बुधवार, 28 अगस्त 2013

क्यों कराना पड़ा 1971 में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव

इस देश में लोकसभा का पहला मध्यावधि चुनाव क्यों कराना पड़ा था? मध्यावधि चुनाव 1971 में हुआ। सन् 1969 में कांग्रेस के महाविभाजन को इसका सबसे बड़ा कारण बताया गया। इस विभाजन के साथ ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सत्तारूढ़ दल का संसद में बहुमत समाप्त हो चुका था। पर, वह तो सी.पी.आई. तथा कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों की मदद से चल ही रही थी।

तब इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा देते हुए आरोप लगाया था कि इस काम में संगठन कांग्रेस के नेतागण बाधक हैं। कांग्रेस के विभाजन को यह कहकर औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गई। क्या उन्होंने गरीबी हटाओ के अपने नारे को कार्यरूप देने के लिए मध्यावधि चुनाव देश पर थोपा ?

 यदि सन् 1971 के चुनाव में पूर्ण बहुमत पा लेने के बाद उन्होंने सचमुच गरीबी हटाने की दिशा में कोई ठोस काम किया होता तो यह तर्क माना जा सकता था। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ कि इस देश से गरीबी वास्तव में हटती। फिर क्यों मध्यावधि चुनाव थोपा गया ? दरअसल केंद्र सरकार के कभी भी गिर जाने के भय से वह चुनाव कराया गया था।

  सन् 1971 के मध्यावधि चुनाव के ठीक पहले देश में हो रही राजनीतिक घटनाओं पर गौर करें तो पता चलेगा कि तब कई राज्यों के मंत्रिमंडल आए दिन गिर रहे थे। इंदिरा गांधी को लगा कि कहीं उनकी सरकार भी किसी समय गिर न जाए! वे वामपंथियों से मुक्ति भी चाहती थीं। एक बार कंेंद्र सरकार गिर जाती तो राजनीतिक व प्रशासनिक पहल इंदिरा गांधी के हाथों से निकल जातीं। यह उनके लिए काफी असुविधाजनक होता।

    लोकसभा के मध्यावधि चुनाव के साथ एक और गड़बड़ी हो गई। सन् 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक ही साथ होते थे। इससे सरकारों, दलों और उम्मीदवारों को कम खर्चे लगते थे। सन् 1971 के बाद ये चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे। इससे खर्चे काफी बढ़ गए। इस कारण राजनीति में काला धन की आमद भी बढ़ गई। दरअसल सन् 1967 और 1970 के बीच उत्तर प्रदेश में पांच और बिहार में विभिन्न दलों के आठ मंत्रिमंडल बने। अन्य कुछ राज्यों में भी ऐसी ही अस्थिरता रही।


इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली नई कांग्रेस को यह जरूरी लगा कि जल्दी यानी नियत समय से एक साल पहले ही लोस का मध्यावधि चुनाव कराकर पूर्ण बहुमत पा लिया जाए।

 उस चुनाव को लेकर पूरी दुनिया में भारी उत्सुकता थी। विदेशी मीडिया में इस बात को लेकर अनुमान लगाए जा रहे थे कि पता नहीं भारत इस चुनाव के बाद किधर जाएगा। उन दिनों दुनिया अमेरिका और सोवियत संघ के दो ध्रुवों के बीच बंटी हुई थी।

ब्रितानी अखबार न्यू स्टेट्समैन ने तब लिखा कि ‘हिम्मत से किंतु शांतिपूर्वक श्रीमती गांधी ने लोकसभा भंग कर दी। भारत में यह पहली बार हुआ है। सत्ताच्युत होने का खतरा न होते हुए भी उनकी सरकार को बहुमत प्राप्त नहीं था और इस स्थिति में वह असंतुष्ट थीं। लगातार चैथी बार अच्छी वर्षा होने के बावजूद कुछ आर्थिक विवशताएं भी थीं।......अब तक के तमाम चुनावों के मुद्दे बहुत ही अस्पष्ट रहे और चुनाव घोषणा पत्रों का उद्देश्य सबको खुश करना रहा है। इस बार स्थिति भिन्न होगी। समान मुद्दों की तह में कुछ ठोस मुद्दे होंगे जो कुछ दलों को वामपंथी और कुछ को दक्षिणपंथी सिद्ध करेंगे।’

