दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि जन लोकपाल बिल पास नहीं हुआ तो वे अपने पद से इस्तीफा दे देंगे। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार यदि सचमुच उन्होंने इस्तीफा दे दिया तो देश में आम आदमी पार्टी की साख बढ़ सकती है।
दरअसल इस देश में अब तक समय-समय पर जिन-जिन नेताओं ने भ्रष्टाचार के सवाल पर लड़ते हुए पदत्याग किया या प्रताड़ना सही, उन्हें इस देश की अधिकतर जनता ने हाथों -हाथ लिया। ताजा इतिहास बताता है कि उनका जनसमर्थन समय के साथ बढ़ा ही था।
हाल के दिनों में ‘आप’ के नेताओं के कतिपय अशालीन बयानों व व्यवहार से कुछ लोगों को निराशा हुई है, उन्हें तो केजरीवाल के इस्तीफे से संतोष ही मिलेगा। दूसरी ओर जिन्हें ‘आप’ के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से अपने निहितस्वार्थों को नुकसान पहुंचता नजर आ रहा है, उन्हें राहत मिलेगी। पर जो लोग एक कारगर जन लोकपाल कानून के पक्षधर हैं, उन्हें एक बार फिर सड़कों जाना होगा। या फिर उन्हें ‘आप’ के अभियान को एक बार फिर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मदद करनी होगी।
‘आप’ के अभियान में चुनाव व आंदोलन दोनों शामिल हैं। हालांकि अभी तो लोकसभा चुनाव सामने होगा। अधिकतर लोग उसमें प्रत्यक्ष, परोक्ष या मानसिक रुप से व्यस्त रहेंगे।
दरअसल दिल्ली प्रदेश की सत्ता मेें आने के बाद ‘आप’ के कुछ नेताओं ने अपने आचरण से ऐसा प्रदशर््िात किया मानो कोई शिशु अपने शैशवास्था में चलने की कोशिश करते समय लड़खड़ा रहा है। लगा कि उन्हें सरकार या राजनीति चलाने के लिए अभी कुछ और जरूरी बातें सीखनी हंै। उन्हें विधिवत प्रशिक्षण की जरूरत है।
हालांकि अबोध शिशु की तरह लड़खड़ाने के बावजूद ‘आप’ के नेताओं की मंशा पर वैसे लोगों को कभी कोई शंका नहीं हुई जो लोग किसी भी कीमत पर इस देश के शासन में फैले भीषण भ्रष्टाचार की समाप्ति चाहते हैं। और, इस काम के लिए अब भी वे ‘आप’ की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि उम्मीद की कोई बेहतर किरण उन्हें नजर भी नहीं आ रही है।
, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में ‘आप’ की प्रतिबद्धता का ही नतीजा है कि अरविंद मुख्यमंत्री की गद्दी की अपेक्षा आज भी जन लोकपाल व स्वराज विधेयक को अधिक महत्व दे रहे है। इस देश में अब तक कितने नेता ऐसे हुए हैं जो गद्दी मिल जाने के बावजूद अपने मुद्दों के लिए कभी भी गद्दी छोड़ने को तैयार रहते हैं ?
एक ऐसे देश में जहां के अधिकतर नेतागण गद्दी पर बने रहने या फिर गद्दी तक पहुंचने के लिए रोज- ब-रोज भ्रष्टाचार और भ्रष्ट लोगों से घृणित समझौते कर रहे हंै, उस देश में अरविंद की ताजा भीष्म प्रतिज्ञा अनेक लोगों को अच्छी लग रही है।
क्या वे अपनी इस प्रतिज्ञा पर कायम रह सकेंगे ? इस देश के अच्छी मंशा वाले लोग चाहते हैं कि वे अपनी प्रतिज्ञा पर कायम रहें। यदि कायम रहे तो ‘आप’ को पूरे देश में देर- सवेर जमने और अपने जनहितकारी एजेंडे के साथ अधिकाधिक लोगों को जोड़ने में सुविधा होगी।
अरविंद केजरीवाल जन लोकपाल के साथ -साथ अपने स्वराज विधेयक पर भी उतना ही जोर दे रहे हैं। पर स्वराज बिल के स्वरूप व महत्व को अभी देश के आम लोगों के बीच समझाना बाकी है।
कुछ प्रेक्षकों के अनुसार उसमें कई अव्यावहारिक बातें भी हैं। जो उन्हें अव्यावहारिक नहीं भी मानते, वे भी स्वराज विधेयक को अभी विराम देने की सलाह देते हैं।
