प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इतिहास किस रूप में याद करेगा? उनकी उपलब्धियों और विफलताओं को कसने के लिए कई अन्य कसौटियां भी होंगी। पर, उन्हें इस रूप में अधिक याद किया जाएगा कि उन्होंने इस गरीब देश के साथ -साथ खुद अपने साथ भी न्याय नहीं किया।
सर्वाधिक घोटाले वाली सरकार चला रहे मनमोहन सिंह के खिलाफ अब तक नाजायज तरीके से पैसे कमाने का आरोप या सबूत सामने नहीं आया है। तो फिर सबसे भ्रष्ट सरकार के ‘सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री’ आखिर
अपने पद पर क्यों बने हुए हैं ?
आखिर क्यों वह ‘ईमानदारी के साथ’ अपनी सरकार से बेईमानी करवा रहे हैं ? क्या वे ऐसा किसी अन्य शक्ति के आदेश पर बेमन से कर रहे हैं ? अपनी ही पुरानी मान्यताओं व बयानों के खिलाफ वह रोज -रोज कदम उठा रहे हैं ?
यह बात मानी हुई है कि उनके पास कुर्सी जरूर है, पर सत्ता कहीं और है। तो फिर वह उस कुर्सी पर क्यों बैठे हुए हैं जिसकी ताकत का वे देश के भले के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते ? क्या सिर्फ कुर्सी पर बैठे रहने का मोह उनके लिए इतना बड़ा मोह होता है कि वर्षों से जतन से बनाई हुई अपनी ही छवि को खुद ही ध्वस्त कर दिया जाए ?
अब तक यह धारणा रही है कि कोई भी सत्ताधारी नेता लूट में हिस्सा मिले बिना बेईमान लोगों का साथ नहीं देता। पर मनमोहन सिंह ने इस धारणा को भी गलत साबित कर दिया। इस रूप में वह याद किये जाएंगे। वह एक और कारण से भी इतिहास में याद किये जाएंगे। उन्होंने इस धारणा को भी झूठा साबित कर दिया कि किसी सरकार के शीर्ष पद पर बैठे किसी ईमानदार व्यक्ति की ईमानदारी का सुप्रभाव उसके अधीनस्थ लोगों पर भी थोड़ा जरूर पड़ता है।
मनमोहन सिंह के मामले में गंगा उल्टी दिशा में बह रही है। मनमोहन यह कहकर साफ बच निकलना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार गठबंधन युग की मजबूरी है। क्या मनमोहन सिंह कहीं और से आदेश पाकर अपनी सरकार से ईमानदारी पूर्वक बेईमानी करवा रहे हैं ?
इतिहास इस सवाल का भी जवाब ढूंढ़ेगा।
कोई नेता अपनी ही बातों को बाद में किस तरह चबा जाता है, उसका उदाहरण संासद क्षेत्र विकास फंड है। एक विवादास्पद परिस्थिति में 23 दिसंबर 1993 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने सांसद फंड की शुरुआत की थी। उससे ठीक पहले राम जेठमलानी ने आरोप लगाया था कि नरसिंह राव को शेयर दलाल हर्षद मेहता ने एक करोड़ रुपये की रिश्वत दी थी। वह रकम नंदियाल लोकसभा उपचुनाव में खर्च करने के लिए नरसिंह राव को दी गई थी।
राव नंदियाल से उपचुनाव जीत कर लोकसभा में पहुंचे थेे। 1991 का आम चुनाव उन्होंने नहीं लड़ा था, पर गैर सांसद नरसिंह राव को विशेष राजनीतिक परिस्थितियों में प्रधानमंत्री बना दिया गया था। जब हर्षद मेहता का आरोप नरसिंह राव पर लगा तो शायद राव साहब ने यह सोचा होगा कि संासद फंड शुरू करा कर ऐसा ही आरोप अन्य सांसदों पर भी लगते रहने का रास्ता बना दिया जाए ताकि हम पर लग रहे आरोप की तीव्रता कम हो जाए। एक बात और थी। नरसिंह राव की सरकार को लोकसभा में बहुमत का समर्थन हासिल नहीं था। सांसद फंड के जरिए सांसदों को खुश करना जरूरी था।
याद रहे कि यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि संासद फंड घोटाले में सारे सांसद फंसे रहते हैं। अनेक सांसदों पर आरोप तो लगत ही रहते हैं।