  अमेरिकी अखबार क्रिश्चेन सायंस माॅनिटर ने लिखा कि ‘श्रीमती गांधी एक साल से अधिक अर्सा पूर्व कांग्रेस विभाजन के बाद से अल्पमत की सरकार का नेतृत्व कर रही हैं। संसद में कोई भी महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास कराने से पहले उन्हें परंपरावादी मास्को समर्थक कम्युनिस्ट पार्टी और क्षेत्रीय राजनीतिक गुटों का समर्थन प्राप्त करना पड़ता था। इसी असंतोषकारी स्थिति से तंग आकर प्रधानमंत्री कई हफ्तों तक सोचती रहीं कि चुनाव कराया जाए या नहीं। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से कि पूर्व राजाओं के विशेषाधिकारों को खत्म करने का उनका निर्णय गैर संवैधानिक है, श्रीमती गांधी की सोच खत्म हो गई।’

  न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा कि ‘वर्तमान भारतीय राजनीति की एक विडंबना यह है कि नई दिल्ली द्वारा बहुप्रचाारित हरित क्रांति वास्तव में उन ग्रामीण क्षेत्रों में असंतोष फैला रही है, जहां इसने सामाजिक और आर्थिक विषमता को बढ़ावा दिया है। श्रीमती गांधी की सधी हुई राजनीतिक चालें अब तक तो प्रतिपक्ष को डगमगाती रही है। लेकिन उनके विरोध में संगठित होने का प्रतिपक्ष का हौसला भी बढ़ता रहा है। यदि श्रीमती गांधी का पासा सही गिरा तो भारत अधिक परिपुष्ट राजनीतिक स्थायित्व और संयत वामपंथी सत्ता के अधीन अधिक गतिशील विकास के नये युग में प्रवेश करेगा। अगर नई कांग्रेस आगामी चुनाव में यथेष्ट बहुमत प्राप्त न कर सकी तो भारतीय राजनीति की वर्तमान विभाजक प्रवृतियां इस उपमहाद्वीप के लिए भारी खतरा उत्पन्न करेगी।’  
(प्रभात खबर में प्रकाशित)

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

आयोग के कारण तो गिर गई थी एक अच्छी सरकार

(सितंबर 2009 में प्रकाशित लेख)


एक न्यायिक जांच आयोग के असर ने सन् 1967 में तब की सरकार ही गिरवा दी थी।

   सन् 1967 का महामाया मंत्रिमंडल निष्पक्ष प्रेक्षकों द्वारा बिहार का अब तक का सबसे बढि़या मंत्रिमंडल माना जाता है। उसके करीब-करीब सभी मंत्री जनसेवा की भावना से ओत-प्रोत थे। उस मंत्रिमंडल के होम करते हाथ जल गये थे। उस सरकार के गिरने के कारण बिहार की अधिकतर जनता दुःखी थी। पर वह अब भी निष्पक्ष लोगों से यह सराहनीय पाती है कि वह बिहार का अब तक का सबसे अच्छा मंत्रिमंडल था।
यहां किसी एक मुख्यमंत्री की बात नहीं कही जा रही है। पूरे मंत्रिमंडल की बात कही जा रही है। वह जिन कारणों से एक ही साल के भीतर गिरा दी गई तो उसके दो मूल कारण थे। एक तो खुद संयुक्त मोर्चा में शामिल दलों के अनेक विधायक सत्तालोलुप हो गये थे। दूसरा किंतु सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि अय्यर जांच आयोग से बिहार कांग्रेस के कई दिग्गज नेता बौखला गये थे और वे जल्द से जल्द महामाया सरकार को गिरा देना चाहते थे। पदलोलुपों की मदद से वे इस काम में सफल भी हो गये।

    महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में बिहार में जो सरकार बनी थी उसमें संसोपा, सी.पी.आई. और जनसंघ के मंत्री भी शामिल थे। पर मंत्री पद को लेकर बी.पी. मंडल और जगदेव प्रसाद नाराज थे और उन्होंने शोषित दल बना कर सरकार गिरा दी। पर इस काम में उन्हें बिहार कांग्रेस के कुछ दिग्गज नेताओं का भरपूर सहयोग हासिल था।

महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार ने सन् 1946 से 1966 तक मंत्री व मुख्यमंत्री रहे छह कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों की जांच के लिए अय्यर न्यायिक जांच आयोग का गठन कर दिया। अय्यर सुप्रीम कोर्ट के प्रतिष्ठित जज रह चुके थे। इस आयोग के गठन के पीछे तत्कालीन मंत्री भोला प्रसाद सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका थी। वे आज भी बताते हैं कि किस तरह कुछ कांग्रेसी नेताओं ने महामाया प्रसाद की सरकार को गिराने के लिए कल-बल-छल का इस्तेमाल किया था। तत्कालीन उपमुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के आवास पर बम फेंके गये। विधायकों को प्रलोभन दिया गया। धमकाया गया। अपहरण करने की कोशिश की गई। तब सरकार गिरने की आशंका से उपजी राजनीतिक अनिश्चितता के कारण पुलिस भी असमंजस में थी। वह उन सरकार समर्थक विधायकों को समुचित संरक्षण नहीं दे रही थी जिनके अपहरण की आशंका थी। इसलिए कुछ विधायकों व मंत्रियों को बचाने के लिए संयुक्त मोर्चा के नेताओं ने निजी सुरक्षा व्यवस्था पर ही भरोसा किया।

   जितने विधायकों ने दलबदल करके शोषित दल बनाया, उन सबको बी.पी. मंडल सरकार में मंत्री बना दिया गया। यह राजनीति में पतन की ठोस शुरुआत थी। सवाल एक ऐसे आयोग का जो था। उस आयोग में सबकी गरदन फंस रह थी। अगले मुख्य मंत्री बी.पी. मंडल की तारीफ करनी होगी जिसने आरोपितों के दबाव के बावजूद अय्यर कमीशन को भंग नहीं किया।

पर बाद की अवधि में बार- बार सरकार बदलते जाने के कारण गवाहों व सबूतों को जुटाने में दिक्कत जरूर हुई। फिर भी सभी छह अभियुक्त किसी न किसी कदाचार-भ्रष्टाचार के लिए आयोग द्वारा  दोषी पाए ही गये थे। एक आयोग ने सरकार गिरवा कर अपना कमाल दिखा दिया। इससे यह भी पता चलता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई निर्णायक कदम उठाना उस समय तक भी कितना कठिन काम हो चुका था। अब तो यह काम दुष्कर बन चुका है।

   महामाया सरकार ने यह सोचा था कि अय्यर आयोग के जरिए दोषी नेताओं को सजा दिलवा कर आगे के भ्रष्ट नेताओं को चेतावनी दे दी जाए। पर उस काम में सफलता नहीं मिली। बल्कि एक अच्छी खासी सरकार शहीद हो गई।

महामाया सरकार जब बनी थी तब देश में भयंकर सूखा था। बिहार में उसका सर्वाधिक असर था। महामाया सरकार के अनेक मंत्रियों और अफसरों ने रात दिन एक करके राहत के काम नहीं किये होते तो हजारों लोग तब भूख से मर गये होते। जय प्रकाश नारायण ने भी सराहनीय राहत कार्य किया। उस सरकार को भी भ्रष्ट और सत्तालोलुप नेताओं ने नहीं बख्शा था।

