव जीत सके थे।
याद रहे कि लोहिया यह भी कहा करते थे कि इस देश में जब -जब कट्टर हिन्दुत्व हावी रहा है तब -तब देश कमजोर हुआ है। पर इसके विपरीत स्थिति होने पर देश का भला हुआ है। पर आज के कितने नेतागण सांप्रदायिक समस्या पर इस तरह सम्यक व संतुलित रूप से सोचते हैं ?
पर, बिहार में सन 2009 के लोकसभा चुनाव व 2005 और 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव नतीजों के विश्लेषण से यह साफ लगता है कि आम जनता में से अधिकतर लोग उन नेताओं व दलों को ंपसंद नहीं करते हैं जो सांप्रदायिक समस्या का एकतरफा हौवा खड़ा करते रहते हैं।
जनता के चुनावी फैसलों से यह नतीजा निकलता है कि वह दोनों तरह की कट्टरताओं को नापसंद करती है। ताजा लोकसभा चुनाव मंे हो रहे मतदान के ताजा रुझान भी कमोवेश यही संकेत दे रहे हैं। इसके बावजूद दोनों पक्षों के अतिवादी नेताओं के उत्तेजक व एकतरफा बयान आने थम नहीं रहे हैं। यदि यह सब जारी रहा तो इसका असर आगे के मतदानों पर भी पड़ सकता है।
बिहार के चुनाव नतीजों व ताजा लोकसभा चुनाव के मतदान के आरंभिक रुझानों से एक साफ संदेश मिलता है। पर क्या नेता व बुद्धिजीवी लोग संकेत ग्रहण करना चाहेंगे ?
यदि वे कथित सांप्रदायिक दलों को सत्ता में आने से सचमुच रोकना चाहते हैं तो वे कुछ कथित सेक्युलर दलों से भी यह अपील करें कि वे अपने दल व सरकार में जारी भ्रष्टाचार, अपराध, वंशवाद और जातिवाद पर काबू पाएं।
दरअसल संविधान व कानून का पालन करने वाली भ्रष्टाचारमुक्त व अपराधमुक्त पार्टी व निर्मल शासन-व्यवस्था ही सभी रंगों के सांप्रदायिक तत्वों से भी कारगर तरीके लड़कर उन्हें पराजित सकती है। याद रहे कि भ्रष्टाचार से महंगाई बढ़ती है। महंगाई जाति और संप्रदाय के स्तर पर कोई भेदभाव नहीं करती।
( इस लेख का संपादित अंश 12 अप्रैल, 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें