मंगलवार, 19 मई 2009

बिहार में एक भिन्न व नई राजनीतिक संस्कृति की जीत

बिहार में लोकसभा का चुनाव दो दलों या दो नेताओं के बीच का चुनाव नहीं, बल्कि दो परस्परविरोधी राजनीतिक संस्कृतियों के बीच का चुनाव था। बिहार के मतदाताओं ने नीतीश कुमार की राजनीतिक संस्कृति पर मुहर लगायी है और लालू-रामविलास की पुरानी संस्कृति को बुरी तरह नकार दिया है।

इस चुनाव नतीजे का यह साफ संदेश है कि यदि लालू प्रसाद -रामविलास पासवान ने अपनी ‘राजनीतिक संस्कृति’ को जल्द-से-जल्द नहीं बदला, तो वे यहां की राजनीति में अप्रासंगिक हो जायेंगे। क्योंकि देर करने पर तो नीतीश कुमार उन लोगों से और भी आगे निकल चुके होंगे।

मात्र 40 महीनों में कोई नेता एक जर्जर प्रदेश की पूरी राजनीतिक संस्कृति ही बदल दे, इस बात की कल्पना करना कठिन है। पर, यह कठिन काम नीतीश कुमार ने एक कठिन और विपरीत परिस्थिति में भी कर दिया। लालू प्रसाद और रामविलास पासवान को इस बात का बड़ा गुमान था कि यदि वे मिलकर चुनाव लड़ेंगे, तो बिहार में राजग हवा हो जाएगा, पर उन्हें इस बात का अनुमान ही नहीं रहा कि अपने छोटे से कार्यकाल में नीतीश कुमार ने राजनीति का एजेंडा ही पूरी रह बदल दिया है। अब पुराने फाॅर्मूले से नीतीश कुमार को पराजित नहीं किया जा सकता।

नीतीश कुमार ने आखिर कौन सा जादू कर दिया, जो राजग को इतनी अधिक सीटें मिल गईं ? नीतीश सरकार ने पहले जातीय वोट बैंक के शिलाखंड को तोड़ा। इसी जातीय वोट बैंक के बल पर लालू प्रसाद और रामविलास पासवान निश्चिंत रहा करते थे। कोई खुद को बिहार का पर्यायवाची बता रहा था, तो कोई सत्ता की चाभी लेकर घूम रहा था।पर जातीय वोट बैंक की अपनी एक सीमा है। इसे नीतीश कुमार ने पहचाना।आजादी के बाद कांग्रेस ने भी वर्षों तक समाज के सभी हिस्सों के वोट लिये, पर सत्ता का लाभ कुछ खास सवर्ण जातियों को ही पहुंचाया। नतीजतन मंडल आरक्षण आया। उसने लालू प्रसाद को बिहार में महाबली बना दिया। लालू प्रसाद ने सभी पिछड़ी जातियों के वोट लिये, पर लाभ दिये सिर्फ कुछ खास लोगों को ही। दूसरी ओर, नीतीश कुमार ने समावेशी सामाजिक न्याय की अपनी नीति के तहत अति पिछड़ों के लिए पंचायतों और नगर निगमों में बीस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था करायी। इस पर लालू प्रसाद ने कहा कि नीतीश पिछड़ों को बांट रहे हैं। इसी तरह का आरोप सवर्णों ने सन् 1990 में वी.पी. सिंह-लालू प्रसाद-रामविलास पासवान पर लगाया था, जो मंडल आरक्षण के झंडावरदार थे। सवर्णों ने आरोप लगाया था कि मंडलवादी लोग समाज को बांट रहे हैं।

नीतीश सरकार ने जब महादलित आयोग बनाया और पसमांदा मुसलमानों के हित में कुछ कदम उठाये, तो दलितों व मुसलमानों के वोट बैंक के मैनेजर बिफर उठे। यानी इतिहास ने खुद को दोहराया।

दरअसल जातीय वोट बैंक के मैनेजर बने नेतागण यह समझ बैठते हैं कि आम गरीब लोगों के आम कल्याण के लिए कुछ भी नहीं करेंगे, तो भी वे चुनाव नहीं हारेंगे। कभी कांग्रेस ने भी महिला, ब्राह्मण, मुसलमान और दलित वोट बैंक बनाकर वर्षों तक देश पर राज किया, पर अटल बिहारी वाजपेयी के कारण ब्राह्मण वोट जब कांग्रेस से खिसका, तो केंद्र से कांग्रेस की सता चली गयी। अब जब अटल बिहारी वाजपेयी नहीं हैं, तो एक बार फिर कांग्रेस को इस चुनाव में देश में बढ़त मिल गयी है, पर यह ‘समावेशी विकास’ का फल नहीं है। इसलिए कांग्रेस की यह उपलब्धि शायद स्थायी साबित नहीं होगी।