मनमोहन सिंह राव सरकार में वित्त मंत्री थे। वे ऐसे फंड के सख्त खिलाफ थे। इसलिए मनमोहन सिंह जब विदेश दौरे पर थे, जानबूझकर उस समय नरसिंह राव ने इस फंड की शुरुआत की थी। बाद की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने इस फंड को एक करोड़ रुपये से बढ़ाकर दो करोड़ रुपये सालाना कर दिया।
सन् 1998 मेंं राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता मनमोहन सिंह ने इस फंड की बढ़ी राशि का विरोध करते हुए तत्कालीन अटल सरकार से कहा था कि ‘आप चीजों को इसी रास्ते पर जाने देंगे तो जनता नेताओं और लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास खो देगी। संसद में इस मुद्दे पर कपिल सिब्बल ने भी तब कहा था कि ‘पब्लिक फंड का इस्तेमाल प्राइवेट उद्देश्यों के लिए हो रहा है और हम भ्रष्टाचार के नये मील के पत्थर को पार कर रहे हैं।’ तब की अटल बिहारी सरकार ने एक करोड़ रुपये से बढ़कर दो करोड़ सालाना किया था।
पर वही मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने 2011 में सांसद फंड की राशि दो करोड़ रुपये से बढ़ा कर पांच करोड़ रुपये कर दी। या यूं कहें कि उन्हें करनी पड़ी। जबकि योजना आयोग ने इस बढ़ोतरी का विरोध किया था।
यह बात गौर करने लायक है कि एक संसदीय समिति ने इसे बढ़ाकर 10 करोड़ रुपये सालाना कर देने की सिफारिश की थी। इस बात के लिए आप मनमोहन को जरूर धन्यवाद दे सकते हैं कि उन्होंने दस करोड़ के बदले पांच करोड़ ही किया।
सन् 1993 में जब पी.वी. नरसिंह राव की सरकार ने सांसद क्षेत्र विकास निधि की शुरुआत की थी, तभी कुछ लोगों ने यह आशंका जाहिर की थी कि यह निधि इस देश की राजनीति की शुचिता के लिए घातक साबित होगी।
मनमोहन सिंह की तब यह राय थी कि सांसद फंड में जो पैसे खर्च किये जाने हैं, उसको लेकर एक चुनाव फंड बनाया जाए जिसे दलों या उम्मीदवारों को खर्च करने के लिए सरकार दे दिया करे। इससे राजनीति में शुचिता आएगी। पर प्रधानमंत्री बनने के बाद वह काम मनमोहन नहीं कर सके। यानी उन्हें गद्दी पर बैठाने व बनाये रखने में मदद करने वाले दूसरे लोगों के इशारे पर मनमोहन सिंह फैसले करते रहे।
इस रूप में इतिहास उन्हें याद रखेगा। किसी ने ठीक ही कहा है कि जीवन लंबा नहीं बल्कि ऊंचा होना चाहिए। मनमोहन ने अपनी कुर्सी की अवधि को लंबा करने के लिए अपनी खुद की ऊंचाई को भी घटा लिया। इस रूप में भी वे याद किये जाएंगे। जवाहर लाल और इंदिरा के बाद मनमोहन सिंह सर्वाधिक लंबे समय तक प्रधानमंत्री बनने के लिए याद किये जाएंगे। पर ऐसी लंबाई का क्या मतलब कि जिससे आम लोगों को कोई फायदा नहीं हो।
याद रहे कि संासद फंड राजनीति के गले में हड्््डी की तरह अटक गया है। अब इसे न तो उगलते बनता है और न ही निगलते। जबकि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस देश में जन अभियान चल रहा है। इस बीच इस फंड में कमीशन की बंदरबांट के लिए जहां -तहां तपे- तपाये राजनीतिक कार्यकर्ता अभिकर्ता बन रहे हैं। फंड की ठेकेदारी हासिल करने के लिए जहां-तहां गोलियां चल रही हैं और हत्याएं हो रही हैं। कुछ साल पहले स्टिंग आॅपरेशन में समाजवादी सांसद साक्षी महाराज सांसद फंड के घोटाले के सिलसिले में रंगे हाथ पकड़े गये। इस कारण उनकी सदस्यता भी चली गई। इससे जुड़े हुए निहितस्वार्थ का हाल यह है कि देश के अधिकतर नेता और दल ऊपरी तौर पर तो इस फंड को समाप्त करने की मांग करते हैं, पर समाप्त करने के बारे में फैसला करने का जब वक्त आता है तो वे बहाना बनाकर साफ मुकर जाते हैं। यह सब जानते हुए भी मनमोहन ने फंड की राशि बढ़ा दी।
