रविवार, 29 दिसंबर 2013

‘आप’ के सामने सरकार से अधिक साख बचाने की चुनौती


अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली में गठित आम आदमी पार्टी की सरकार ने अच्छी शुरुआत कर दी है।
उसने जल्द ही कई ठोस जनहितकारी कदम उठाने का आश्वासन भी आम लोगों को दिया है। पर इस सरकार की सफलता को लेकर कुछ हलकों में अपशकुन भी किये जा रहे हैं। दरअसल कई लोगों को यह लग रहा है कि ‘आप’ प्रयोग अंततः विफल हो जाएगा। क्योंकि ‘आप’ के नेतागण राजनीति व प्रशासन से भ्रष्टाचार का खात्मा कर देना चाहते हैं। अपशकुन करने वाले वही लोग हैं जो यह मान बैठे हैं कि इस देश में भ्रष्टाचार तो राजनीति व प्रशासन की गाड़ी को चलाने के लिए मोबिल का काम करते हैं और मोबिल के बिना गाड़ी चल ही नहीं सकती। फिर ‘आप’ की गाड़ी भला कैसे चल पाएगी !

  इसके साथ ही यह भी आशंका जाहिर की जा रही है कि कुछ विध्वंसक तत्व को ‘आप’ की सरकार को बदनाम व विफल करने के प्रयास में लग गये होंगे। इस पृष्ठभूमि में आम आदमी पार्टी के सामने अब अपनी सरकार से अधिक अपनी साख बचाये रखने की सबसे बड़ी चुनौती होगी।

राजनीतिक प्रेक्षक बताते हैं कि यदि ‘आप’ की साख बची नहीं रही तो देश का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन एक बार फिर दशकों पीछे चला जाएगा। इसके विपरीत यदि दिल्ली की आप सरकार ने अपने बेहतर कामों के जरिए अपनी साख बढ़ाई तो उसे पूरे देश में फैल जाने से कोई रोक नहीं सकता। क्योंकि पूरा देश आज राजनीति व प्रशासन में फैले भीषण भ्रष्टाचार से ऊब गया है।

  आप के एक विधायक विनोद कुमार बिन्नी के सामने नहीं झुक कर ‘आप’ ने अच्छे संकेत दिये हैं। पर उसे आगे भी और अधिक सावधान रहने की जरुरत पड़ेगी। याद रहे कि बिन्नी मंत्री पद नहीं मिलने के कारण सख्त खफा थे और वे विद्रोह की मुद्रा में थे।

इस पर आप ने साफ साफ कह दिया कि उसके दल में सत्तालोलुपों के लिए कोई जगह नहीं है। नतीजतन बिन्नी शांत हो गये। पर ‘आप’ के सामने यह तो एक छोटी समस्या थी। समस्याएं और भी हैं। कठिन चुनौतियां सामने हैं। क्योंकि ‘आप’ के सत्तारोहन की आहट पर ही इस देश के भ्रष्ट सरकारी व गैर सरकारी लोग डरे हुए हैं। वे आप की साख खराब करने के लिए कोई भी षड्यंत्र कर सकते हैं। दूसरी ओर स्टिंग आॅपरेशन का खतरा भी सामने है। कुछ ‘आप’ नेताओं की यह आशंका सही है कि कांग्रेस का समर्थन केवल केजरीवाल को कुर्सी पर बिठाने तक है। उसके बाद वह चाहेगी कि केजरीवाल विफल हों ताकि भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन देश में जड़ नहीं पकड़ सके। कुछ अन्य दल भी ‘आप’ को सफल देखना नहीं चाहेंगे।

इससे पहले कांग्रेस पार्टी ने समय समय पर चैधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा और गुजराल के साथ यही किया। पर इस जाल से निकलने की जिम्मेदारी खुद आप नेताओं की ही है। उन्हें अपने चाल, चरित्र और चेहरे को बचाये रखना होगा। अन्यथा इस देश का भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन एक बार फिर काफी पीछे चला जाएगा।
 इसके पहले के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों के साथ इस देश में यही हुआ। 1966-67 का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन विफल होने पर दोबारा उसे शुरू करने में सात साल लग गये थे। इस बीच सरकारी -गैर सरकारी भ्रष्टाचार बढ़ता गया। तानाशाही भी बढ़ी। यानी 1973 में ही गुजरात और 1974 में बिहार में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू हो सका।

  1966-67 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रमुख नेता डा.राम मनोहर लोहिया थे। उन्होंने जनसंघ और भाकपा सहित कई प्रतिपक्षी दलों को एक मंच पर लाया था। सन 1974 के आंदोलन के नेता जय प्रकाश नारायण थे। याद रहे कि गुजरात और बिहार आंदोलन छात्रों -युवकों ने शुरू किया था न कि राजनीतिक दलों ने। क्योंकि लोगों को उन गैर कांग्रेसी नेताओं पर भरोसा नहीं रह गया था जिन्होंने 1967 और 1972 के बीच देश के कई राज्यों में सत्तारुढ़ होकर अपनी सत्तालोलुपता दिखा दी थी।