याद रहे कि अय्यर आयोग भंग करने का राजनीतिक समझौता करके तब महामाया सरकार बचाई जा सकती थी। पर ऐसा करना उस समय के संयुक्त मोर्चा की सरकार ने उचित नहीं समझा। उस समय बी.पी. मंडल को बिहार में मंत्री बने रहने दिया गया होता और जगदेव प्रसाद को मंत्री बना दिया गया होता तोभी महामाया सरकार नहीं गिरती। पर ऐसा समझौता भी नहीं किया गया। ऐसे नहीं माना जाता है तब के मंत्रिमंडल को अब तक का सबसे अच्छा मंत्रिमंडल !

बुधवार, 7 अगस्त 2013

भागलपुर दंगे में आर.एस.एस. या भाजपा का हाथ नहीं : लालू (1989 में बोले)

(08 मई, 2007 को प्रकाशित लेख)

अपना फायदा लालू के लिए हरदम सर्वोपरि


  कम से कम तीन उदाहरण काफी होंगे। ताजा उदाहरण आपातकाल के समर्थन को लेकर है। उन्होंने पहले तो सार्वजनिक रूप से कह दिया कि 1975 में देश में आपातकाल लगाना जरूरी था, पर बाद में वे अपने बयान से पलट गए। इससे पहले भी अपने फायदे के लिए दो बार अपने महत्वपूर्ण बयानों से वे पलट चुके हैं।
सब अपने लाभ के लिए। वैसे पलटे तो हैं और भी कई बयानों से। पर इन तीन को महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए।

    लालू प्रसाद 1989 में लोकसभा के सदस्य चुने गए थे। भागलपुर दंगे पर लोकसभा में चर्चा हो रही थी। लालू प्रसाद ने सदन में दावे के साथ कहा कि दंगे में आर.एस.एस. या भाजपा का हाथ नहीं है। दंगा शुरू कराया दो मुस्लिम अपराधियों ने। यह बात लालू प्रसाद ने इसलिए कही क्योंकि तब केंद्र में वी.पी. सिंह की सरकार भाजपा के समर्थन से चल रही थी। बिहार विधानसभा का चुनाव 1990 में होने वाला था। चुनाव के परिणाम उनके दल के अनुकूल हो, इसके लिए जरूरी था कि केंद्र में वी.पी. सिंह की सरकार बनी रहे। ऐसा तभी संभव था जब भाजपा का समर्थन उसे मिलता रहे। भागलपुर दंगे को लेकर भाजपा या आर.एस.एस. पर आरोप लगाकर उसे नाराज करना ठीक नहीं लगा लालू प्रसाद को।

   पर जब 1990 में लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने भागलपुर दंगे के कारणों को लेकर अपना विचार बदल लिया। तब तक भाजपा ने केंद्र की सरकार से अपना समर्थन वापस लेकर वी.पी. सिंह की सरकार को गिरा दिया था। फिर क्या था, लालू प्रसाद ने न सिर्फ भाजपा और आर.एस.एस. बल्कि एल.के. आडवाणी को भी भागलपुर दंगे के लिए जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया। उन दिनों यशवंत सिन्हा बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता थे। उन्होंने लोकसभा में 1989 में दिए गए लालू प्रसाद के उस भाषण को विधानसभा में पढ़कर सुना दिया जिसमें उन्होंने आर.एस.एस. और भाजपा को क्लिन चीट दी थी।


बिहार का विभाजन मेरी लाश पर होगा : लालू (2000 में बोले)
   
