इस मिनी आम चुनाव (दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव 2013) की सबसे बड़ी उपलब्धि आम आदमी पार्टी का उभार है। उभार भी ऐसा वैसा नहीं बल्कि बेमिसाल है। ‘आप’ को भारी जीत दिलाकर दिल्ली के बहुमत मतदाताओं ने देश को एक नयी राजनीतिक दिशा भी दिखाई है। इस तरह मतदाताओं ने देश की राजधानी का नागरिक होने का फर्ज भी निभाया है।
दिल्ली की जनसंख्या की विविधता का आज जो स्वरूप है, उसे लगभग पूरे देश की प्रतिनिधि आबादी भी कहा जा सकता है। इसलिए यह भी कहा जा रहा है कि यदि पहले से आम आदमी पार्टी के काम व प्रचार अन्य राज्यों में हुए होते और ‘आप’ ने वहां भी चुनाव लड़ा होता तो वह उन राज्यों में भी चुनाव को प्रभावित कर सकती थी जहां हाल में (2013) चुनाव हुए।
मोदीत्व बनाम ‘आप’वाद में राजनीतिक मुकाबले
संकेत बताते हैं कि आने वाले समय में धीरे -धीरे कांग्रेस राजनीति के हाशिये पर जाएगी। ‘आप’ धीरे -धीरे उसकी जगह लेगी। देश भर के अच्छे तत्व आम आदमी पार्टी से जुड़ेंगे। मोदीत्व बनाम ‘आप’वाद के बीच आने वाले दिनों में राजनीतिक मुकाबले होंगे। क्योंकि मोदीत्व को हराने में अभी उनके विरोधियों को भी समय लगेगा। क्योंकि भाजपा के हिन्दुत्व की चाशनी और कांग्रेस की नकली धर्मनिरपेक्षता से मोदीत्व को ताकत मिली है। इसके हालांकि कुछ अन्य कारण भी हैं। वैसे तसलीमा नसरीन के खिलाफ फतवा देने वाले व्यक्ति की तरह के लोगों के साथ ‘आप’ ने यदि अधिक मेलजोल बढ़ाया तो उससे मोदीत्व को ही बढ़ावा मिलेगा।
यह भी उम्मीद की जाती है कि इतनी बड़ी चुनावी सफलता के बाद ‘आप’ वास्तविक धर्मनिरपेक्ष बने न कि अन्य कुछ दलों की तरह एकतरफा या ढोंगी धर्म निरपेक्ष।
कांग्रेस के भ्रष्टाचार से परेशान जनता
बशर्ते कि ‘आप‘ ने अपने चाल, चरित्र व चेहरे को आगे भी ठीकठाक रखा। इसके लिए यह जरूरी है कि गंदे और अवसरवादी तत्व आप में घुसपैठ नहीं कर पायें। कांग्रेस की लगातार नाकामयाबियों से उभरे मोदीत्व ने दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी के विजय रथ को रोक लिया है, पर आने वाले समय में पूरे देश में ‘आप’वाद बनाम मोदीत्व के बीच मुकाबले की ही संभावना नजर आ रही है।
सरकारी भ्रष्टाचार से पीडि़त इस गरीब देश में अगले चुनावों में अंततः आम आदमी की ही जीत की संभावना जाहिर की जा सकती है। हालांकि इसमें समय लग सकता है। आप के नेताओं की मौजूदा साख को देखते हुए देश के अन्य हिस्सों की जनता भी आप को स्वीकार कर सकती है।
घाघ नेताओं ने विफल किए जनता के बदलाव
पर, इससे पहले के दशकों में जनता ने ऐसे ही तीन प्रयास किये थे जिन्हें घुटे हुए घाघ नेताओं ने अंततः विफल कर दिये। उम्मीद की जानी चाहिए कि आम आदमी पार्टी में वैसे घुटे हुए घाघ नेताओं का कभी वर्चस्व नहीं हो पाएगा। क्योंकि आप में अभी तो नये ढंग के लोग हैं जो ‘राजनीति का विकल्प’ नहीं बल्कि वैकल्पिक राजनीति के पक्षधर हैं।
