रविवार, 17 मई 2009

एक विदेशी बैंक में भारत के खरबों डूबने की कहानी

यह कथा बिहार के दरभंगा की है। यह नीदरलैंड के एक बैंक में 77 अरब रुपए डूबने की कहानी है। यह धन दरभंगा के मोहम्मद मोहसिन का था। यह कहानी सन् 1984 में दरभंगा के ही एक शिक्षक वैद्यनाथ मिश्र ने इन पंक्तियों के लेखक को सुनाई थी। वे उस धन को निकालने की कोशिश करते-करते दिवंगत हो गए। अब उनके करीबी रिश्तेदार इस कोशिश में लगे हैं। पर, सफलता हाथ नहीं लग रही है।

इनके दावे में कितना दम है? ऐसे माहौल में एक बार फिर इस पुरानी कहानी पर एक नजर डालना मौजंू होगा, जब स्विस बैंकों मेें जमा भारतीयों के काला धन को लेकर इस देश में चर्चा गर्म है।

मोहसिन ने मरने से पहले वैद्यनाथ मिश्र को दान पत्र के जरिए इस विदेशी बैंक में जमा धन का उत्तराधिकारी बना दिया था। मोहसिन, मिश्र परिवार के कर्जदार थे। मोहसिन हैदराबाद निजाम के यहां जौहरी का काम करते थे। कहते हैं कि वहां से उन्होंने किसी-न-किसी तरीके से काफी हीरे -जवाहरात लाए थे। मोहसिन ने उस हीरे-जवाहरात को नीदरलैंड ट्रेडिंग एजेंसी की कलकत्ता शाखा में जमा कर दी थी। बाद में ट्रेडिंग सोसायटी एक बैंक में परिवर्तित हो गई, जिसका नाम पड़ा एल्जीमीन बैंक नीदरलैंड एन.वी।

उस हीरे -जवाहरात की कीमत आंक कर ट्रेडिंग सोसायटी ने मोहसिन को 21 अगस्त, 1923 को 21 करोड़ मार्क की रसीद दे दी थी। वह रसीद अब भी मिश्र परिवार के पास है, पर जब वैद्यनाथ मिश्र ने इस धन को विदेश से वापस लाने के लिए उस बैंक से पत्र व्यवहार शुरू किया, तो एल्जीमीन बैंक ने कभी तो लिखा कि वह लौटाने को तैयार है, तो कभी कहा कि उस रिश मार्क का अब न तो कोई विनिमय मूल्य है और न ही कोई कीमत। मोहसिन से मिश्र को इस जमा धन का उत्तराधिकार कैसे मिला? यह भी कथा के भीतर की एक कथा है।

दरअसल बड़ी संपत्ति के मालिक मोहसिन शाह खर्च निकले। अपनी जमा पूंजी खत्म हो गई, तो इस कारण वे मिश्र परिवार के कर्जदार हो गए थे। उन्होंने इसी कारण इस बैंक जमा खाते का मिश्र परिवार को लिखित तौर पर उत्तराधिकारी बना दिया। उसके बाद वैद्यनाथ मिश्र ने इस संबंध में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और बाद के अन्य सत्ताधिकारी नेताओं से बारी- बारी से गुहार लगाई। वे पैसे की वापसी की कोशिश में देश भर में चक्कर काटते रहे। इस संबंध में उचित कार्रवाई का लोगों से आग्रह करते रहे। पर सफलता नहीं मिली।

27 जुलाई, 1989 को सी.पीआई. के चतुरानन मिश्र ने यह मामला राज्य सभा में उठाया। केंद्र सरकार ने सीधा हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।पर चतुरानन मिश्र ने 18 जुलाई 1990 को संसद में धरना देने की धमकी दी, तो भारत सरकार ने जांच करके बताया कि यह मामला सिर्फ 70.80 गिल्डर का है। इतने छोटे मामले में भारत सरकार हस्तक्षेप नहीं करेगी। सन् 15 अगस्त, 1990 को भी हुकुम देव नारायण यादव के नेतृत्व में 14 सांसदों ने इस संबंध में तत्कालीन प्रधान मंत्री वी.पी. सिंह को पत्र लिखा और धन की वापसी के लिए हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया।