इसके विपरीत बिहार में नीतीश कुमार की सरकार की उपलब्धि अधिक टिकाउ लगती है। यहां बिहार में न सिर्फ जातीय वोट बैंकों के अभिशाप की समाप्ति की दिशा में ठोस कदम डठाया गया है, बल्कि त्वरित अदालतों के जरिए राजनीति व समाज के दूसरे क्षेत्रों के अपराधीकरण पर भी अंकुश लगाने की कोशिश की गई है। इतना ही नहीं नीतीश शासन में विकास को राजनीति का केंद्र बिंदु बनाया गया है। पुराने जातीय वोट बैंक को तोड़ कर नया वोट बैंक बनाने का आरोप नीतीश कुमार पर जरूर लग रहा है। पर, इस समावेशी कदम को अधिकतर जनता ने पसंद किया है। क्योंकि दलित, मुस्लिम और पिछड़ों में जो अंतिम कतार में खड़े हैं, उनके लिए नीतीश सरकार ने काम किया है। महात्मा गांधी ने भी तो समाज के सबसे कमजोर कमजोर व्यक्ति की चिंता की थी।

बिहार के आम मतदाता नीतीश सरकार के जिस काम से सबसे अधिक खुश नजर आते हैं, वह काम कानून -व्यवस्था की स्थिति में सुधार का काम है। सन् 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव के समय पुलिस मुख्यालय के हवाले से यह खबर आई थी कि तब राज्य में 40 हजार फरार वारंटी थे। यानी इतने आरोपितों के खिलाफ राज्य की विभिन्न अदालतों ने गिरफ्तारी के वारंट जारी कर रखे थे, पर उनकी गिरफ्तारी नहीं हो रही थी। गिरफ्तारी क्यों नहीं हो रही थी, यह सब जानते हैं।

पर नीतीश कुमार के बिहार में सत्ता संभालने के बाद त्वरित अदालतों ने काम शुरू किया। तीन साल में छोटे- बड़े 32 हजार आरोपितों को अदालतों ने सजाएं सुना दीं। नतीजतन राज्य में शांति का माहौल बन गया। इस लोकसभा चुनाव में कोई बाहुबली एक भी हत्या करने की हिम्मत नहीं जुटा सका, तो यह अकारण नहीं है। यही नई राजनीतिक संस्कृति है, जिसे जनता ने पसंद किया और राजग को भारी संख्या में जिताया। इस चुनाव नतीजे ने यह भी बताया कि बाहुबलियों और उनके रिश्तेदारों के लिए उनके पास अब वोट नहीं हैं। यदि कानून व्यवस्था कायम हो जाती है, तो बाहुबलियों की किसी को जरूरत ही कहां है ? बिहार में एक जाति के बाहुबली के मुकाबले के लिए दूसरी जाति के बाहुबली पैदा होते रहे थे। सत्ता और प्रतिपक्ष में बैठे कई नेतागण उन्हें संरक्षण देकर लोकसभा व विधानसभा में पहुंचाते थे। अब वह संस्कृति समाप्त हो रही है। अभी पूरी तरह तो समाप्त नहीं हुई है, पर जितनी भी समाप्त हुई है, उसका श्रेय नीतीश कुमार को जाता है। यदि लालू प्रसाद और रामविलास पासवान जैसे नेता भी इसी नई संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए भविष्य में काम करेंगे, तो वे बिहार की राजनीति में फिर से प्रासंगिक हो सकते हैं। यदि देर करेंगे, तो तब तक तो नीतीश कुमार अपने कामों के जरिए इन नेताओं को काफी पीछे छोड़ देंगे।

जातीय वोट बैंक -विनाश और कानून व्यवस्था की वापसी के साथ- साथ नीतीश सरकार ने विपरीत परिस्थितियों में भी विकास के जितने ठोस काम गत 40 महीनों में किये हैं, उत्तर प्रदेश जैसे अराजक राज्य के लिए भी अनुकरणीय हैं। यदि नीतीश कुमार के नेतृत्ववाले गठबंधन बिहार राजग के अधिकतर नेता व कार्यकर्ता ईमानदार व जनसेवी होते तथा सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार व काहिली की मात्रा कम होती, तो राज्य के विकास की गति और तेज होती। एक जर्जर एंबेसेडर गाड़ी को अस्सी क्या साठ किलोमीटर प्रति घंटा की दर से भी नहीं चलाया जा सकता है। यहां की राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यपालिका की हालत जर्जर एम्बेसेडर कार की ही है। साथ ही अफसरों, कर्मियों तथा अन्य आधारभूत संरचना की भी भारी कमी है।

जो हो, राज्य सरकार की तमाम कमियों को मतदाताओं ने नजरअंदाज किया है, क्योंकि उसे लग गया है कि नीतीश कुमार की मंशा ठीक है, तो देर-सवेर वे उन कर्मियों को ठीक कर ही लेंगे।