पर, जन लोकपाल विधेयक के प्रावधानों के बारे में तो अधिकतर लोगों की मोटा -मोटी समझदारी बन चुकी है। वे भी उन्हें जरुरी मानते हैं। लोगों के अनुसार जन लोकपाल विधेयक का मतलब है एक ऐसा सख्त व स्वतंत्र लोकपाल कानून जिसकी पकड़ में आ जाने के बाद बड़े से बड़ा भ्रष्टाचारी कानून की गिरफ्त से बच नहीं सकेगा।
हाल में संसद ने जो लोकपाल विधेयक पास किया है, उसे कतई कारगर नहीं माना जा रहा है। यदि कारगर होता तो मुख्य धारा की राजनीति उसके लिए राजी ही नहीं होती।
यदि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल के पास जन लोकपाल जैसा कोई कानून नहीं होगा तो वे मुख्यमंत्री के रुप में अपनी कारगर भूमिका ही नहीं निभा पाएंगे। यदि नहीं निभा पाएंगे तो धीरे-धीरे उनकी पार्टी की
लोकप्रियता भी समाप्त होती चली जाएगी। नतीजतन राष्ट्रीय पैेमाने पर फैलने का ‘आप’ का सपना भी सपना ही बना रह जाएगा।
दिल्ली की गददी के अनुभव के बाद ‘आप’ को भी लग रहा है कि राज्यों की सरकारें ठीक से नहीं चलाई जा सकती हैं, यदि केंद्र की सरकार से समय -समय पर मदद नहीं मिले। केंद्र में तभी अच्छी सरकार बनाई जा सकती है जब संसद में अधिक से अधिक ईमानदार लोग चुन कर जाएं।
यह भी तभी हो सकेगा जब ‘आप’ जैसी पार्टी का लोकसभा चुनाव में भी वैसा ही कारगर हस्तक्षेप हो जैसा दिल्ली विधानसभा में हुआ है। आप का अभियान जारी रहा तो 2014 के चुनाव में यदि नहीं तो 2019 तक लोकसभा की सूरत बदल सकती है।
आज केजरीवाल के जन लोकपाल विधेयक का किसी न किसी बहाने कांग्रेस व भाजपा जितना अधिक विरोध कर रही हैं, वैसी स्थिति में उसके दिल्ली विधानसभा से पास होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है।
कोई भला क्यों अपने ही प्रयास से रस्सी खरीद कर उसे अपने ही गले में फांसी के रूप में पहन लेगा ?
पूरा देश देख रहा है कि ‘आप’ के जन लोक पाल विधेयक का प्रारुप उत्तराखंड के उस लोकपाल विधेयक से ठीक मिलता जुलता है जिसे उत्तराखंड में भाजपा की बी.सी. खंडुरी सरकार ने ही टीम अन्ना की सलाह पर पास कराया था। उस लोकपाल विधेयक को नवंबर 2011 में उत्तराखंड विधानसभा से पास कराया गया था।
उस विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति भी मिल गई थी। यह और बात है कि बाद की बहुगुणा सरकार ने उसे बदल दिया।
राजनीति का दोहरापन देखिए। भाजपा ने तब खंडुरी के उस विधेयक का तो विरोध नहीं किया, बल्कि बहुगुणा सरकार के लोकायुक्त कानून बदलने के निर्णय का जरूर विरोध किया था। पर वही भाजपा केजरीवाल के जन लोकपाल विधेयक का कड़ा विरोध कर रही है। अरुण जेटली तो कहते हैं कि ‘आप’ शहरी माओवादी है।’
कांग्रेस की ओर से ऐसे कड़े विधेयक के लिए समर्थन की तो उम्मीद ही नहीं की जा सकती है। हालांकि यह बात भी याद रखने की है कि केजरीवाल के 18 सूत्री कार्यक्रम में जन लोकपाल विधेयक भी है जिसका विरोध कांग्रेस ने गत साल उस समय तो नहीं किया था जब कांग्रेस ने बिना शर्त और बिना मांगे आप सरकार का बाहर से समर्थन किया था। ऐसे दलों और नेताओं के बीच इस देश में ‘आप’ के बढ़ने की काफी गुंजाइश बनी हुई है।
ऐसे में मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ कर एक बार फिर जनता के बीच जाने के अलावा ‘आप’ के लिए कोई रास्ता बचा भी नहीं है। पर यह सवाल उठाया जा रहा है कि क्या यह अपनी जिम्मेवारियों से भागना नहीं होगा ?
हालांकि यह सवाल ही गलत है।‘आप’ सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो यही रही है कि वह जन लोकपाल विधेयक पास कराए। यदि नहीं करा सकती और फिर भी वह गद्दी पर बनी रहती है तो शीला दीक्षित सरकार व केजरीवाल सरकार में फर्क ही क्या रहेगा ?