अधिक उम्मीद तो इसी बात की है कि 2014 के चुनाव के बाद मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे। यदि ऐसा होने वाला है तो मनमोहन की गद्दी कुछ महीनों तक ही रहेगी। ऐसे में उनके पूरे कार्यकाल का आकलन करना मौजू होगा।
मनमोहन सिंह का जन्म पश्चिमी पंजाब में 1932 में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। विभाजन के समय मनमोहन का परिवार अमृतसर आ गया था। पढ़ाकू विद्यार्थी मनमोहन ने आॅक्सफोर्ड से अर्थशास्त्र में डाक्टरेट किया। उन्होंने 1966 से 1969 तक यूनाइटेड नेशन्स में काम किया। बाद में तत्कालीन विदेश व्यापार मंत्री ललित नारायण सिंह ने उन्हें अपने मंत्रालय में सलाहकार बना कर स्वदेश बुलाया।
1991 में वित्त मंत्री बनने के पहले वे भारत सरकार में कई पदों पर रहे। वित्त मंत्री के रूप में उनके कामों की कई हलकों में सराहना ही हुई।
पर प्रधानमंत्री के रूप में वे फलाॅप रहे। ऐसा नहीं कि मनमोहन सरकार ने कोई अच्छा काम नहीं किया। ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, आधार कार्ड, मनरेगा और सूचना अधिकार कानून सरकार के अच्छे काम माने गये। पर अधिकतर अच्छे कामों का श्रेय सोनिया गांधी के नतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने ले ली और बुरे कामों या फिर विफलताओं के जवाब देने का भार मनमोहन सिंह पर सौंप दिया गया।
ऐसे में यदि मनमोहन ने अधिकतर समय मौन धारण किया तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ? यह कोई अजूबी बात नहीं है कि मनमोहन सिंह का एक नाम मौन मोहन सिंह के रूप में भी प्रचलित हुआ।
राहुल गांधी ने तो अपनी छवि चमकाने के लिए हाल में मनमोहन सिंह व प्रधानमंत्री पद और कैबिनेट की संस्था की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ भी कर दिया। राहुल ने उस अध्यादेश को सार्वजनिक रूप से बकवास बता था जो सांसदी बचाने के लिए तैयार किया गया था। उस अध्यादेश को वापस ले लेना पड़ा।
इसपर राजनीतिक व गैर राजनीतिक हलकोंं में यह चर्चा थी कि यदि मनमोहन की जगह थोड़ा भी स्वाभिमान रखने वाले कोई अन्य नेता होता तो प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देता। पर जिस तरह किसी गैर सरकारी संस्थान में अपने बाॅस की सारी फटकार सुनकर कोई निम्न श्रेणी का कर्मचारी नौकरी में बने रहता है, उसी तरह मनमोहन ने अपनी गद्दी बचाई भले प्रतिष्ठा तार-तार हो गई हो। इसके साथ लोकतंत्र, कैबिनेट प्रणाली और प्रधानमंत्री पद की संस्था की इज्जत भी मिट्टी में मिला दी गई।
अब ऐसे प्रधानमंत्री को इतिहास किस रूप में याद करेगा, इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने के लिए दिमाग पर बहुत जोर डालने की कोई जरूरत नहीं है। मनमोहन सिंह सरकार का कार्यकाल इस देश के इतिहास का सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार का कार्यकाल माना जाएगा।
लगभग सारे भ्रष्टाचारों के आरोपों को मनमोहन सरकार सार्वजनिक रूप से झुठलाती रही। पर जब उन्हीं मामलों में अदालतों ने आदेश दिये तो उनकी जांच हुई। आरोपित जेल गये या फिर पद से हटाए गए।
इस मामले में इतिहास मनमोहन सरकार को सर्वाधिक बेशर्म सरकार के रूप में भी याद करेगा।कुल मिलाकर महंगाई,गिरती अर्थ व्यवस्था,भ्रष्टाचार और कुशासन के लिए मन मोहन सरकार तब तक याद की जाएगी जब तक कि इससे भी बदतर कोई सरकार न आ जाए।
सर्वाधिक घोटाले वाली सरकार चला रहे मनमोहन सिंह के खिलाफ अब तक नाजायज तरीके से पैसे कमाने का आरोप या सबूत सामने नहीं आया है। तो फिर सबसे भ्रष्ट सरकार के ‘सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री’ आखिर
अपने पद पर क्यों बने हुए हैं ?