नीतीश सरकार के सत्ता में आने के बाद बिहार के विकास बजट में अचानक भारी वृद्धि और आंतरिक कर संग्रह में महत्वपूर्ण इजाफे ने भी लोगों में राज्य सरकार के प्रति विश्वास बढ़ा दिया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि राज्यहित में काम कर रहे मुख्यमंत्री से भाजपा ने ईष्र्या नहीं की, उनका सहयोग किया जिसका नतीजा सामने है। भाजपा और व्यवसायी समुदाय से आने के बावजूद वित्त मंत्री सुशील कुमार मोदी ने वाणिज्य कर की वसूली की मात्रा तीन साल में दुगुनी करवा दी।

जिस राज्य में कुछ ही साल पहले तक साल में दो-तीन हजार करोड़ रुपये भी विकास पर खर्च नहीं हो पा रहे थे, वहां दस-बारह हजार करोड़ हर साल खर्च होने लगे हैं। राज्य के कोन-कोने में किसी-न-किसी तरह के सरकारी विकास कार्य नजर आने लगे हैं। सवाल विकास के विस्तार से अधिक राज्य सरकार की मंशा का है, जिसके प्रति आम लोगों को भारी विश्वास है। यही नई कार्य संस्कृति और राजनीतिक संस्कृति है, जिसे अब लालू -रामविलास पासवान को भी विकसित करना पड़ेगा। यदि नहीं करेगे, तो वे समय के साथ और भी अकेला पड़ जायंेगे।

पर इस चुनाव में भारी सफलता के बाद नीतीश कुमार को सरकारी दफ्तरों में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के खिलाफ बेरहम अभियान चलाना पड़ेगा। अन्यथा विकास का लाभ आम लोगों को नहीं मिलेगा। राजनीति में बचे -खुचे अपराधियों को निकाल बाहर करना पड़ेगा। ऐसी सफलता के बाद बड़े -बड़े नेताओं के मन डोलने लगते हैं। उनमें एकाधिकारवादी प्रवृत्ति पैदा होने लगती है। किसी नेता के मन में ऐसी प्रवृत्ति पैदा कराने में कुछ करीबी लोग महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नीतीश कुमार के स्वभाव को देखते हुए तो लगता है कि वे ऐसी प्रवृति खुद में पनपने नहीं देंगे। पर पता नहीं कल क्या होगा ? एक बात तय है कि नीतीश कुमार से इस राज्य की जनता को भारी उम्मीदें हैं। उम्मीद है कि वे एक ऐसे विनम्र, किंतु दृढ़ नेता के रूप में इतिहास में याद किया जाना पसंद करेंगे, जिसने एक बिगड़ी शासन व्यवस्था को थोड़े ही समय में पटरी पर ला दिया। गत 40 महीने के उनके शासन काल से यह साफ है कि ऐसा वे कर सकते हैं। उनका यह फैसला सही है कि वे राजग में ही रहेंगे और साथ ही यह बात भी है कि बिहार में राजग की घटक भाजपा जैसी शांत सहयोगी शायद ही कहीं किसी और को मिले !

प्रभात खबर से साभार (17 मई, 2009)

रविवार, 17 मई 2009

एक विदेशी बैंक में भारत के खरबों डूबने की कहानी

यह कथा बिहार के दरभंगा की है। यह नीदरलैंड के एक बैंक में 77 अरब रुपए डूबने की कहानी है। यह धन दरभंगा के मोहम्मद मोहसिन का था। यह कहानी सन् 1984 में दरभंगा के ही एक शिक्षक वैद्यनाथ मिश्र ने इन पंक्तियों के लेखक को सुनाई थी। वे उस धन को निकालने की कोशिश करते-करते दिवंगत हो गए। अब उनके करीबी रिश्तेदार इस कोशिश में लगे हैं। पर, सफलता हाथ नहीं लग रही है।

इनके दावे में कितना दम है? ऐसे माहौल में एक बार फिर इस पुरानी कहानी पर एक नजर डालना मौजंू होगा, जब स्विस बैंकों मेें जमा भारतीयों के काला धन को लेकर इस देश में चर्चा गर्म है।

मोहसिन ने मरने से पहले वैद्यनाथ मिश्र को दान पत्र के जरिए इस विदेशी बैंक में जमा धन का उत्तराधिकारी बना दिया था। मोहसिन, मिश्र परिवार के कर्जदार थे। मोहसिन हैदराबाद निजाम के यहां जौहरी का काम करते थे। कहते हैं कि वहां से उन्होंने किसी-न-किसी तरीके से काफी हीरे -जवाहरात लाए थे। मोहसिन ने उस हीरे-जवाहरात को नीदरलैंड ट्रेडिंग एजेंसी की कलकत्ता शाखा में जमा कर दी थी। बाद में ट्रेडिंग सोसायटी एक बैंक में परिवर्तित हो गई, जिसका नाम पड़ा एल्जीमीन बैंक नीदरलैंड एन.वी।