  दूसरा मामला बिहार के विभाजन को लेकर है। सन् 2000 से पहले लालू प्रसाद अक्सर यह कहा करते थे कि ‘बिहार का विभाजन मेरी लाश पर होगा।’ पर सन 2000 में लालू प्रसाद के राजद को विधानसभा चुनाव में बहुमत नहीं मिला। राजद की सरकार का गठन तभी हो सकता था जब कांग्रेस का उसे समर्थन मिलता। कांग्रेस ने यह शर्त रख दी कि लालू प्रसाद यदि राज्य के विभाजन के लिए राजी हो जाएं तो
कांग्रेस समर्थन देकर सरकार बनवा देगी। लालू प्रसाद तुरंत राजी हो गए। वे अपना यह बयान भूल गए कि उनकी लाश पर विभाजन होगा। बिहार में उनके दल की सरकार जरूरी थी क्योंकि चारा घोटाले से संबंधित केस सामने थे और अपनी सरकार रहने पर विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में ठीक ठाक सुविधाएं मिल जाती हैं।

आपातकाल का समर्थन

   तीसरा उदाहरण आपातकाल के समर्थन का है। लालू प्रसाद की अपनी एक खासियत  है। उनके दिल में जो बात रहती है, वे उसे परिणामों की परवाह किए बिना कभी कभी बोल देते हैं। इंदिरा गांधी की तरह ही भ्रष्टाचार व परिवारवाद के तरह तरह के आरोप झेल रहे लालू प्रसाद को शायद लगता है कि एक बार फिर आपातकाल लग जाने के बाद वे इंदिरा गांधी की तरह ही अदालती कार्रवाइयों से बच जाएंगे। याद रहे कि आपात काल लगाकर कानून बदल देने के बाद इंदिरा गांधी इलाहाबाद हाई कोर्ट के जजमेंट का परिणाम भुगतने से बच गई थीं। याद रहे कि हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी की संसद की सदस्यता खारिज कर दी। चुनाव में भ्रष्ट आचरण का आरोप सिद्ध हो जाने के बाद कोर्ट ने ऐसा किया था।

    कांग्रेस ने आपातकाल लगाने  पर जरूर बाद में अफसोस जाहिर किया था, पर अनेक कांग्रेसियों के मन में आपातकाल के प्रति आकर्षण अब भी है। शायद सोनिया गांधी लालू के इस बयान से भीतर भीतर खुश होंगी, यही सोच कर लालू प्रसाद ने आपातकाल के पक्ष में बयान दिया। यह और बात है कि अपनी पुरानी आदत के तहत उन्होंने बयान का इस इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के युग में भी तुरंत खंडन भी कर दिया। इससे उनकी साख कुछ और घटी क्योंकि कुछ ही समय पहले टी.वी. पर लोगों ने लालू प्रसाद को आपातकाल का समर्थन करते हुए देखा और सुना था। लालू प्रसाद के इस बयान पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि उनका बयान प्रतिक्रिया के काबिल भी नहीं है। उन्हें अभी कांग्रेस सरकार से कई काम कराने हैं। उनका इशारा था कि चारा घोटाले संबंधित केस में केंद्र सरकार से लालू प्रसाद को मदद चाहिए।

    लालू प्रसाद के आपातकाल समथर््ाक बयान पर उन नेताओं ने तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की है जो आंदोलन में सक्रिय थे और जिन्होंने आपातकाल की ज्यादतियां झेली थीं। आपातकाल के पक्ष में बयान देकर लालू प्रसाद ने उन्हें यह भी मौका दे दिया कि वे लालू प्रसाद की कमजोरियों की एक बार फिर चर्चा करें। लालू प्रसाद ने जेपी आंदोलन के दौरान अपनी अनेक कमजोरियां दिखाई थीं। उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा है कि अगर आपातकाल कुछ समय और रहता तो लालू प्रसाद उसी समय कांग्रेस की गोद में जा बैठते। 
बिहार भाजपा के पूर्व संगठन मंत्री और जेपी आंदोलन के एक नेता हरेंद्र प्रताप ने लालू प्रसाद से संबंधित एक शर्मनाक प्रकरण की चर्चा कर दी। उन्होंने कहा कि  1985 में विद्यार्थी परिषद के सम्मेलन को लेकर राम बहादुर राय और लालमुनी चैबे के साथ मैं अब्दुल गफूर से मिला। तब वे केंद्र में मंत्री थे। श्री राय से जब उनका परिचय कराया गया तो उन्होंने कहा कि ‘इन्हीं के चलते बिहार से मेरा राजपाट चला गया। लालू को तो हमलोगों ने मिला लिया था। वह पैसा भी लेता था।’ राम बहादुर राय जेपी आंदोलन के प्रमुख नेताओं में थे और तब अब्दुल गफूर बिहार के मुख्यमंत्री थे।