इस बीच वैद्यनाथ मिश्र का परिवार विभिन्न अदालतों में भी मामला दायर करता रहा, पर अब तक कोई नतीजा नहीं निकला। वैद्यनाथ मिश्र के बाद डाॅ. मुनींद्र भट्ट इस मामले का पीछा करते रहे। ं

दिल्ली हाई कोर्ट के वकील आर.के. जैन ने 1999 में मुख्य सतर्कता आयुक्त को लिखा कि वह इस बात की जांच कराएं कि इस धन के विदेश से वापस लाने में भारतीय सरकारी बैंकों ने किस तरह की लापरवाही बरती है।

इस संबंध में दरभंगा के वैद्यनाथ मिश्र के साथ इन पंक्तियों के लेखक की सन् 1984 में हुई लंबी बातचीत का विवरण यहां पेश है।

प्रश्न-आपके दावे में कोई दम भी है या फिर आप सिर्फ हवा मंे हाथ-पैर मार रहे हैं ? क्योंकि जितनी बड़ी रकम आप बता रहे हैं, वह तो अविश्वसनीय लगती है?

जवाब-मैं हवा में नहीं हूं। मेरी प्रत्येक बात ठोस सबूतों के आधार पर है। यदि एल्जीमीन बैंक समझता है कि मेरे दावे में दम नहीं है, तो वह मूल मुद्दे को अदालत के सामने क्यों नहीं आने दे रहा है ? यदि दम नहीं होगा, तो अदालत मेरे दावे को खारिज कर देगी। पर बैंक तकनीकी आधार पर प्रारंभिक दौर में ही इस मामले को खत्म करा देने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है।

प्रश्न-यह तकनीकी आधार क्या है ?

उत्तर-यही कि मैंने कोर्ट फीस जमा नहीं की है और दावे के मामले में तमादी हो चुकी है।

प्रश्न-जब आपके दावे में इतना दम है, तो फिर कोर्ट फीस की रकम जमा कर देने के लिए कोई फिनांसर मिल जाना चाहिए था?

उत्तर-इस मुकदमे के बारे में अभी लोगों को मालूम ही नहीं है। क्योंकि अखबारों ने भी अब तक इस ओर ध्यान नहीं दिया। अन्यथा कोई फिनांसर मिल जाता। वैसे तो इस केस को खुद भारत सरकार को लड़ना चाहिए था। क्योंकि प्राप्त होनेवाली रकम में से कानूनन 80 प्रतिशत तो भारत सरकार को ही मिलनी है। यह तो भारत की आर्थिक आजादी के लिए लड़ाई है, जो मैं अकेले लड़ रहा हूं।

प्रश्न-अब जरा मूल मुद्दे पर आइए। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मोहम्मद मोहसीन ने एल्जीमीन बैंक में वही जर्मन रीश मार्क जमा किया हो, जो उन दिनों हजारों में देने पर एक कप चाय मिलती थी ?