उस हीरे -जवाहरात की कीमत आंक कर ट्रेडिंग सोसायटी ने मोहसिन को 21 अगस्त, 1923 को 21 करोड़ मार्क की रसीद दे दी थी। वह रसीद अब भी मिश्र परिवार के पास है, पर जब वैद्यनाथ मिश्र ने इस धन को विदेश से वापस लाने के लिए उस बैंक से पत्र व्यवहार शुरू किया, तो एल्जीमीन बैंक ने कभी तो लिखा कि वह लौटाने को तैयार है, तो कभी कहा कि उस रिश मार्क का अब न तो कोई विनिमय मूल्य है और न ही कोई कीमत। मोहसिन से मिश्र को इस जमा धन का उत्तराधिकार कैसे मिला? यह भी कथा के भीतर की एक कथा है।

दरअसल बड़ी संपत्ति के मालिक मोहसिन शाह खर्च निकले। अपनी जमा पूंजी खत्म हो गई, तो इस कारण वे मिश्र परिवार के कर्जदार हो गए थे। उन्होंने इसी कारण इस बैंक जमा खाते का मिश्र परिवार को लिखित तौर पर उत्तराधिकारी बना दिया। उसके बाद वैद्यनाथ मिश्र ने इस संबंध में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और बाद के अन्य सत्ताधिकारी नेताओं से बारी- बारी से गुहार लगाई। वे पैसे की वापसी की कोशिश में देश भर में चक्कर काटते रहे। इस संबंध में उचित कार्रवाई का लोगों से आग्रह करते रहे। पर सफलता नहीं मिली।

27 जुलाई, 1989 को सी.पीआई. के चतुरानन मिश्र ने यह मामला राज्य सभा में उठाया। केंद्र सरकार ने सीधा हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।पर चतुरानन मिश्र ने 18 जुलाई 1990 को संसद में धरना देने की धमकी दी, तो भारत सरकार ने जांच करके बताया कि यह मामला सिर्फ 70.80 गिल्डर का है। इतने छोटे मामले में भारत सरकार हस्तक्षेप नहीं करेगी। सन् 15 अगस्त, 1990 को भी हुकुम देव नारायण यादव के नेतृत्व में 14 सांसदों ने इस संबंध में तत्कालीन प्रधान मंत्री वी.पी. सिंह को पत्र लिखा और धन की वापसी के लिए हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया।

इस बीच वैद्यनाथ मिश्र का परिवार विभिन्न अदालतों में भी मामला दायर करता रहा, पर अब तक कोई नतीजा नहीं निकला। वैद्यनाथ मिश्र के बाद डाॅ. मुनींद्र भट्ट इस मामले का पीछा करते रहे। ं

दिल्ली हाई कोर्ट के वकील आर.के. जैन ने 1999 में मुख्य सतर्कता आयुक्त को लिखा कि वह इस बात की जांच कराएं कि इस धन के विदेश से वापस लाने में भारतीय सरकारी बैंकों ने किस तरह की लापरवाही बरती है।

इस संबंध में दरभंगा के वैद्यनाथ मिश्र के साथ इन पंक्तियों के लेखक की सन् 1984 में हुई लंबी बातचीत का विवरण यहां पेश है।

प्रश्न-आपके दावे में कोई दम भी है या फिर आप सिर्फ हवा मंे हाथ-पैर मार रहे हैं ? क्योंकि जितनी बड़ी रकम आप बता रहे हैं, वह तो अविश्वसनीय लगती है?

जवाब-मैं हवा में नहीं हूं। मेरी प्रत्येक बात ठोस सबूतों के आधार पर है। यदि एल्जीमीन बैंक समझता है कि मेरे दावे में दम नहीं है, तो वह मूल मुद्दे को अदालत के सामने क्यों नहीं आने दे रहा है ? यदि दम नहीं होगा, तो अदालत मेरे दावे को खारिज कर देगी। पर बैंक तकनीकी आधार पर प्रारंभिक दौर में ही इस मामले को खत्म करा देने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है।

प्रश्न-यह तकनीकी आधार क्या है ?

उत्तर-यही कि मैंने कोर्ट फीस जमा नहीं की है और दावे के मामले में तमादी हो चुकी है।

प्रश्न-जब आपके दावे में इतना दम है, तो फिर कोर्ट फीस की रकम जमा कर देने के लिए कोई फिनांसर मिल जाना चाहिए था?

