बुधवार, 26 मार्च 2014

खुशवंत के जीवन में एक अफसोस और एक कुख्याति

खुशवंत सिंह को इस बात का अफसोस रहा कि ‘मैंने जीवन का बहुत सा हिस्सा वकालत और राजनयिक सेवा जैसी व्यर्थ की नौकरी में गंवा डाला। काश ! मेरा वह समय भी लिखने में लगा होता।’

  याद रहे कि 1939 से 1947 तक उन्होंने लाहौर हाईकोर्ट में वकालत की। वकालत चल नहीं रही थी। बैठे -बैठे मक्खियां मारने की नौबत थी।

1947 में विदेश मंत्रालय की नौकरी कर ली। लंदन में भारतीय उच्चायोग में सूचना अधिकारी बन गये। पर तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त वी.के. कृष्ण मेनन से तालमेल नहीं बना पाने के कारण खुशवंत का ओटावा तबादला कर दिया गया। 

   एक साक्षात्कार में उन्होंने लेखिका उषा महाजन को 1997 में एक और बात बताई थी, ‘लोग मुझे नाहक शराबी, कबाबी और व्यभिचारी समझते हैं जबकि मैं ऐसा नहीं हूं। इस नाहक कुख्याति का भी उन्हें अफसोस रहा। पर उन्होंने यह स्वीकारा कि मानता हूं कि अपनी इस कुख्याति के लिए मैं खुद ही जिम्मेदार हूं।

उन्होंने कहा ः दरअसल मेरी यह छवि बंबई में इलेस्ट्रेटेड वीकली के संपादन के दौरान बीते नौ वर्षों की देन है। वहांं मैंने सेक्स जैसे प्रतिबंधित विषयों पर लिखने की शुरुआत की और लड़कियों की अर्धनग्न तस्वीरें छापीं। इससे पत्रिका की प्रसार संख्या 80 हजार से बढ़कर चार लाख से भी अधिक हो गई।ल ेकिन दुर्भाग्यवश इसके साथ ही एक ऐसी छवि भी अर्जित कर ली जो मेरी सही तस्वीर न होते हुए भी आज तक मुझसे चिपकी हुई है। मेरे परिवारवाले और मुझे करीब से जानने वाले जानते हैं कि मैं वैसा नहीं हूं।

मैं न तो शराबी हूं और न ही औरतों आशिक हूं। दिन भर पढ़ने -लिखने और लोगों से मिलने का इतना काम रहता है कि इन सब चीजों की फुर्सत ही नहीं मिल सकती।

सिर्फ शाम में मैं अपनी ड्रिंक के साथ रिलैक्स करता हूं। ज्यादा कभी नहीं पीता वरना दूसरे दिन काम कैसे करूंगा ? अपनी पूरी जिंदगी में मैंने एक बार भी शराब पीकर अपने होश नहीं खोये।

  खुशवंत सिंह ने जब भी किसी को कोई इंटरव्यू दिया, उन्होंने सच्ची बातें बता दीं। ऐसी बातें भी जिन्हें आम तौर पर लोग छिपा जाते हैं।

 हाल ही में दिल्ली की एक हिंदी पाक्षिक पत्रिका से बातचीत में उन्होंने कहा था कि संजय गांधी के कहने पर मुझे एक अंग्रेजी दैनिक का संपादक बनाया गया था।

 उन्होंने यह भी स्वीकारा था कि उनकी नेहरु-इंदिरा परिवार से नहीं बल्कि सिर्फ संजय गांधी से घनिष्ठता थी। इंदिरा गांधी के कहने पर मुझे उस अखबार के संपादक पद से हटा दिया गया था।

इस साल के प्रारंभ में उनसे पूछा गया था कि इस उम्र में भी सक्रिय रहने का राज क्या है ? उन्होंने बताया कि मैं अपने जीवन में बहुत सख्त हूं। कम खाता हूं। मैं बहुत कम पीता हूं। ज्यादातर तरल लेता हूं। क्योंकि वह पचाने में आसान होता है।

 कई विधाओं में कलम चलाने वाले खुशवंत सिंह ने सिख इतिहास भी लिखा था जिसकी शुरू के दिनों में व्यापक चर्चा भी हुई।वे कथाकार थे। ट्रेन टू पाकिस्तान उनका चर्चित उपन्यास है जिस पर फिल्म भी बनी। अपनी पुस्तकों में से ‘दिल्ली’ को वे सर्वाधिक पसंद करते थे।

साहित्यिक पुरस्कारों के बारे में उन्होंने अपनी राय करीब डेढ़ दशक पहले ही बता दी थी। उन्होंने कहा था कि ‘जिनको अवार्ड मिलते हैं, वे अपने आप को वोट देकर अवार्ड ले लेते हैं। खुद को कैनवैस करके, लोगों के आगे -पीछे लग कर न जाने कितनी सेकेंड ग्रेड की किताबों को मिल जाते हैं पुरस्कार ! मैंने उनमें से एक भी किताब बाजार में नहीं देखी।

    ‘राज्यसभा की सदस्यता के बारे में उन्होंने कहा था कि राज्यसभा की सदस्यता ऐसे नहीं मिलती है। मांगनी पड़ती है। कैनवेसिंग करनी पड़ती है। इसके लिए बहुत तरफ से दबाव पड़ रहे होते हंै उन पर।’ उनसे पूछा गया था कि आपके मित्र इंदर कुमार गुजराल अब प्रधानमंत्री हैं। क्या आपको पुनः राज्यसभा की सदस्यता कर उम्मीद है ? खुशवंत सिंह 1980 से 1986 तक राज्यसभा के सदस्य थे।

 खुशवंत सिंह की याद आते ही एक और सवाल बरबस जेहन में कौंध जाता है। खुशवंत सिंह ने अधिक पुस्तकें लिखीं या उनके पिता सर सोभा सिंह और दादा सरदार सुजान सिंह ने अधिक बिल्डिंगें बनवार्इं ?

वे दिल्ली के सबसे बड़े ठेकेदार थे। सचिवालय का साउथ ब्लाॅक, इंडिया गेट, आकाशवाणी भवन, राष्ट्रीय संग्रहालय, बड़ौदा हाउस और सैकड़़ों सरकारी बंगले उन्होंने बनवाये।

  (जनसत्ता के 21 मार्च 2014 के अंक में प्रकाशित)  
     
      


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