उत्तर-असंभव ! बिलकुल असंभव ! ! मरते समय मोहसिन ने मुझे बताया था कि उसने हीरे- जवाहरात ही जमा किए थे और मरते समय सामान्यतः कोई झूठ नहीं बोलता। साथ ही आपको तो मालूम ही होगा कि जर्मनी एक देश है और नीदरलैंड दूसरा देश। नीदरलंैड पर कुछ वर्षों को छोड़कर कभी किसी देश का अधिकार नहीं रहा। पड़ोस का देश होने के कारण नीदरलैंड के भारत स्थित बैंक को यह मालूम था कि जर्मन रीश मार्क को उसी देश के लोग लेने से इनकार कर रहे थे। यहां तक कि जर्मन सरकार ने रीश मार्क अस्वीकार करने के जुर्म में अपने कुछ नागरिकों को फांसी भी दे दी थी। रीश मार्क उन दिनों जर्मनी के निजी छापाखानों में भी छपने लगे थे। जर्मन सरकार भी जो नोट छाप रही थी, उस पर भी सरकार की ओर से ऐसा कोई प्रामिस नहीं होता था जैसा कि भारतीय नोट पर रिजर्व बैंक के गवर्नर की तरफ से लिखा रहता था कि ‘मैं धारक को ......रुपए अदा करने का वचन देता हूं।’ऐसी स्थिति में ऐसा हो ही नहीं सकता कि जो रीश मार्क जर्मनी में ही अस्वीकृत हो रहा हो, उसे साढ़े 4 प्रतिशत ऊंचे सूद पर कोई दूसरा देश लेता। फिर बात यह भी है कि जो मोहसिन कभी विदेश नहीं गया, वह इतना अधिक जर्मन रीश मार्क लाता कहां से? सबसे बड़ी बात यह है कि एल्जीमीन बैंक के पास यदि मोहसिन का दिया हुआ जर्मन रीश मार्क है, तो उसने 1968 में लिखित वायदा करने के बावजूद उस जमाकर्ता को लौटाया क्यों नहीं ?दरअसल बात यह है कि जौहरी मोहसिन ने हीरे-जवाहरात जमा किए थे, जिसकी कीमत मार्क में लगा कर बैंक ने रसीद दे दी थी। इतिहास बताता है कि उन दिनों मार्क नीदरलैंड में मनी आॅफ एकाउंट था।

प्रश्न - क्या आपने नीदरलैंड का आर्थिक इतिहास भी पढ़ा है ?

उत्तर-इस मामले को लेकर मैंेने इस देश के लगभग सभी पुस्तकालयों को छान मारा है। विदेशों से भी कुछ सहित्य मंगाया है । मैंने यहां तक कि जर्मन रीश मार्क का एक नोट भी जर्मनी से मंगाया है, जो उन दिनों प्रचलित था। (मिश्र ने वह नोट भी इस संवाददाता को दिखाया।)

प्रश्न-क्या यह जर्मन नोट वही नोट है, जिसे मोहसिन द्वारा जमा करने की बात एल्जीमीन बैंक कर रहा है ?

उत्तर - इसमें भी घपला है। मोहसिन ने 21 अगस्त, 1923 को जमा किया। जर्मन रीश मार्क सितंबर, 1923 में पहली बार छपा। पर उसी पर यह भी लिखा हुआ है कि यह दो वर्षों के बाद प्रचलन में आएगा, तो फिर ऐसे रीश मार्क को एल्जीमीन बैंक कैसे स्वीकार कर सकता था, जो अभी प्रचलन में नहीं था और छपा भी नहीं था ?

प्रश्न-ःक्या मार्क सिर्फ जर्मनी में ही चलता है ?

उत्तर-नहीं मार्क भिन्न-भिन्न रूपों में फ्रांस, आस्ट्रिया, फिनलैड और बावेरिया आदि देशों में प्रचलित रहा है। किस देश में मार्क का क्या रूप था, इस पर मैंने बहुत साहित्य पढ़ा है। मैं एक बार फिर कह दूं कि नीदरलैंड में मार्क मनी आॅफ एकाउंट ही था। जैसे आज भी कुछ देशों के लिए पाउंड और डाॅलर मनी आॅफ एकाउंट है, हालांकि यह वहां की करेंसी नहीं है।

प्रश्न-इस बात के आपके पास और क्या प्रमाण हैं कि मोहसिन ने नोट नहीं, बल्कि हीरे-जवाहरात ही जमा किए थे ?

उत्तर-एल्जीमीन बैंक इतना अधिक सूद (साढ़े चार प्रतिशत प्रति वर्ष) किसी कीमती सामग्री पर ही दे सकता है। मोहसिन जौहरी थे और और बाद में ‘नवाब’ हो गए थे।इसलिए उनके पास इतने हीरे-जवाहरात होना नामुमकिन नहीं था।

प्रश्न-मोहसिन ने आपको अधिकार कैसे दे दिया, जबकि उसकी बेटी का बेटा मंजुरूल हसन मौजूद है और काफी गरीबी में है?

