मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

‘आप’ की कमीज ज्यादा सफेद

आम आदमी पार्टी की सरकार सफल हो पाएगी या नहीं? चूंकि इसे कांग्रेस के समर्थन से चलना है, इसलिए इसकी सफलता व स्थायित्व को लेकर तरह -तरह के अपशकुन हो रहे हैं।

   याद रहे कि ऐसे मामलों में कांग्रेस का रिकाॅर्ड बहुत खराब है। वह अधिक दिनों तक किसी सरकार का समर्थन नहीं किया करती।

चरण सिंह, चंद्रशेखर, एच.डी. देवगौड़ा और आइ.के. गुजराल की सरकारों से कांग्रेस ने अकारण समर्थन वापस ले लिया था। दूसरी बात यह भी है कि जितने बड़े- बड़े वायदे ‘आप’ ने दिल्ली की जनता से किये हैं, उन्हें पूरा करने में भी काफी दिक्कतें आने की आशंका जाहिर की जा रही है। ऐसी आशंका खुद ‘आप’ नेतागण भी जाहिर कर रहे हैं। उन्हें पूरा करने के क्रम में ‘आप’ का कांग्रेस से टकराव हो सकता है।

   इसलिए इसकी सफलता को लेकर तरह -तरह के विचार सामने आ रहे हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि ‘आप’ की सरकार सफल नहीं होगी। खुद प्रशांत भूषण ने भी ‘आप’ सरकार के स्थायित्व पर सवाल खड़ा किया है। लेकिन कुछ अन्य लोग कह रहे हैं कि ‘आप’ सरकार भले अधिक दिनों तक नहीं चले, पर वह सफल जरूर होगी, क्योंकि ‘आप’ के नेताओं की ईमानदारी व कर्मठता उनकी सफलता की सबसे बड़ी गारंटी है।
 
खुद अरविंद केजरीवाल सहित आम आदमी पार्टी के कुछ नेता आम तौर पर यह कहते हुए सुने जा रहे हैं कि ‘लोगांंे की उम्मीदें बहुत ज्यादा हैं और हमें कभी-कभी डर लगता है कि सत्ता में जाने के बाद हम सफल होंगे या नहीं।’

   अब तक के संकेतों के अनुसार अरविंद केजरीवाल की आशंका निराधार लगती है। दरअसल इस देश का राजनीतिक इतिहास बताता है कि आम जनता उस राजनीतिक जमात का तहे दिल से स्वागत करने को तैयार बैठी रहती है जो सिर्फ यह साबित कर दे कि उसने ईमानदारी से जनता की सेवा करने की कोशिश की। उस कोशिश में अंततः उसे कितनी सफलता मिलती है, जनता के लिए वह अधिक महत्वपूर्ण बात नहीं है। हालांकि बाधाओं के बावजूद ईमानदार कोशिश काफी हद तक सफल होती ही रही है। यदि नेतागण सत्ता में आने के बाद खुद को ईमानदार बनाये रखें तो उनकी थोड़ी बहुत प्रशासनिक विफलताओं को भी आम लोग नजरअंदाज कर देते हैं।

  ‘आप’ के नेताओं से तो सत्ता में आने के बावजूद ऐसी व्यक्तिगत ईमानदारी बरतने की उम्मीद की ही जा सकती है। अरविंद केजरीवाल ने जेड प्लस सुरक्षा व बंगला ठुकरा कर इसकी शुरुआत भी कर दी है।

   अच्छी मंशा वाली सरकार के कुछ उदाहरण देश में समय -समय पर सामने आये हैं। लोगों ने ऐसी सरकारों की सराहना भी की है। अब भी कुछ लोग करते हैं।

बंगाल की 1977 में बनी वाम मोर्चा की सरकार और बिहार में 1967 में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में बनी ऐसी ही गैरकांग्रेसी सरकार के अच्छे कामों की आज भी लोगबाग चर्चा करते हैं।

 इस तरह के कुछ अन्य उदाहरण भी इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों ने देखे हंै। उन दलों को सिर्फ अपनी अच्छी मंशा साबित करके जनता की वाहवाही लूटने का अवसर मिल चुका है। उन दलों में से अधिकतर की अपेक्षा आम आदमी पार्टी का अब तक का रिकार्ड बेहतर है। आगे सत्ता में आकर ‘आप’ को जनहित में और कुछ ठोस करने का अवसर मिल सकता है। दिल्ली में कुछ अच्छा हुआ तो पूरे देश में इस दल की सुगंध फैलेगी।