उत्तर-इस मुकदमे के बारे में अभी लोगों को मालूम ही नहीं है। क्योंकि अखबारों ने भी अब तक इस ओर ध्यान नहीं दिया। अन्यथा कोई फिनांसर मिल जाता। वैसे तो इस केस को खुद भारत सरकार को लड़ना चाहिए था। क्योंकि प्राप्त होनेवाली रकम में से कानूनन 80 प्रतिशत तो भारत सरकार को ही मिलनी है। यह तो भारत की आर्थिक आजादी के लिए लड़ाई है, जो मैं अकेले लड़ रहा हूं।

प्रश्न-अब जरा मूल मुद्दे पर आइए। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मोहम्मद मोहसीन ने एल्जीमीन बैंक में वही जर्मन रीश मार्क जमा किया हो, जो उन दिनों हजारों में देने पर एक कप चाय मिलती थी ?

उत्तर-असंभव ! बिलकुल असंभव ! ! मरते समय मोहसिन ने मुझे बताया था कि उसने हीरे- जवाहरात ही जमा किए थे और मरते समय सामान्यतः कोई झूठ नहीं बोलता। साथ ही आपको तो मालूम ही होगा कि जर्मनी एक देश है और नीदरलैंड दूसरा देश। नीदरलंैड पर कुछ वर्षों को छोड़कर कभी किसी देश का अधिकार नहीं रहा। पड़ोस का देश होने के कारण नीदरलैंड के भारत स्थित बैंक को यह मालूम था कि जर्मन रीश मार्क को उसी देश के लोग लेने से इनकार कर रहे थे। यहां तक कि जर्मन सरकार ने रीश मार्क अस्वीकार करने के जुर्म में अपने कुछ नागरिकों को फांसी भी दे दी थी। रीश मार्क उन दिनों जर्मनी के निजी छापाखानों में भी छपने लगे थे। जर्मन सरकार भी जो नोट छाप रही थी, उस पर भी सरकार की ओर से ऐसा कोई प्रामिस नहीं होता था जैसा कि भारतीय नोट पर रिजर्व बैंक के गवर्नर की तरफ से लिखा रहता था कि ‘मैं धारक को ......रुपए अदा करने का वचन देता हूं।’ऐसी स्थिति में ऐसा हो ही नहीं सकता कि जो रीश मार्क जर्मनी में ही अस्वीकृत हो रहा हो, उसे साढ़े 4 प्रतिशत ऊंचे सूद पर कोई दूसरा देश लेता। फिर बात यह भी है कि जो मोहसिन कभी विदेश नहीं गया, वह इतना अधिक जर्मन रीश मार्क लाता कहां से? सबसे बड़ी बात यह है कि एल्जीमीन बैंक के पास यदि मोहसिन का दिया हुआ जर्मन रीश मार्क है, तो उसने 1968 में लिखित वायदा करने के बावजूद उस जमाकर्ता को लौटाया क्यों नहीं ?दरअसल बात यह है कि जौहरी मोहसिन ने हीरे-जवाहरात जमा किए थे, जिसकी कीमत मार्क में लगा कर बैंक ने रसीद दे दी थी। इतिहास बताता है कि उन दिनों मार्क नीदरलैंड में मनी आॅफ एकाउंट था।

प्रश्न - क्या आपने नीदरलैंड का आर्थिक इतिहास भी पढ़ा है ?

उत्तर-इस मामले को लेकर मैंेने इस देश के लगभग सभी पुस्तकालयों को छान मारा है। विदेशों से भी कुछ सहित्य मंगाया है । मैंने यहां तक कि जर्मन रीश मार्क का एक नोट भी जर्मनी से मंगाया है, जो उन दिनों प्रचलित था। (मिश्र ने वह नोट भी इस संवाददाता को दिखाया।)

प्रश्न-क्या यह जर्मन नोट वही नोट है, जिसे मोहसिन द्वारा जमा करने की बात एल्जीमीन बैंक कर रहा है ?

उत्तर - इसमें भी घपला है। मोहसिन ने 21 अगस्त, 1923 को जमा किया। जर्मन रीश मार्क सितंबर, 1923 में पहली बार छपा। पर उसी पर यह भी लिखा हुआ है कि यह दो वर्षों के बाद प्रचलन में आएगा, तो फिर ऐसे रीश मार्क को एल्जीमीन बैंक कैसे स्वीकार कर सकता था, जो अभी प्रचलन में नहीं था और छपा भी नहीं था ?

प्रश्न-ःक्या मार्क सिर्फ जर्मनी में ही चलता है ?

उत्तर-नहीं मार्क भिन्न-भिन्न रूपों में फ्रांस, आस्ट्रिया, फिनलैड और बावेरिया आदि देशों में प्रचलित रहा है। किस देश में मार्क का क्या रूप था, इस पर मैंने बहुत साहित्य पढ़ा है। मैं एक बार फिर कह दूं कि नीदरलैंड में मार्क मनी आॅफ एकाउंट ही था। जैसे आज भी कुछ देशों के लिए पाउंड और डाॅलर मनी आॅफ एकाउंट है, हालांकि यह वहां की करेंसी नहीं है।

प्रश्न-इस बात के आपके पास और क्या प्रमाण हैं कि मोहसिन ने नोट नहीं, बल्कि हीरे-जवाहरात ही जमा किए थे ?