   जदयू के प्रवक्ता शिवानंद तिवारी ने लालू के आपातकाल समर्थक बयान पर कहा कि लालू प्रसाद ने आंदोलन को अपनी बुलंदी के लिए सीढ़ी बनाइ्र्र। उनकी धोखाधड़ी की आदत अब भी कायम है। बिहार सरकार के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह ने कहा है कि हमने उन्हें आंदोलन में लाया था। वे तो वेटनरी कालेज में किरानी का काम करते थे। उनका एकमात्र काम था चंदा वसूलना। छात्र युवा संघर्ष संचालन समिति में लालू प्रसाद की हैसियत एक सदस्य मात्र की थी। समिति का कोई अध्यक्ष नहीं था। तब के आंदोलन में सक्रिय रहे भवेश चंद्र प्रसाद, विक्रम कुंअर, अश्विनी कुमार चैबे और अरूण कुमार सिंहा ने भी लालू प्रसाद के बारे में इसी तरह की राय प्रकट की है। कुल मिलाकर अपने बयान से लालू प्रसाद ने कांगेस को भले खुश किया होगा, पर जेपी आंदोलन में जो भी उनका थोड़ा बहुत योगदान था, उसपर भी उन्होंने पानी फेर दिया। निष्पक्ष लोगों में उनके प्रति यही राय बनी है। 
   
(08 मई, 2007 को प्रकाशित लेख)

प्रथम चुनाव में नेहरू की 18 हजार मील की विमान यात्रा


इन दिनों इस देश के कुछ लोहियावादी बुद्धिजीवी, जवाहरलाल नेहरू के ‘पुनर्मूल्यांकन’ के काम में लगे हुए हैं। थोड़े से नेहरूवादी भी डा. राम मनोहर लोहिया पर अब अपनी संतुलित दृष्टि डाल रहे हैं।

  यह इस देश की राजनीति में एक नया विकास है। कुछ साल पहले तक तो अधिकतर नेहरूवादियों ने डा. लोहिया और अधिकतर लोहियावादियों ने नेहरू में शायद ही कोई गुण देखा हो।

  पर, अब जब दोनों पक्षों ने संतुलित नजरों से इन दिग्गज महारथियों, स्वतंत्रता सेनानियों व विचारकांे को देखना शुरू किया है तो इसमें किसी तरह की अति नहीं हो तो बेहतर होगा। सपा सांसद मोहन सिंह उन बुद्धिजीवी नेताओं में शामिल हो गए हैं जो नेहरू पर ‘दूसरी नजर’ डाल रहे हैं। उन्होंने नेहरू पर पुस्तक लिख कर इस देश के बचे -खुचे लोहियावादियों को भी यह संदेश दिया है कि वे सिर्फ कुछ नेहरू निंदक समाजवादियों की नजर से ही नेहरू को नहीं देखें।

    मोहन सिंह ने 25 अप्रैल 2009 के ‘जागरण’ में यह लिखा है कि ‘प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कभी चुनावी यात्रा हवाई जहाज से नहीं की।’यह बात सही नहीं है। प्रथम आम चुनाव के दौरान उनकी चुनावी यात्राओं का विवरण उपलब्ध है। तब उन्होंने विमान से 18348 मील की चुनावी यात्राएं की थीं। उन्होंने कार से 5682 मील और ट्रेन से 1612 मील की यात्रा की। यहां तक कि उन्होंने तब 90 मील नावों पर चढ़कर चुनावी यात्रा की थी। मोहन सिंह की इस बात के बहाने नेहरू की चुनाव यात्राओं पर एक नजर डालना दिलचस्प होगा।