   इसलिए अरविंद केजरीवाल की इस आशंका के विपरीत आम आदमी पार्टी के लिए जितना अधिक सफल होने की आज गुंजाइश बन गई है, इस देश में किसी अन्य दल के लिए इससे पहले कभी नहीं थी। क्योंकि राजनीति इतनी अधिक पहले गिरी हुई भी नहीं थी। काले कपड़ों के बीच सफेद कपड़ा और भी अधिक सफेद लगता है। साथ ही ‘आप’ जैसी एक अपेक्षाकृत साफ -सुथरी पार्टी बहुत वर्षों के बाद लोगों के सामने नजर आई है।

पर आम आदमी पार्टी की सफलता की कुछ शर्तें भी हैं। कुछ शर्तें तो खुद आम आदमी पार्टी पहले से ही पूरी करती है।

‘आप’ ने अपने गठन के साथ ही अपनी शुरुआत जिस पारदर्शिता से की, उससे उसकी साख जम गई है। काफी हद तक दिल्ली में और कुछ- कुछ देश के बाकी हिस्सों में भी।

  राजनीति के इस कलियुग में ‘आप’ जैसी ईमानदार व बेहतर मंशा वाली पार्टी के लिए सफल होना आज जितना आसान है, उतना पहले कभी नहीं था।

   क्या यह झूठ है कि आज के लोकतंत्र के अधिकतर ‘राजा’ ऐयाशीपूर्ण जीवन बिता रहे हैं और इस गरीब देश की जनता से वसूले गये टैक्स के पैसे लूट कर खुद को अमीर बना रहे हैं ? साथ ही वे अपने परिजन को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी भी बना रहे हैं। पहली नजर में आम आदमी पार्टी उन दलों से साफ अलग दिखाई पड़ती है।

  आम आदमी पार्टी के अब तक के चाल, चरित्र व चेहरे को देख कर लगता है कि वह दिल्ली की सत्ता में आने पर थोड़े ही दिनों में अपने बेहतर कामों के जरिए वैसे दलों को वह और भी अधिक बेनकाब कर देगी। लोगों को मालूम हो जाएगा कि इसी व्यवस्था में भी सत्ता में आकर जनता की बेहतर सेवा की जा सकती है। याद रहे कि यदि कोई मुख्यमंत्री और उसके मंत्रिमंडल के सदस्य ईमानदारी से सरकार चलाना शुरु कर दें तो उसका संदेश अफसरों को भी मिल जाता है। अफसरों में भी कम ही लोग बेईमानी करते रहने की जिदद करना चाहेंगे, यदि वे जान जाएं कि राजनीतिक कार्यपालिका का उद्देश्य रिश्वतखोरी और कमीशनखोरी नहीं है।

  हालांकि इसके विपरीत दिल्ली कांग्रेस के एक प्रमुख नेता ने हाल में कहा कि ‘आप’ की पोल खोलने के लिए ही उसे सरकार बनाने के लिए कांग्रेस समर्थन दे रही है।

   इस देश के अन्य अनेक दलों की तरह कांग्रेस के उस नेता की भी सोच यही है कि भ्रष्टाचार व समझौते के बिना सत्ता की राजनीति आज चल ही नहीं सकती। उनका मानना है कि ‘आप’ को भी सत्ता में आने के बाद वही सब करना पड़ेगा जो सब गलत काम और समझौते अन्य दल कर रहे हैं।

 कांग्रेसी नेता के अनुसार ‘आप’ की सरकार को भी देर- सवेर उन्हीं धंधांे में लग जाना पड़ेगा। इससे उसकी ईमानदारी व पारदर्शिता की पोल खुल जाएगी और कांग्रेस की तरह ही वह एक दूसरी पार्टी बन जाएगी।

  पर  ‘आप’ के अब तक के काम ऐसे संकेत नहीं दे रहे हैं।

‘आप’ ने कहा है कि यदि वे सरकार में आए तो वे बड़े सरकारी बंगलों में नहीं रहेंगे। साथ ही, सुरक्षा घेरों में नहीं रहेंगे। वे कई और भी बेहतर कामों के लिए हौसला बांध रहे हैं।ऐसे कदमों का आम जनता पर बड़ा सकरात्मक असर पड़ता हे।इससे किसी दल को लोकप्रिय होने में काफी मदद मिलती है।

पर, ‘आप’ को इसके साथ यह भी कहना चाहिए कि वे विधायकों व मंत्रियों के वेतन कम करेंगे। इसी देश में आखिर ऐसा क्यों है कि एक राज्य के मुख्यमंत्री का काम आठ-नौ हजार रुपये मासिक में चल जाता है तो दूसरे राज्य के मुख्यमंत्री के लिए एक लाख रुपये भी कम पड़ते हैं ? विभिन्न राज्यों के विधायकों की तनख्वाह और सुविधाओं में भी भारी अंतर है जबकि देश के विभिन्न हिस्सों की महंगाई में कोई खास अंतर नहीं है।

  यदि सत्ता में आने के बाद ‘आप’ की सरकार  सचमुच दिल्ली में बिजली-पानी की व्यवस्था ठीक कर पाई तो वह दिल्लीवासियों के दिल तत्काल जीत लेगी। उसने कहा है कि वह साढ़े सात सौ लीटर पानी मुफ्त देगी। यदि इतना नहीं दे सके, साढ़े तीन सौ लीटर भी दे दे तो आम आदमी पार्टी को और भी लोकप्रिय होने से भला कौन रोक सकता है ?