आखिर क्यों वह ‘ईमानदारी के साथ’ अपनी सरकार से बेईमानी करवा रहे हैं ? क्या वे ऐसा किसी अन्य शक्ति के आदेश पर बेमन से कर रहे हैं ? अपनी ही पुरानी मान्यताओं व बयानों के खिलाफ वह रोज -रोज कदम उठा रहे हैं ?
यह बात मानी हुई है कि उनके पास कुर्सी जरूर है, पर सत्ता कहीं और है। तो फिर वह उस कुर्सी पर क्यों बैठे हुए हैं जिसकी ताकत का वे देश के भले के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते ? क्या सिर्फ कुर्सी पर बैठे रहने का मोह उनके लिए इतना बड़ा मोह होता है कि वर्षों से जतन से बनाई हुई अपनी ही छवि को खुद ही ध्वस्त कर दिया जाए ?
अब तक यह धारणा रही है कि कोई भी सत्ताधारी नेता लूट में हिस्सा मिले बिना बेईमान लोगों का साथ नहीं देता। पर मनमोहन सिंह ने इस धारणा को भी गलत साबित कर दिया। इस रूप में वह याद किये जाएंगे। वह एक और कारण से भी इतिहास में याद किये जाएंगे। उन्होंने इस धारणा को भी झूठा साबित कर दिया कि किसी सरकार के शीर्ष पद पर बैठे किसी ईमानदार व्यक्ति की ईमानदारी का सुप्रभाव उसके अधीनस्थ लोगों पर भी थोड़ा जरूर पड़ता है।
मनमोहन सिंह के मामले में गंगा उल्टी दिशा में बह रही है। मनमोहन यह कहकर साफ बच निकलना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार गठबंधन युग की मजबूरी है। क्या मनमोहन सिंह कहीं और से आदेश पाकर अपनी सरकार से ईमानदारी पूर्वक बेईमानी करवा रहे हैं ?
इतिहास इस सवाल का भी जवाब ढूंढ़ेगा।
कोई नेता अपनी ही बातों को बाद में किस तरह चबा जाता है, उसका उदाहरण संासद क्षेत्र विकास फंड है। एक विवादास्पद परिस्थिति में 23 दिसंबर 1993 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने सांसद फंड की शुरुआत की थी। उससे ठीक पहले राम जेठमलानी ने आरोप लगाया था कि नरसिंह राव को शेयर दलाल हर्षद मेहता ने एक करोड़ रुपये की रिश्वत दी थी। वह रकम नंदियाल लोकसभा उपचुनाव में खर्च करने के लिए नरसिंह राव को दी गई थी।
राव नंदियाल से उपचुनाव जीत कर लोकसभा में पहुंचे थेे। 1991 का आम चुनाव उन्होंने नहीं लड़ा था, पर गैर सांसद नरसिंह राव को विशेष राजनीतिक परिस्थितियों में प्रधानमंत्री बना दिया गया था। जब हर्षद मेहता का आरोप नरसिंह राव पर लगा तो शायद राव साहब ने यह सोचा होगा कि संासद फंड शुरू करा कर ऐसा ही आरोप अन्य सांसदों पर भी लगते रहने का रास्ता बना दिया जाए ताकि हम पर लग रहे आरोप की तीव्रता कम हो जाए। एक बात और थी। नरसिंह राव की सरकार को लोकसभा में बहुमत का समर्थन हासिल नहीं था। सांसद फंड के जरिए सांसदों को खुश करना जरूरी था।
याद रहे कि यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि संासद फंड घोटाले में सारे सांसद फंसे रहते हैं। अनेक सांसदों पर आरोप तो लगत ही रहते हैं।
मनमोहन सिंह राव सरकार में वित्त मंत्री थे। वे ऐसे फंड के सख्त खिलाफ थे। इसलिए मनमोहन सिंह जब विदेश दौरे पर थे, जानबूझकर उस समय नरसिंह राव ने इस फंड की शुरुआत की थी। बाद की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने इस फंड को एक करोड़ रुपये से बढ़ाकर दो करोड़ रुपये सालाना कर दिया।
