बुधवार, 7 मई 2014

होली की गालियां या गब्बर सिंह के डायलाॅग ?


गत बिहार विधानसभा चुनाव में भी प्रतिस्पर्धी नेताओेंं के बीच तीखे आरोपों -प्रत्यारोपों के दौर चले थे। तब एक बड़े नेता ने कहा था कि चुनाव के दौरान की गई आलोचनाएं होली की गालियां जैसी होती हैं। उन गालियों को होली बीतने के बाद भुला दिया जाता है।

   पर क्या इस बार की तीखी व अभूतपूर्व गालियां भी होलियाना ही हैं ? ऐसा तो नहीं लगता। इन गालियों व तीखे संवादों के सामने तो शोले फिल्म के गब्बर सिंह के डायलाॅग भी फीके हो गये हैं।

क्या नेताओं के जहर बुझे बयानों से लगे घाव चुनाव के बाद भी जल्दी भर पाएंगे ? उम्मीद की जानी चाहिए कि वे घाव जल्द ही भर जाएं और तनावमुक्त ढंग से लोकतंत्र की गाड़ी फिर से चलने लगे।

   पर, ऐसा होने मेंे  कई लोगों को अभी संदेह है। उनका मानना है कि इसका असर चुनाव के बाद भी कुछ दिनों तक रहेगा। कई लोगों को इस बात पर आश्चर्य हो रहा है कि क्यों चुनाव आयोग  कसूर के अनुपात में तौलकर उन नेताओं को  सजा नहीं दे रहा है जो नेतागण खुलेआम चुनाव आचार संहिता का घोर उल्लंघन कर रहे हैं। साथ ही जो वोट के लिए समाज में विद्वेष फैलाने के साथ- साथ लोकतंत्र की गरिमा भी गिरा रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यदि आचार संहिता के सवाल पर एक -दो चुनाव क्षेत्रों के चुनाव स्थगित कर दिए गए होते तो बेलगाम नेताओं की बोलती बंद हो गई होती।

   चुनाव के कुछ फेज अब भी बाकी हैं। अब यह मतदाताओंं पर ही निर्भर है कि एक दूसरे के खिलाफ बयानों के ऐसे जहर बुझे तीर चलाने वालों को वे वोट देंगे या नहीं। क्या मतदातागण ऐसे ही लोगों के हाथों संसदीय जनतंत्र की कमान सौंपेंगे जिनकी जुबान इतनी बेलगाम व जहरीली हैं ? जो वोट के लिए किसी भी हद तक जाकर जातीय व सांप्रदायिक भावनाएं उभार सकते हैं ? जो किसी की भी प्रतिष्ठा का ख्याल रखे बिना किसी भी तरह के अपुष्ट व उल्टे सीधे आरोप लगा सकते हैं ?

  इतने गंदे, अश्लील, दिलों को भेदने वाले तथा समाज में द्वेष फैलाने वाले आरोप-प्रत्यारोप इससे पहले किसी चुनाव में नहीं लगाये गये थे। जब जुबान पर हिंसा हो तो सरजमीन पर भी उसका असर देखा ही जा सकता है। चुनाव से संबंधित हिंसक घटनाओं की खबरें आने भी लगी हैं।

  इसके साथ ही जितनी अधिक मात्रा में काला धन का इस्तेमाल मौजूदा चुनाव में हो रहा है,उतना इससे पहले कभी नहीं हुआ था।

  लगातार पकड़े जा रहे भारी मात्रा में काला धन से इस बात की पुष्टि होती है। याद रहे कि जुबान ही नहीं बल्कि काला धन भी मतदाताओं के एक हिस्से को प्रभावित करते हैं। इस देश के लोकतंत्र में तेजी से घर कर रही इन गंभीर बीमारियों का इलाज सिर्फ मतदाताओं के पास है। उनसे उम्मीद की जा रही है कि नफरत व चुनावी गंदगी फैलाने वाले नेताओं को इस चुनाव में नकार दें।

   अन्यथा जहर उगलने वाले नेतागण अपने राजनीतिक लाभ के लिए आने वाली पीढि़यों के दिलो -दिमाग में भी जहर ही घोलेंगे।   

अब जरा कुछ नेताओं की बदजुबानियों के कुछ नमूने पढि़ए।

 एक नेता ने अपने प्रतिद्वंद्वी नेता के बारे में कहा कि वह घमंडी और लुटेरा है। दूसरे ने कहा  कि वह कसाई है। तीसरे की टिप्पणी थी कि उसे देख कर तो कसाई भी शर्मा जाते हैं।

  जब तक वे एक दूसरे को पप्पू और फेंकू कह रहे थे, तब तक वह सहनीय था। क्योंकि उसमें मनोरंजन का भी पुट था। पर अब तो आरोप-प्रत्यारोपों में खांटी दुश्मनी के भाव दिख रहे हैं। जीजाजी शब्द के उच्चारण से राजनीति की गरिमा गिरी। नपुंसक व गुंडे शब्द ने लोकतंत्र को शर्मा दिया। इनके अलावा भी कुछ ऐसे डायलाॅग बोले गये जिन्हें सुन कर गब्बर सिंह के डायलाॅग भी फीके लगने लगे।

वैसे अभी चुनाव प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है। अब भी न जाने कितने विषैले तीर हमारे नेताओं के पास बचे हुए हैं। हालांकि यह कहना भी सही नहीं होगा कि सारे नेता ऐसे ही हैं। इस तनावपूर्ण चुनाव में भी कुछ नेताओं की जुबान पर अब भी शालीनता विराजमान है।


(30 अप्रैल 2014 के दैनिक भास्कर के पटना संस्करण में प्रकाशित)       

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