उत्तर-एल्जीमीन बैंक इतना अधिक सूद (साढ़े चार प्रतिशत प्रति वर्ष) किसी कीमती सामग्री पर ही दे सकता है। मोहसिन जौहरी थे और और बाद में ‘नवाब’ हो गए थे।इसलिए उनके पास इतने हीरे-जवाहरात होना नामुमकिन नहीं था।

प्रश्न-मोहसिन ने आपको अधिकार कैसे दे दिया, जबकि उसकी बेटी का बेटा मंजुरूल हसन मौजूद है और काफी गरीबी में है?

उत्तर-मोहसिन मेरे परिवार का कर्जदार था। इसलिए उसने मरने से एक वर्ष पूर्व मेरे नाम बजाप्ता दान पत्र लिखा। फिर भी मुझे इस संपत्ति का कोई लोभ नहीं है। मैं तो इसलिए यह लड़ाई लड़ रहा हूं, ताकि यूरोप से अपने गरीब भारत को इसका वाजिब पैसा मिल जाए और यह देश के विकास के काम में खर्च हो।

प्रश्न- इस लड़ाई में आपको क्या- क्या कठिनाइयां आईं ?

उत्तर-शारीरिक और आर्थिक परेशानी के साथ- साथ मुझे जान से मारने की भी कोशिश की गई। जब मैं रिजर्व बैंक के गवर्नर से मिलने बंबई गया था, तो मेरी हत्या का प्रयास हुआ। एल्जीमीन बैंक की शाखा कलकत्ता के अलावा बंबई और मद्रास में भी है। नीदरलैंड के दिल्ली स्थित दूतावास में वार्ता के दौरान वहां का एक अधिकारी मुझ पर गोली चलाने पर अमादा हो गया था। किसी तरह जान बची। इसलिए मैं अपने शहर में भी सावधान रहता हूं। कागजात बैंक लाॅकर में रखता हूं।

प्रश्न-इस संबंध में रिजर्व बैंक और स्टेट बैंक की कैसी भूमिका रही ?

उत्तर-इन बैंकों की भूमिका पर आश्चर्य होता है। लगता है कि इनके अधिकारियों में देशप्रेम है ही नहीं। जब भी मैंने उन्हें लिखा, इन बैंकों ने बंधा -बंधाया जवाब दे दिया कि एल्जीमीन बैंक के जरिए पत्र व्यवहार कीजिए। अब भला आप ही बताइए कि जिस एल्जीमीन बैंक के विरुद्ध मैं शिकायत कर रहा हूं, उसी बैंक के जरिए इस पर कोई लाभप्रद पत्र व्यवहार कैसे हो सकता है ?

प्रश्न-मोहसिन के उस हीरे-जवाहरात की वास्तविक कीमत कितनी है ?

उत्तर-मैंने कलकत्ता के चार्टर्ड एकाउंटेंड आर.एस.पी. गुप्त एंड कंपनी से 19 जून, 1980 को इसकी गणना कराई थी। इक्कीस करोड़ मार्क की भारतीय रुपए मंे कीमत बीस अरब 49 करोड़ 60 लाख रुपए होती है। उस तारीख तक सूद की रकम 52 अरब 41 करोड़ 24 लाख 13 हजार 315 रुपए थी। अब यह राशि बढ़कर 77 अरब रुपए हो गई है। इधर मैंेने मार्क पर कुछ और साहित्य पढ़ा है। यूरोप में खास कर नीदरलैंड में एक मार्क की कीमत आठ औंस चांदी से लेकर 8 औंस सोना तक बताई गई है। सोना की बात छोड़ भी दी जाए, तो चांदी के आधार पर ही 21 करोड़ मार्क की कीमत आंकी जाए, तो वह 2 खरब 19 अरब रुपए तक पहुंच जाती है।मैं तो देश के धनवानों से अपील करता हूं कि वे इस देश को समृद्ध बनाने के लिए इसमें थोड़ा धन लगाएं।

वैद्यनाथ मिश्र से इन पंक्तियों के लेखक की बातचीत के 25 साल बीत चुके है। यदि उस धन की कीमत का आकलन आज की तारीख में किया जाए, तो उसके भारी आकार की सहज ही कल्पना की जा सकती है। मिश्र को अफसोस रहा कि इस मामले को उसकी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचाया जा सका।

साभार पब्लिक एजेंडा

आज के जार्ज को पुराना जार्ज कभी याद भी आता है ?