इसी विधेयक के लिए तीन बार अन्ना हजारे और दो बार केजरीवाल ने अनशन किया था। बुजुर्ग अन्ना हजारे तो केंद्र सरकार के ढीले ढाले लोकपाल विधेयक पर मान गये। यदि जवान केजरीवाल नहीं मान रहे हैं तो क्या उनकी जिद के पीछे उनका कोई निजी स्वार्थ है ? ऐसे आरोप को कोई ईमानदार व्यक्ति तो सच मानेगा ही नहीं।
दरअसल इस देश में अब तक समय-समय पर जिन-जिन नेताओं ने भ्रष्टाचार के सवाल पर लड़ते हुए पदत्याग किया या प्रताड़ना सही, उन्हें इस देश की अधिकतर जनता ने हाथों -हाथ लिया। ताजा इतिहास बताता है कि उनका जनसमर्थन समय के साथ बढ़ा ही था।
हाल के दिनों में ‘आप’ के नेताओं के कतिपय अशालीन बयानों व व्यवहार से कुछ लोगों को निराशा हुई है, उन्हें तो केजरीवाल के इस्तीफे से संतोष ही मिलेगा। दूसरी ओर जिन्हें ‘आप’ के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से अपने निहितस्वार्थों को नुकसान पहुंचता नजर आ रहा है, उन्हें राहत मिलेगी। पर जो लोग एक कारगर जन लोकपाल कानून के पक्षधर हैं, उन्हें एक बार फिर सड़कों जाना होगा। या फिर उन्हें ‘आप’ के अभियान को एक बार फिर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मदद करनी होगी।
‘आप’ के अभियान में चुनाव व आंदोलन दोनों शामिल हैं। हालांकि अभी तो लोकसभा चुनाव सामने होगा। अधिकतर लोग उसमें प्रत्यक्ष, परोक्ष या मानसिक रुप से व्यस्त रहेंगे।
अबोध शिशु की तरह लड़खड़ा रही आप
दरअसल दिल्ली प्रदेश की सत्ता मेें आने के बाद ‘आप’ के कुछ नेताओं ने अपने आचरण से ऐसा प्रदशर््िात किया मानो कोई शिशु अपने शैशवास्था में चलने की कोशिश करते समय लड़खड़ा रहा है। लगा कि उन्हें सरकार या राजनीति चलाने के लिए अभी कुछ और जरूरी बातें सीखनी हंै। उन्हें विधिवत प्रशिक्षण की जरूरत है।
हालांकि अबोध शिशु की तरह लड़खड़ाने के बावजूद ‘आप’ के नेताओं की मंशा पर वैसे लोगों को कभी कोई शंका नहीं हुई जो लोग किसी भी कीमत पर इस देश के शासन में फैले भीषण भ्रष्टाचार की समाप्ति चाहते हैं। और, इस काम के लिए अब भी वे ‘आप’ की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि उम्मीद की कोई बेहतर किरण उन्हें नजर भी नहीं आ रही है।
, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में ‘आप’ की प्रतिबद्धता का ही नतीजा है कि अरविंद मुख्यमंत्री की गद्दी की अपेक्षा आज भी जन लोकपाल व स्वराज विधेयक को अधिक महत्व दे रहे है। इस देश में अब तक कितने नेता ऐसे हुए हैं जो गद्दी मिल जाने के बावजूद अपने मुद्दों के लिए कभी भी गद्दी छोड़ने को तैयार रहते हैं ?
एक ऐसे देश में जहां के अधिकतर नेतागण गद्दी पर बने रहने या फिर गद्दी तक पहुंचने के लिए रोज- ब-रोज भ्रष्टाचार और भ्रष्ट लोगों से घृणित समझौते कर रहे हंै, उस देश में अरविंद की ताजा भीष्म प्रतिज्ञा अनेक लोगों को अच्छी लग रही है।
क्या वे अपनी इस प्रतिज्ञा पर कायम रह सकेंगे ? इस देश के अच्छी मंशा वाले लोग चाहते हैं कि वे अपनी प्रतिज्ञा पर कायम रहें। यदि कायम रहे तो ‘आप’ को पूरे देश में देर- सवेर जमने और अपने जनहितकारी एजेंडे के साथ अधिकाधिक लोगों को जोड़ने में सुविधा होगी।
अरविंद केजरीवाल जन लोकपाल के साथ -साथ अपने स्वराज विधेयक पर भी उतना ही जोर दे रहे हैं। पर स्वराज बिल के स्वरूप व महत्व को अभी देश के आम लोगों के बीच समझाना बाकी है।
कुछ प्रेक्षकों के अनुसार उसमें कई अव्यावहारिक बातें भी हैं। जो उन्हें अव्यावहारिक नहीं भी मानते, वे भी स्वराज विधेयक को अभी विराम देने की सलाह देते हैं।