शुरू में सांसद फंड का विरोध, बाद में खुद ही बढ़ा दिया फंड
सन् 1998 मेंं राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता मनमोहन सिंह ने इस फंड की बढ़ी राशि का विरोध करते हुए तत्कालीन अटल सरकार से कहा था कि ‘आप चीजों को इसी रास्ते पर जाने देंगे तो जनता नेताओं और लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास खो देगी। संसद में इस मुद्दे पर कपिल सिब्बल ने भी तब कहा था कि ‘पब्लिक फंड का इस्तेमाल प्राइवेट उद्देश्यों के लिए हो रहा है और हम भ्रष्टाचार के नये मील के पत्थर को पार कर रहे हैं।’ तब की अटल बिहारी सरकार ने एक करोड़ रुपये से बढ़कर दो करोड़ सालाना किया था।
पर वही मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने 2011 में सांसद फंड की राशि दो करोड़ रुपये से बढ़ा कर पांच करोड़ रुपये कर दी। या यूं कहें कि उन्हें करनी पड़ी। जबकि योजना आयोग ने इस बढ़ोतरी का विरोध किया था।
यह बात गौर करने लायक है कि एक संसदीय समिति ने इसे बढ़ाकर 10 करोड़ रुपये सालाना कर देने की सिफारिश की थी। इस बात के लिए आप मनमोहन को जरूर धन्यवाद दे सकते हैं कि उन्होंने दस करोड़ के बदले पांच करोड़ ही किया।
सन् 1993 में जब पी.वी. नरसिंह राव की सरकार ने सांसद क्षेत्र विकास निधि की शुरुआत की थी, तभी कुछ लोगों ने यह आशंका जाहिर की थी कि यह निधि इस देश की राजनीति की शुचिता के लिए घातक साबित होगी।
मनमोहन सिंह की तब यह राय थी कि सांसद फंड में जो पैसे खर्च किये जाने हैं, उसको लेकर एक चुनाव फंड बनाया जाए जिसे दलों या उम्मीदवारों को खर्च करने के लिए सरकार दे दिया करे। इससे राजनीति में शुचिता आएगी। पर प्रधानमंत्री बनने के बाद वह काम मनमोहन नहीं कर सके। यानी उन्हें गद्दी पर बैठाने व बनाये रखने में मदद करने वाले दूसरे लोगों के इशारे पर मनमोहन सिंह फैसले करते रहे।
इस रूप में इतिहास उन्हें याद रखेगा। किसी ने ठीक ही कहा है कि जीवन लंबा नहीं बल्कि ऊंचा होना चाहिए। मनमोहन ने अपनी कुर्सी की अवधि को लंबा करने के लिए अपनी खुद की ऊंचाई को भी घटा लिया। इस रूप में भी वे याद किये जाएंगे। जवाहर लाल और इंदिरा के बाद मनमोहन सिंह सर्वाधिक लंबे समय तक प्रधानमंत्री बनने के लिए याद किये जाएंगे। पर ऐसी लंबाई का क्या मतलब कि जिससे आम लोगों को कोई फायदा नहीं हो।
सांसद फंड गले में हड्डी
अधिक उम्मीद तो इसी बात की है कि 2014 के चुनाव के बाद मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे। यदि ऐसा होने वाला है तो मनमोहन की गद्दी कुछ महीनों तक ही रहेगी। ऐसे में उनके पूरे कार्यकाल का आकलन करना मौजू होगा।
प्रधानमंत्री के रूप में फ्लाप
मनमोहन सिंह का जन्म पश्चिमी पंजाब में 1932 में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। विभाजन के समय मनमोहन का परिवार अमृतसर आ गया था। पढ़ाकू विद्यार्थी मनमोहन ने आॅक्सफोर्ड से अर्थशास्त्र में डाक्टरेट किया। उन्होंने 1966 से 1969 तक यूनाइटेड नेशन्स में काम किया। बाद में तत्कालीन विदेश व्यापार मंत्री ललित नारायण सिंह ने उन्हें अपने मंत्रालय में सलाहकार बना कर स्वदेश बुलाया।