उत्तर-मोहसिन मेरे परिवार का कर्जदार था। इसलिए उसने मरने से एक वर्ष पूर्व मेरे नाम बजाप्ता दान पत्र लिखा। फिर भी मुझे इस संपत्ति का कोई लोभ नहीं है। मैं तो इसलिए यह लड़ाई लड़ रहा हूं, ताकि यूरोप से अपने गरीब भारत को इसका वाजिब पैसा मिल जाए और यह देश के विकास के काम में खर्च हो।

प्रश्न- इस लड़ाई में आपको क्या- क्या कठिनाइयां आईं ?

उत्तर-शारीरिक और आर्थिक परेशानी के साथ- साथ मुझे जान से मारने की भी कोशिश की गई। जब मैं रिजर्व बैंक के गवर्नर से मिलने बंबई गया था, तो मेरी हत्या का प्रयास हुआ। एल्जीमीन बैंक की शाखा कलकत्ता के अलावा बंबई और मद्रास में भी है। नीदरलैंड के दिल्ली स्थित दूतावास में वार्ता के दौरान वहां का एक अधिकारी मुझ पर गोली चलाने पर अमादा हो गया था। किसी तरह जान बची। इसलिए मैं अपने शहर में भी सावधान रहता हूं। कागजात बैंक लाॅकर में रखता हूं।

प्रश्न-इस संबंध में रिजर्व बैंक और स्टेट बैंक की कैसी भूमिका रही ?

उत्तर-इन बैंकों की भूमिका पर आश्चर्य होता है। लगता है कि इनके अधिकारियों में देशप्रेम है ही नहीं। जब भी मैंने उन्हें लिखा, इन बैंकों ने बंधा -बंधाया जवाब दे दिया कि एल्जीमीन बैंक के जरिए पत्र व्यवहार कीजिए। अब भला आप ही बताइए कि जिस एल्जीमीन बैंक के विरुद्ध मैं शिकायत कर रहा हूं, उसी बैंक के जरिए इस पर कोई लाभप्रद पत्र व्यवहार कैसे हो सकता है ?

प्रश्न-मोहसिन के उस हीरे-जवाहरात की वास्तविक कीमत कितनी है ?

उत्तर-मैंने कलकत्ता के चार्टर्ड एकाउंटेंड आर.एस.पी. गुप्त एंड कंपनी से 19 जून, 1980 को इसकी गणना कराई थी। इक्कीस करोड़ मार्क की भारतीय रुपए मंे कीमत बीस अरब 49 करोड़ 60 लाख रुपए होती है। उस तारीख तक सूद की रकम 52 अरब 41 करोड़ 24 लाख 13 हजार 315 रुपए थी। अब यह राशि बढ़कर 77 अरब रुपए हो गई है। इधर मैंेने मार्क पर कुछ और साहित्य पढ़ा है। यूरोप में खास कर नीदरलैंड में एक मार्क की कीमत आठ औंस चांदी से लेकर 8 औंस सोना तक बताई गई है। सोना की बात छोड़ भी दी जाए, तो चांदी के आधार पर ही 21 करोड़ मार्क की कीमत आंकी जाए, तो वह 2 खरब 19 अरब रुपए तक पहुंच जाती है।मैं तो देश के धनवानों से अपील करता हूं कि वे इस देश को समृद्ध बनाने के लिए इसमें थोड़ा धन लगाएं।

वैद्यनाथ मिश्र से इन पंक्तियों के लेखक की बातचीत के 25 साल बीत चुके है। यदि उस धन की कीमत का आकलन आज की तारीख में किया जाए, तो उसके भारी आकार की सहज ही कल्पना की जा सकती है। मिश्र को अफसोस रहा कि इस मामले को उसकी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचाया जा सका।

साभार पब्लिक एजेंडा

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