  1974 के आंदोलन व उसके कारण बनी सरकारों ने जब पदलोलुपता दिखाई तो कोई नया आंदोलन शुरू होने में 13 साल लग गये। यानी वी.पी.सिंह का बोफर्स घोटाला विरोधी अभियान 1987 में ही शुरू हो सका। पर उस आंदोलन से उपजी सरकारें भी जनता की उम्मीदों पर खड़ी नहीं उतर सकी तो 2011 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में जनलोकपाल विधेयक के लिए आंदोलन शुरू हो सका।

  यानी पहला आंदोलन विफल होने पर दूसरा शुरू करने मेंे सात साल लगे। दूसरा विफल होने पर तीसरा शुरू होने में 12 साल लग गये। तीसरा विफल होने पर चैथा शुरू करने में 20 साल लगे। अब यदि यह भी विफल हो जाएगा तो कल्पना कीजिए कि अगला आंदोलन शुरू होने में कितने साल लग जाएंगे ?
इस बीच इस गरीब देश की हालत और कितनी बुरी हो चुकी होगी। साथ ही परंपरागत राजनीति तब तक और कितनी गर्हित हो चुकी होगी !

   यदि डा.राम मनोहर लोहिया को थोड़ा लंबा जीवन मिला होता तो शायद 1967 के आंदोलन और उससे निकली सरकार को वे भरसक विफल नहीं होने देते। जय प्रकाश नारायण का स्वास्थ्य ठीक रहता तो वे जनता प्रयोग को सफल करने का प्रयास करते। अन्यथा वे फिर जनता के बीच जाते।

यदि भाजपा ने मंडल आरक्षण के खिलाफ मंदिर का बहाना बनाकर वी.पी.सिंह को सरकार को गिराया नहीं होता तो इस देश के भ्रष्टाचारियों का एक हद तक इलाज वी.पी. सिंह की सरकार कर चुकी होती। और उससे यह होता कि राजनीति के प्रति लोगों इतना मोहभंग नहीं हेाता जितना आज हो चुका है।

  आप विधायक विनोद कुमार बिन्नी के आगे नहीं झुक आम आदमी पार्टी ने अच्छा संकेत दिया है। पर आप को 1967 के डा.राम मनोहर लोहिया के कुछ कदमों को भी याद रखना होगा।

  1967 के चुनाव के बाद सात राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बन गई थीं। अन्य दो राज्यों में कांग्रेसी नेताओं के दलबदल के कारण गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं। इन सरकारों को डा.लोहिया ने सलाह दी थी कि वे छह महीने के भीतर जनहित में कुछ ऐसे बड़े फैसले कर दें ताकि लोग यह समझ जायें कि ये सरकारें कांग्रेसी सरकारों से काफी अलग ढंग की सरकारें हैंे। ऐसा नहीं होने पर कांग्रेस फिर सत्ता में आ जाएगी।

   डा.लोहिया के अनुसार कुछ फैसले तो उन राज्य सरकारों को सत्ता में आने के कुछ ही हफ्तों के भीतर ही करने थे। बिहार पर डा.लोहिया की सबसे अधिक नजर थी क्योंकि आनुपातिक दृष्टि में लोहियावादियों की बिहार में अन्य राज्यों की अपेक्षा सबसे बड़ी चुनावी जीत हुई थी।

 बिहार में गैरकांग्रेसी सरकार ने जब डा.लोहिया के निदेश को नजरअंदाज किया तो लोहिया ने अपने दल के एक बड़े बिहारी नेता से मिलने से भी इनकार कर दिया था।  इस पर उस नेता जी को होश आये। उन्होंने कुछ सरकारी काम तो किये। पर पूरे काम नहीं हो सके।

 1967 में बिहार में ही बी.पी. मंडल को, जो बाद में मंडल आयोग के अध्यक्ष बने थे, मंत्री बना दिया गया था जबकि वे 1967 के लोकसभा चुनाव में संसोपा के टिकट पर मधेपुरा से सांसद चुने गये थे। उन्हें मंत्री बनाने से पहले डा.लोहिया की राय नहीं ली गई थी। डा.लोहिया मानते थे कि जो जहां के लिए चुना जाए , वह उसी सदन का काम करे। डा.लोहिया को जब पता चला तो उन्होंने निदेश दिया कि बी.पी.मंडल मंत्री पद से इस्तीफा देकर लोकसभा के सदस्य के रूप में काम करें। पर मंडल ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया। मंडल कांग्रेस से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए थे।

  बिहार के कुछ संसोपा नेताओं ने डा.लोहिया को समझाने की कोशिश की कि मंडल को मंत्री पद छोड़ने के लिए मजबूर कीजिएगा तो वे सरकार गिरा देंगे। लोहिया ने कहा कि भले वे सरकार गिरा दें पर उनके लिए पार्टी की नीति नहीं बदली जाएगी। मंडल ने आखिरकार सरकार गिरा ही दी।

  सन 1968 में वे खुद मुख्यमंत्री बन गये। इससे संसोपा की साख घटी। हालांकि उससे पहले डा.लोहिया का अक्तूबर, 1967 में असामयिक निधन हो चुका था। यदि दिल्ली की आम आदमी पार्टी अपनी सरकार की चिंता किये बिना ऐसे ही  नीतिपरक रुख कायम रखे तो वह भविष्य में भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की अगुआ बनी रह सकती है।

अन्यथा इस देश के घाघ भ्रष्टाचारी गण एक बार फिर सांड़ की तरह जनता के खेत चरने लगेंगे।


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