बुधवार, 18 दिसंबर 2013

‘बकरे की बलि’ चढ़ाने से बच जाएगी कांग्रेस की इज्जत ?

कांग्रेस में एक बार फिर बलि के बकरे की तलाश हो रही है। केंद्र में और राज्यों में भी। मणि शंकर अयर का ताजा बयान उसी तलाश का हिस्सा है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से भी ऐसी ही तलाश की सूचना आ रही है।

    पर, क्या बकरे की बलि देने से कांग्रेस को कभी कोई लाभ मिला है जो इस बार मिलेगा ?

दरअसल इतिहास बताता है कि नीयत और नीतियां बदलने की मंशा नहीं हो तो सिर्फ नेता बदलने से कांग्रेस को कभी लाभ मिला ही नहीं है। हां, पर बलि का कोई बकरा खोजना ही है तो वे खोज रहे हैं। ऐसे अवसरों पर हर बार खोजा जाता रहा है तो इस बार भी खोजा जा रहा है। चीन के हाथों भारत की पराजय के लिए तत्कालीन रक्षा मंत्री वी.के. कृष्ण मेनन को बलि का बकरा बनाया गया था।

  यह सब ऐसे देश में हो रहा है जहां 2004 से ही पद किसी और के पास है तो पावर किसी अन्य नेता के पास।
  पूरा पावर अपने पास रखने वाले संविधानेत्तर केंद्र की कमियों की चर्चा तो मणि जी करेंगे नहीं, इसलिए वे पद रखने वाले पर लाल-पीले हो रहे हैं। सवाल यह है कि मनमोहन सिंह ने अब तक कौन सा बड़ा फैसला सोनिया गांधी और राहुल गांधी की इच्छा के खिलाफ जाकर किया है? बल्कि चर्चा तो यही है कि उन्होंने यथा प्रस्तावित ही काम किया है। प्रस्ताव किसका होता है, यह सब जानते हैं।

  यहां तक कि हाल में राहुल गांधी ने जब एक अध्यादेश को सार्वजनिक रूप से बकवास बताया तो मनमोहन सिंह ने सर्वदलीय बैठक और पूरे केंद्रीय कैबिनेट के फैसले तक को ताक पर रखकर उसे वापस कर लिया। यह और बात है कि सुप्रीम कोर्ट व राष्ट्रपति के रुख को भांप कर ही राहुल गांधी ने वह कदम उठाया था।
उससे लगा था कि उससे उन्हें चुनावी लाभ मिलेगा, पर मिला नहीं। क्योंकि हकीकत लोग जानते हैं।

   लगता है कि कांग्रेस के प्रथम परिवार के करीबी मणिशंकर अयर एक नया कामराज योजना लागू करना चाहते हैं। उन्होंने कहा है कि 2009 में मनमोहन सिंह को दोबारा प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय गलत था। यानी वे यह कहना चाहते हैं कि मनमोहन के कारण ही कांग्रेस की शर्मनाक हार हुई है। ऐसा कहकर वे मनमोहन को हटवाना चाहते हैंं। यानी वे एक बार फिर मिनी कामराज योजना लागू करना चाहते हैं।

   मणि शंकर अयर संभवतः छात्र रहे होंगे जब उन्हीं के प्रदेश के एक प्रमुख कांग्रेसी नेता के. कामराज ने कांग्रेस हाईकमान को एक सुझाव दिया था। वह कामराज योजना के नाम से जाना गया। तब कामराज योजना लागू की गई थी।
 
हार के बाद लागू हुई थी कामराज योजना

 जवाहर लाल नेहरु के प्रधानमंत्रित्व काल में चीन के हाथों भारत की शर्मनाक पराजय और दूसरी सरकारी विफलताओं की पृष्ठभूमि में कामराज योजना लागू की गई थी। उन दिनों लगातार कई लोकसभा उपचुनाव कांग्रेस हार रही थी।

  कहा गया कि कांग्रेस संगठन की कमजोरी के कारण हार हो रही है। तय हुआ था कि कांग्रेस के कुछ बड़े नेता केंद्रीय मंत्री पद और मुख्यमंत्री पद छोड़कर संगठन के काम में लगें। नतीजतन करीब आधा दर्जन केंद्रीय मंत्री और आधा दर्जन मुख्यमंत्री 1963 में अपने पदों से हटा दिये गये।

  पर 1967 के आम चुनाव में इसका क्या नतीजा हुआ? कामराज योजना के नाम पर  जिन राज्यों के मुख्यमंत्री हटाये गये थे, उन राज्यों में भी कांगे्रस चुनाव हार गई और सत्ता से हटा दी गई। वहां गैर कांग्रेसी सरकार बन गई। लोकसभा में भी कांग्रेस का बहुमत पहले की अपेक्षा काफी कम हो गया। क्योंकि सिर्फ नेता हटे थे, जनपक्षी नीतियां नहीं बनी थीं। नीयत भी पहले ही जैसी ही थी। इसलिए कामराज योजना का कोई लाभ नहीं हुआ? आज भी क्या कांग्रेस और केंद्र सरकार अपनी नीतियां और नीयत बदलने को तैयार है ?