  यह बात सही है कि यदि आज वे होते तो आज के कुछ नेताओंे की तरह हेलिकाॅप्टर का बैलगाड़ी की तरह इस्तेमाल कतई नहीं करते। पर यह बात भी सही है कि उन्होंने ही सरकारी खर्च पर चुनाव प्रचार के लिए हवाई जहाज अपने लिए हासिल करने की परंपरा भी डलवाई थी। लोकतंत्र में यह अजूबा ही है कि ऐसी सुविधा सिर्फ प्रधानमंंत्री को ही मिले।

  यदि अपनी बिटिया इंदिरा गांधी को राजनीति में आगे बढ़ाने की उनकी कमजोरी   को भुला दिया जाए तो नेहरू स्वार्थी नेता नहीं थे। याद रहे कि नेहरू के जीवन काल में ही इंदिरा गांधी सन् 1958 में कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्य और 1959 में कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दी गई थीें। नेहरू के कुछ राजनीतिक और प्रशासनिक फैसले भी  गलत माने जा सकते हैं, पर वे हमेशा इस बात का ध्यान रखते थे कि उन पर जनता के टैक्स के पैसे में से कम से कम खर्च हो। आज के अधिकतर नेताओं से यह बात नेहरू को अलग करती है।

डा.राम मनोहर लोहिया ने तीन मूर्ति भवन जैसे आलीशान मकान में उनके रहने और खुद पर काफी खर्च करने को लेकर संसद के भीतर और बाहर तीखी आलोचना की थी। पर यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद तत्कालीन गृह मंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने जिद करके नेहरू को चार कमरे के एक छोटे मकान से निकाल कर तीन मूर्ति भवन में पहुंचवाया था। नेहरू इस पक्ष में नहीं थे कि वे किसी बड़े मकान में रहें। महात्मा गांधी की हत्या के बाद पटेल ने नेहरू से कहा था कि यदि वे बड़े और सुरक्षित मकान में नहीं जाएंगे तो वे गृह मंत्री पद छोड़ देंगे। क्योंकि महात्मा जी के बाद आप के साथ यदि कुछ हो जाए तो यह देश वह बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। याद रहे कि देश के विभाजन और लुटे -पिटे शरणार्थियों के आगमन के कारण देश में काफी तनाव था।

   अब जरा प्रधानमंत्री के चुनाव प्रचार के लिए सरकारी विमान के प्रावधान की कथा एक बार फिर याद कर ली जाए। तब इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक ने प्रधानमंत्री सचिवालय को यह सलाह दी कि चुनाव प्रचार के लिए प्रधानमंत्री कमर्शियल फलाइट से यात्रा न करें। उनके लिए वायु सेना के विमान की व्यवस्था होनी चाहिए क्योंकि उनकी जान को खतरा है। निदेशक की इस सलाह पर प्रधानमंत्री सचिवालय हरकत में आ गया। कोई खतरा उठाना नहीं चाहता था। नेहरू भी चाहते थे कि कोई ऐसा निर्णय न हो जाए जिसे अनुचित माना जाए। इसलिए वे खुद इस संबंध में कोई निर्णय नहीं करना चाहे थे।