1991 में वित्त मंत्री बनने के पहले वे भारत सरकार में कई पदों पर रहे। वित्त मंत्री के रूप में उनके कामों की कई हलकों में सराहना ही हुई।
पर प्रधानमंत्री के रूप में वे फलाॅप रहे। ऐसा नहीं कि मनमोहन सरकार ने कोई अच्छा काम नहीं किया। ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, आधार कार्ड, मनरेगा और सूचना अधिकार कानून सरकार के अच्छे काम माने गये। पर अधिकतर अच्छे कामों का श्रेय सोनिया गांधी के नतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने ले ली और बुरे कामों या फिर विफलताओं के जवाब देने का भार मनमोहन सिंह पर सौंप दिया गया।
ऐसे में यदि मनमोहन ने अधिकतर समय मौन धारण किया तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ? यह कोई अजूबी बात नहीं है कि मनमोहन सिंह का एक नाम मौन मोहन सिंह के रूप में भी प्रचलित हुआ।
प्रधानमंत्री पद और कैबिनेट की संस्था की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़
राहुल गांधी ने तो अपनी छवि चमकाने के लिए हाल में मनमोहन सिंह व प्रधानमंत्री पद और कैबिनेट की संस्था की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ भी कर दिया। राहुल ने उस अध्यादेश को सार्वजनिक रूप से बकवास बता था जो सांसदी बचाने के लिए तैयार किया गया था। उस अध्यादेश को वापस ले लेना पड़ा।
इसपर राजनीतिक व गैर राजनीतिक हलकोंं में यह चर्चा थी कि यदि मनमोहन की जगह थोड़ा भी स्वाभिमान रखने वाले कोई अन्य नेता होता तो प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देता। पर जिस तरह किसी गैर सरकारी संस्थान में अपने बाॅस की सारी फटकार सुनकर कोई निम्न श्रेणी का कर्मचारी नौकरी में बने रहता है, उसी तरह मनमोहन ने अपनी गद्दी बचाई भले प्रतिष्ठा तार-तार हो गई हो। इसके साथ लोकतंत्र, कैबिनेट प्रणाली और प्रधानमंत्री पद की संस्था की इज्जत भी मिट्टी में मिला दी गई।
अब ऐसे प्रधानमंत्री को इतिहास किस रूप में याद करेगा, इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने के लिए दिमाग पर बहुत जोर डालने की कोई जरूरत नहीं है। मनमोहन सिंह सरकार का कार्यकाल इस देश के इतिहास का सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार का कार्यकाल माना जाएगा।
सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोप झुठलाए, कोर्ट में सही साबित हुए
लगभग सारे भ्रष्टाचारों के आरोपों को मनमोहन सरकार सार्वजनिक रूप से झुठलाती रही। पर जब उन्हीं मामलों में अदालतों ने आदेश दिये तो उनकी जांच हुई। आरोपित जेल गये या फिर पद से हटाए गए।
इस मामले में इतिहास मनमोहन सरकार को सर्वाधिक बेशर्म सरकार के रूप में भी याद करेगा।कुल मिलाकर महंगाई,गिरती अर्थ व्यवस्था,भ्रष्टाचार और कुशासन के लिए मन मोहन सरकार तब तक याद की जाएगी जब तक कि इससे भी बदतर कोई सरकार न आ जाए।
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