पूरे देश पर भी उस कदम का ‘आप’ के पक्ष में अनुकूल असर पड़ेगा ।

 किसी राज्य में यदि मंत्रिमंडल खासकर मुख्यमंत्री की मंशा साफ, पारदर्शी व ईमानदार हो तो अधिकतर ईमानदार सरकारी अफसर भी उसे सहयोग देते हैं। अच्छी मंशा के साथ बिहार में नीतीश कुमार सन 2005 में सत्ता मंे आये थे।उन्होंने एक ऐसी ब्यूरोक्रेसी से बेहतर काम करा कर दिखा दिया जिसकी उसके पहले के पंद्रह साल तक काम करने की आदत ही छूट गई थी। क्योंकि लालू -राबड़ी सरकार की घोषित नीति थी कि विकास से नहीं बल्कि जातीय समीकरण से वोट मिलते हैं।

  ऐसा करके नीतीश कुमार ने राज्य की जनता को खुश कर दिया। नतीजतन उन्होंनंे दो बड़े चुनाव जीत लिये। एक चुनाव 2009 में लोकसभा के हुए जिसमें राज्य में 40 में से 32 सीटें राजग को मिली। दूसरा चुनाव 2010 में बिहार विधान सभा का हुआ जिसमें 243 में से 206 सीटें राजग को मिली। इस भारी समर्थन के बल पर नीतीश कुमार की सरकार ने कई अच्छे काम किये और देश-दुनिया में नाम कमाया।

   भाजपा से संबंध टूटने के बाद नीतीश कुमार की सरकार व राजनीति अब जरूर थोड़ी कमजोर हुई है, पर खुद नीतीश कुमार की मंशा पर अब भी कोई शक नहीं कर रहा है। हालांकि उनके मंत्रिमंडल व उनकी ब्यूरोक्रेसी के बारे में भी ऐसी ही बातें नहीं कही जा सकती है।

 यदि नीतीश कुमार के दल जदयू के पास ईमानदार राजनीतिक नेताओं व कार्यकर्ताओं की फौज होती तो नीतीश की सरकार  और भी बेहतर काम कर सकती थी। अन्य दलों की तरह उस दल में भी ईमानदार कार्यकर्ताआंे की भारी कमी है।

पर ‘आप’ इस मामले में बेहतर स्थिति में है। उसके पास ईमानदार व उत्साही नेताओं व कार्यकर्ताओं की फौज है जो ‘आप’ सरकार को बाहर से मदद कर सकती है। उसके अच्छे नतीजे सामने आ सकते हैं।

  याद रहे कि बिहार में सरकारी भ्रष्टाचार से दुःखी नीतीश कुमार ने अपने दल के कार्यकर्ताओं से बार -बार अपील की थी कि वे राज्य सरकार के रिश्वतखोर अफसरों को निगरानी ब्यूरो से गिरफ्तार करवाएंगे तो उन्हें इनाम दिये जाएंगे। पर कोई कार्यकर्ता इस काम के लिए सामने भी  आया, ऐसी खबर नहीं मिली। ‘आप’ इस मामले मंें सौभाग्यशाली संगठन है।

इसलिए सरकार बना कर वह पार्टी व सरकार विफल होगी, ऐसी आशंका काफी कम है। जो जिस पार्टी की सरकार उसूलों के लिए सत्ता से किसी भी क्षण अलग होने के लिए तैयार रहती है,वह पार्टी कभी अलोकप्रिय नहीं हो सकती। संकेत बता रहे हैं कि ‘आप’ के नेता सत्ता में आने के बाद किसी भी क्षण जनहित में गददी छोड़ने के लिए तैयार मिलेंगे। इसलिए उन्हें इस बात को लेकर डरने की कोई जरुरत ही नहीं है कि वे सफल होंगे या नहीं।

(इस लेख का संपादित अंश हिंदी पाक्षिक पत्रिका ‘द पब्लिक एजेंडा’ के 31 जनवरी 2014 के अंक में प्रकाशित)




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