याद रहे कि दिल्ली में शानदार प्रदर्शन के बाद यह उम्मीद की जाती है कि आम आदमी पार्टी देश के अन्य हिस्सों में भी अगला चुनाव लड़ेगी। देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसी मांग भी ‘आप’ के पास अब आएगी। बल्कि आनी शुरु हो चुकी होगी। सीमित शक्ति व साधनों के कारण भले उसे आगे भी सीमित चुनावी सफलता ही मिले, पर यह बात पक्की मानी जा रही है कि वह विकल्प की राजनीति नहीं, बल्कि वैकल्पिक राजनीति ही करेगी और आने वाले दिनों में देश का नेतृत्व भी करेगी।
दिल्ली में प्रबुद्ध से लेकर आम मतदाताओं ने यही देख-समझकर आम आदमी पार्टी को अपनाया है क्योंकि ‘आप’ देश के सामने वैकल्पिक राजनीति पेश कर रही है।
’आप’ को जातपात से ऊपर उठकर मिले वोट
याद रखने की बात है कि ‘आप’ को लोगों ने जातपात से ऊपर उठकर वोट दिये हैं। जब भी बेहतर विकल्प लोगों को दिखा है, इस देश के लोगांे ंने जातपात तथा अन्य लाभ-लोभ-दबाव से ऊपर उठकर ही वोट दिया है। हां, जब विकल्पों के बीच अंतर कम हो तो लोगों का एक हिस्सा संकीर्ण स्वार्थों में लिप्त हो जाता है। वही हिस्सा कभी -कभी चुनावों में निर्णायक भी हो जाता है।
1967, 1977 और 1989 में नेताओं ने दिया धोखा
इससे पहले 1967, 1977 और 1989 मेंे भी देश के अधिकतर लोगों ने वैकल्पिक राजनीति की उम्मीद में संकीर्णता से ऊपर उठकर मतदान किये थे। 1967 के नेता डा. राम मनोहर लोहिया, 1977 के नेता जय प्रकाश नारायण और 1989 के नेता वीपी. सिंह थे। पर इस देश के जनतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति रही कि तीनों बार लोगों ने नेताओं से अंततः धोखा ही खाया। उम्मीद की जानी चाहिए कि आम आदमी पार्टी से उन्हें धोखा नहीं मिलेगा।
1967, 1977 और 1989 में आम लोगों ने मूलतः सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ मतदान किये थे। दरअसल किसी गरीब देश में सरकारी भ्रष्टाचार ही अन्य कई गंभीर समस्याएं भी पैदा कर देता है। 1967 के चुनाव में तो नौ राज्यों से कांग्रे्रेस का एकाधिकार खत्म हुआ था, पर 1977 में तो केंद्र से ही उसका एकाधिकार समाप्त हो गया था। 1984 में चार सौ से अधिक लोकसभा सीटें जीत चुकी कांग्रेस 1989 में बुरी तरह हार गई थी। बोफोर्स भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों का गुस्सा इतना अधिक था।
आज कदम-कदम पर भ्रष्टाचार
अब तो कदम -कदम पर बोफोर्स हैंं। आज इस देश की अधिकतर जनता यह चाहती है कि काला धन, भ्रष्टाचार, सत्ताधारियों के अहंकार, वंशवाद और चमचागिरी से देश को जल्द मुक्ति मिले। गरीब से लेकर अमीर जनता तक से टैक्स में मिले पैसे जनता के लिए ही खर्च हों। वे घोटालों की भेंट नहीं चढे़। इस पृष्ठभूमि में आज मोदीत्व बनाम कांग्रेस के बीच ‘आप’ उम्मीद की नयी किरण बन कर उभरी है।
( 9 दिसंबर 2013 के जनसत्ता से साभार)
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