इतिहास की स्लेट पर लिखी अपनी गौरव-गाथा को कोई महान नेता खुद ही अपने हाथों से मिटाने या धुंधला करने लगे, तो उसे क्या कहा जाएगा ? ऐसे नेता का नाम आज बुझा- बुझा जार्ज फर्नांडीस है, जिसे कभी ‘अगिया बैताल’ का दर्जा हासिल था।

उनके नाम से पहले महान शब्द का इस्तेमाल अधिकतर लोगों को आज अटपटा लगेगा। पर आज राजनीति का गर्हित स्वरूप देख कर जाॅर्ज को महान कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसे नेता बिरले होते हैं, जो समाज के लिए अपनी जान हथेली पर लेकर सत्ता से भिड़ जायें। आपातकाल में ंयही काम किया था जार्ज फर्नांडीस ने। यदि आपातकाल की समाप्ति नहीं हुई होती, तो जार्ज को उनके कई साथियों के साथ बड़ोदा डायनामाइट केस के सिलसिले में फांसी तक की सजा हो सकती थी। सी.बी.आई. ने उन पर देशद्रोह का केस तैयार किया था।

पहले की सहकर्मी और आज जार्ज की आलोचक पूर्व सांसद मृणाल गोरे ने गत साल दिसंबर में टाइम्स आॅफ इंडिया के साथ बातचीत में कहा था कि जार्ज फर्नांडीस के पास मुंबई में अपना कोई मकान नहीं है। वे मुंबई आने पर पार्टी आॅफिस के टेबुल पर सोते रहे हैं।

यानी एक ऐसा नेता, जो देश की खातिर और अपने विचारों के लिए अपनी जान हथेली पर लेकर काम करे और केंद्रीय मंत्री बनने के बाद भी अपने लिए कोई संपत्ति खड़ी नहीं करे, उसे आज के युग में महान नहीं कहेंगे, तो क्या कहेंगे, जबकि अधिकतर मामलों में राजनीति धन कमाने का इन दिनों आसान जरिया बन चुकी है ? सांसद-विधायक फंड ने राजनीति को गर्हित बना दिया है।

हां, जार्ज जैसा नेता अपने हाल के कुछ गलत राजनीतिक कदमों के चलते अपनी ही गौरव गाथा को धूमिल करता जरूर नजर आता है। जाॅर्ज फर्नांडीस के पुराने प्रशंसकों को यह सुनकर झटका लगा कि इस बार मुजफ्फरपुर में मतदान के एक दिन पहले ही वे दिल्ली चले गये और मतदान के दिन मतदान केंद्रों पर उनके पोलिंग एजेंट तक नहीं थे। चुनाव रिजल्ट क्या होगा, यह जग जाहिर है।

आखिर बुरी तरह अस्वस्थ जार्ज फर्नांडीस ने चुनाव लड़ने का फैसला ही क्यों किया, यह बात समझ में नहीं आई। लगता है कि आज का जाॅर्ज कभी पुराने जाॅर्ज को याद भी नहीं करता। यदि याद करता, तो अपने ही नये अवतार पर उसे शर्म आती। सन् 1977 में यदि आपातकाल नहीं हटता और वे केंद्रीय मंत्री नहीं बने होते, तो जार्ज का दर्जा इस देश में ‘मिनी भगत सिंह’ का होता। खैर सन् 1977 में उनका मंत्री बनना भी गनीमत थी। पर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री बन कर और तहलका का तोहमत पाकर तो उनकी छवि धूमिल ही होने लगी। हालांकि जाॅर्ज को करीब से जाननेवाले किसी व्यक्ति ने कभी यह विश्वास नहीं किया कि उन्होंने रक्षा सौदों में कभी कोई रिश्वत ली होगी। हां, अपनी एक सहयोगी की करतूत के बचाव को लेकर जरूर वे विवाद में पड़े। हालांकि बराक सौदे में उनसे हो रही पूठताछ से भी उनके पुराने प्रशंसकों को झटका लग रहा है।

हालांकि जाॅर्ज ने सबसे बड़ा झटका इस कारण दिया कि उन्होंने बुरी तरह अस्वस्थ होने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी और ज्योति बसु की तरह शालीनता से सक्रिय राजनीति से रिटायर हो जाना मंजूर नहीं किया। मुजफ्फरपुर से इस बार जब चुनाव लड़ने पर जाॅर्ज अमादा हो गये, तो उनकी पत्नी लैला कबीर ने ठीक ही कहा था कि कोई बच्चा अपना हाथ जलाने पर अमादा हो, तो उसे जलाने नहीं दिया जाना चाहिए।