     इतना ही नहीं, 1980 से 1990 के बीच कांग्रेस हाईकमान ने बिहार में पांच  मुख्यमंत्री बदले। इसके बावजूद छठे मुख्यमंत्री भी 1990 के बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता में नहीं ला सके।

ऐसे कई अन्य उदाहरण भी हैं। इसके बावजूद मणि शंकर अयर जैसे नेता समझते  हैं कि कांग्रेस की चुनावी विफलता के लिए सिर्फ मनमोहन सिंह जिम्मेदार हैं।

लगातार बलि का बकरा खोजते रहने वाले दल में मणि शंकर अयर ऐसे अकेले नेता नहीं होंगे। अंतर यही है कि मणि शंकर स्पष्टवादी व बड़बोले नेता हैं और दूसरे ऐसा नहीं हैं।

‘परिवार’ को सिर्फ सफलता का श्रेय

  जिस दल में प्रथम परिवार में किसी तरह गलती ढूंढ़ना ईशनिंदा मानी जाती हो, वहां यही होना है। वहां तो उस परिवार को सिर्फ किसी सफलता के लिए श्रेय देने की परंपरा है।

   वैसे कांग्रेस से नाराज मतदाता यह अच्छी तरह जानते हैं कि भ्रष्टाचार और महंगाई के लिए कोई जिम्मेदार है तो वही है जिसके हाथों में केंद्र सरकार का पावर है। जिसके पास राजनीतिक कार्यपालिका का सर्वोच्च पद है, वह आदेश का पालन करने वाला भर है।

 महंगाई का भी मूल कारण सरकारी भ्रष्टाचार ही है। अन्यथा क्या कारण है कि जब  केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार बनती है कि महंगाई अरिथमेटिकल प्रोग्रेशन यानी अंकगणतीय गति से बढ़ती है और जब कांग्रेस की सरकार होती है तो ज्योमेट्रिकल प्रोग्रेशन यानी ज्यामितीय गति से ? भ्रष्टाचार गैर कांग्रेसी सरकारों में भी होता रहा है, पर कांग्रेसी सरकार की अपेक्षा कम।

मुख्यतः महंगाई व भ्रष्टाचार के मुद्दों पर कांग्रेस सरकार की विफलता के कारण मतदाता कांग्रेस से विमुख हो रहे हैं।

पर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह का अब तक क्या रुख रहा है?

  यही रुख रहा कि भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वालों पर कार्रवाई करो और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए कुछ नहीं करो। अशोक खेमका प्रकरण इसका एक उदाहरण है। हाल के वर्षों में बड़े भ्रष्टाचारों के मामलों में भी तभी कोई कार्रवाई हुई जब सी.ए.जी. ने रपट दी और अदालत ने जांच का आदेश दिया। कोयला घोटाला हो या टू जी स्पैक्ट्रम घोटाला। इसके अलावा भी इस बीच कई बातें हुईंं हैं। सब कुछ सोनिया गांधी और राहुल गांधी की जानकारी में हुआ। ताजा चुनाव रिजल्ट आने से पहले तक कांग्रेस के प्रवक्तागण भी यह कहते रहे हैं कि किसी मुद्दे पर सोनिया जी-राहुल जी और मनमोहन सिंह में कोई मतभेद नहीं है। फिर अचानक बलि के बकरे की तलाश व पहचान क्यों ?

मनमोहन सिंह एक बेचारे प्रधानमंत्री

 देश के अधिकतर लोग यह जानते हैं कि मनमोहन सिंह एक बेचारे प्रधानमंत्री की तरह आदेशानुसार ही काम करते रहे हैं।

मतदाताओं ने इसे समझा और उसके अनुसार हाल के चुनाव में मतदान किया। लोकसभा चुनाव में भी यही होगा, इसके संकेत साफ है। इसलिए यह कहा जा रहा है कि नेता बदलने के बदले नीयत और नीति बदलने से ही कांग्रेस आशंकित पराजय से बच सकती है। या फिर पराजय का प्रभाव कम हो सकता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी पार्टी का जो रुख सामने आया है, वह इस देश की राजनीति के लिए कसौटी बन गई है। अन्य पार्टियों को जनता उसी कसौटी पर कसेगी, इसके भी संकेत साफ हैं।
( 13 दिसंबर, 2013 के जनसत्ता में प्रकाशित)


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