    इस संबंध में इस देश में पहले से कोई परंपरा नहीं थी। क्योंकि आजादी के बाद के पहले आम चुनाव को लेकर यह समस्या सामने आई थी। इस संबंध में तब के कैबिनेट सचिव एन.आर.पिल्लई ने प्रस्ताव किया कि इस मुद्दे पर विचार के लिए एक उच्चस्तरीय समिति बना दी जाए। समिति हर पहलू पर विचार करके कोई सलाह दे। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की अनुमति से तीन सदस्यों की समिति बना दी गई। कैबिनेट सचिव अध्यक्ष और रक्षा सचिव समिति के सदस्य बने। एक अन्य सदस्य थे आई.सी.एस. अधिकारी तारलोक सिंह। समिति ने प्रधानमंत्री की निजी सुरक्षा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना।

  समिति ने वायु सेना के विमान के इस्तेमाल की सिफारिश करते हुए अपनी सिफारिश में कहा कि ‘यदि प्रधानमंत्री कभी किसी गैर सरकारी काम से भी यात्रा करते हैं तो वे उतने समय के लिए प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो जाते। विमान में भी वे अनेक सरकारी काम कर सकते हैं। रात में वे जहां रुकेंगे, वहां भी सरकारी काम करेंगे।’ पर समिति ने यह भी कहा कि वे गैर सरकारी दौरे में वायु सेना के विमान का उपयोग तो करेगे, पर वे अपनी जेब से उसके भाड़े का भुगतान करेंगे। भाड़ा व्यावसायिक विमान की दर पर लिया जाएगा।’

   इस सिफारिश पर आगे काम होने वाला ही था। प्रधानमंत्री ने कैबिनेट सचिव से कहा कि वे इस सिफारिश की प्रति मंत्रिमंडल के सदस्यों में वितरित करा दें। मंत्रिमंडल ही इस पर कोई निर्णय करे। पर इसी बीच किसी ने प्रधानमंत्री को यह सलाह दी कि वे ऐसी समिति की सिफारिश पर कोई काम नहीं करें जो आपके मातहत अफसरों की समिति है। क्योंकि इसकी आलोचना होगी। इससे प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा को आंच आ सकती है। इसे आर्थिक घोटाला भी माना जा सकता है। सरकार के पैसों को निजी कामों मेंं खर्च करने का यह मामला माना जाएगा। इसलिए वायु सेना के विमान के प्रधानमंत्री द्वारा चुनाव कार्यों में इस्तेमाल की सिफारिश ऐसे किसी प्रतिष्ठान से होनी चाहिए जिसके रोज ब रोज के कामों में सरकार का सीधा असर नहीं रहता हो।े  
   
 इस पृष्ठभूमि में इस मामले को नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक नर हरि राव को भेज दिया गया। सारे कागजात उन्हें भेज दिए गए। कागजात के अध्ययन के बाद उन्होंेने प्रधानमंत्री सचिवालय को बताया कि अभी देश में स्थिति असामान्य है। इस हालात में प्रधानमंत्री की निजी सुरक्षा पर ध्यान रखना जरूरी है। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री को चुनाव कार्यों के लिए वायु सेना के विमान की सुविधा दी जा सकती है। पर नरहरि राव ने अपने नोट में यह भी लिख दिया कि किसी अगले प्रधानमंत्री के लिए यह पूर्व उदाहरण नहीं माना जाएगा। सी.ए.जी. की इस सलाह को कैबिनेट ने मंजूरी दे दी। कैबिनेट के निर्णय के बाद सी.ए.जी. की सिफारिश की प्रति प्रेस को वितरित कर दी गई।

  सन् 1951 में वायु सेना के पास सिर्फ कुछ डकोटा विमान ही थे। प्रधानमंत्री ने उसी का इस्तेमाल किया। प्रथम आम चुनाव की प्रक्रिया लम्बी चली। वह चुनाव सन् 1951 के अक्तूबर और दिसंबर तथा 1952 कीे फरवरी में हुआ था। बाद के प्रधान मंत्रियों ने भी चुनाव के समय वायु सेना के विमानों का इस्तेमाल किया। पर नर हरि राव की इस सलाह का कि यह पूर्व उदाहरण नहीं माना जाएगा,समाधान कैसे किया गया, यह पता नहीं चल सका।