यानी वे यह कहना चाहती थीं कि जार्ज खुद नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। आश्चर्य है कि जाॅर्ज के साथ के लोगों ने उन्हंे मुजफ्फरपुर से उम्मीदवार बनने से क्यों नहीं रोका ? यह बात तो पिछले काफी समय से साफ हो चुकी थी कि जिस समता पार्टी और जदयू को बनाने में जार्ज की कभी महत्वपूर्ण भूमिका थी, उस पर उनका अब कोई व्यावहारिक अधिकार नहीं रह गया था। इसके कई कारण रहे हैं। उन कारणों के लिए कौन किना जिम्मेदार है, यह एक अलग चर्चा का विषय है। पर एक बात तो यह है कि जिस दल पर अधिकार ही नहीं है, उससे चुनावी टिकट की उम्मीद करना भी जाॅर्ज के लिए मुनासिब नहीं था। उन्होंने टिकट की उम्मीद करके अपनी स्थिति हास्यास्पद बनायी। यानी नये जाॅर्ज को पुराना जाॅर्ज याद नहीं रहा।

हालांकि जाॅर्ज फर्नांडीस ने खुद को कई लोगों की नजरों में तभी एक हद तक गिरा लिया था, जब उन्होंने तहलका मामले मंे उस मीडिया से मुंठभेड़ कर ली, जिसने रक्षा सौदों में दलाली की परंपरा का भंडाफोड़ किया था। बाद में उन्होंने गुजरात दंगे में गुजरात सरकार की सख्त आलोचना नहीं करके भी अपने ही धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्व को छोटा किया। ऐसे व्यक्ति जिसने सन् 1967 में डाॅ. राम मनोहर लोहिया और सन् 1977 में जयप्रकाश नारायण की राजनीतिक लाइन के खिलाफ खुल कर आवाज उठाई, उस जाॅर्ज को अटल सरकार में मंत्री बन जाने के बाद पता नहीं क्या हो गया था ? जाॅर्ज फर्नांडीस ़ने डाॅ. लोहिया की इस लाइन का खुला विरोध किया था कि सभी गैर कांग्रेसी दलों को मिलकर चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ एक उम्मीदवार खड़ा करना चाहिए। सन् 1977 में जाॅर्ज जयप्रकाश नारायण की इस राय से असहमत थे कि जनता पार्टी को चुनाव में शामिल होना चाहिए। जाॅर्ज को यह आशंका थी कि इंदिरा गांधी चुनाव में धांधली करा कर जीत जायेंगीं और आपाकाल को उचित ठहरा देंगीं। हालांकि दोनों मामलों में जाॅर्ज गलत थे, पर अपने सर्वोच्च नेता के खिलाफ इस तरह खुलेआम आवाज उठाना हिम्मत की बात थी, जिसकी कभी कमी जाॅर्ज में नहीं रही। हालांकि अपने जीवन की संध्या बेला में उन्होंने अपनी हिम्मत का सदुपयोग नहीं किया, इसका गम उनके प्रशंसकांे को रहा। .

जार्ज फर्नांडीस ने कर्नाटका से आकर पचास के दशक में मुंबई में श्रमिक नेता के रूप में काम शुरू किया। सन् 1967 तक वे मुंबई में इतना जम गये थे कि उन्होंने मुंबई के सबसे बड़े कांग्रेसी नेता और केंद्रीय मंत्री एस.के. पाटील को दक्षिण मुंबई लोकसभा क्षेत्र में चुनाव में हरा दिया। इस कारण जाॅर्ज जाइंट कीलर कहलाये। बाद में सन् 1974 में रेलवे मेंस फेडरेशन के अध्यक्ष के रूप में ऐतिहासिक रेलवे हड़ताल का नेतृत्व करके जाॅर्ज हीरो बन गये। पर तहलका मामले में उनपर आरोप लगा, तो वे मीडिया पर ही उखड़ गये। जाॅर्ज ने कहा कि ‘मैंने भी कुछ पत्रिकाओं का संपादन किया है। मैं नहीं जानता कि पत्रकारिता ऐसी भी हो सकती है, जिसमें काॅल गर्ल का इस्तेमाल किया जाता हो।’

पत्रकारिता में खबरें निकालने के लिए भी काॅल गर्ल का इस्तेमाल हो, इस पर मीडिया जगत भी विभाजित रहा, पर खुद जार्ज यह बात किस मुंह से कह रहे थे, जिन्होंने अपनी साप्ताहिक पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ के आठ सितंबर, 1974 के अंक में कवर स्टोरी छापी थी, जिसका शीर्षक था, ‘संसद या चोरों और दलालों का अड्डा?’ तब ‘प्रतिपक्ष’ ने संसद की तुलना वेश्यालय से की थी। तब कौन सी पत्रकारिता हो रही थी?

दरअसल ‘तहलका प्रकरण’ आते- आते जाॅर्ज ने अपनी भूमिका बदल ली थी और इसी बदली हुई भूमिका के कारण यह कहा जा रहा है कि जाॅर्ज अपनी ही गौरव गाथा को अपने ही हाथों से मिटाने पर तुले हुए हैं, तो उनका कोई पुराना प्रशंसक भी भला क्या कर सकता है ! क्या आज के जाॅर्ज को कभी पुराना जाॅर्ज याद आता है ?



प्रभात खबर से साभार