पर, जन लोकपाल विधेयक के प्रावधानों के बारे में तो अधिकतर लोगों की मोटा -मोटी समझदारी बन चुकी है। वे भी उन्हें जरुरी मानते हैं। लोगों के अनुसार जन लोकपाल विधेयक का मतलब है एक ऐसा सख्त व स्वतंत्र लोकपाल कानून जिसकी पकड़ में आ जाने के बाद बड़े से बड़ा भ्रष्टाचारी कानून की गिरफ्त से बच नहीं सकेगा।
हाल में संसद ने जो लोकपाल विधेयक पास किया है, उसे कतई कारगर नहीं माना जा रहा है। यदि कारगर होता तो मुख्य धारा की राजनीति उसके लिए राजी ही नहीं होती।
यदि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल के पास जन लोकपाल जैसा कोई कानून नहीं होगा तो वे मुख्यमंत्री के रुप में अपनी कारगर भूमिका ही नहीं निभा पाएंगे। यदि नहीं निभा पाएंगे तो धीरे-धीरे उनकी पार्टी की
लोकप्रियता भी समाप्त होती चली जाएगी। नतीजतन राष्ट्रीय पैेमाने पर फैलने का ‘आप’ का सपना भी सपना ही बना रह जाएगा।
दिल्ली की गददी के अनुभव के बाद ‘आप’ को भी लग रहा है कि राज्यों की सरकारें ठीक से नहीं चलाई जा सकती हैं, यदि केंद्र की सरकार से समय -समय पर मदद नहीं मिले। केंद्र में तभी अच्छी सरकार बनाई जा सकती है जब संसद में अधिक से अधिक ईमानदार लोग चुन कर जाएं।
यह भी तभी हो सकेगा जब ‘आप’ जैसी पार्टी का लोकसभा चुनाव में भी वैसा ही कारगर हस्तक्षेप हो जैसा दिल्ली विधानसभा में हुआ है। आप का अभियान जारी रहा तो 2014 के चुनाव में यदि नहीं तो 2019 तक लोकसभा की सूरत बदल सकती है।
आज केजरीवाल के जन लोकपाल विधेयक का किसी न किसी बहाने कांग्रेस व भाजपा जितना अधिक विरोध कर रही हैं, वैसी स्थिति में उसके दिल्ली विधानसभा से पास होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है।
कोई भला क्यों अपने ही प्रयास से रस्सी खरीद कर उसे अपने ही गले में फांसी के रूप में पहन लेगा ?
बहुगुणा सरकार ने कमजोर कर दिया जनलोकपाल कानून
पूरा देश देख रहा है कि ‘आप’ के जन लोक पाल विधेयक का प्रारुप उत्तराखंड के उस लोकपाल विधेयक से ठीक मिलता जुलता है जिसे उत्तराखंड में भाजपा की बी.सी. खंडुरी सरकार ने ही टीम अन्ना की सलाह पर पास कराया था। उस लोकपाल विधेयक को नवंबर 2011 में उत्तराखंड विधानसभा से पास कराया गया था।
उस विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति भी मिल गई थी। यह और बात है कि बाद की बहुगुणा सरकार ने उसे बदल दिया।
राजनीति का दोहरापन देखिए। भाजपा ने तब खंडुरी के उस विधेयक का तो विरोध नहीं किया, बल्कि बहुगुणा सरकार के लोकायुक्त कानून बदलने के निर्णय का जरूर विरोध किया था। पर वही भाजपा केजरीवाल के जन लोकपाल विधेयक का कड़ा विरोध कर रही है। अरुण जेटली तो कहते हैं कि ‘आप’ शहरी माओवादी है।’
कांग्रेस की ओर से ऐसे कड़े विधेयक के लिए समर्थन की तो उम्मीद ही नहीं की जा सकती है। हालांकि यह बात भी याद रखने की है कि केजरीवाल के 18 सूत्री कार्यक्रम में जन लोकपाल विधेयक भी है जिसका विरोध कांग्रेस ने गत साल उस समय तो नहीं किया था जब कांग्रेस ने बिना शर्त और बिना मांगे आप सरकार का बाहर से समर्थन किया था। ऐसे दलों और नेताओं के बीच इस देश में ‘आप’ के बढ़ने की काफी गुंजाइश बनी हुई है।
ऐसे में मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ कर एक बार फिर जनता के बीच जाने के अलावा ‘आप’ के लिए कोई रास्ता बचा भी नहीं है। पर यह सवाल उठाया जा रहा है कि क्या यह अपनी जिम्मेवारियों से भागना नहीं होगा ?
हालांकि यह सवाल ही गलत है।‘आप’ सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो यही रही है कि वह जन लोकपाल विधेयक पास कराए। यदि नहीं करा सकती और फिर भी वह गद्दी पर बनी रहती है तो शीला दीक्षित सरकार व केजरीवाल सरकार में फर्क ही क्या रहेगा ?
इसी विधेयक के लिए तीन बार अन्ना हजारे और दो बार केजरीवाल ने अनशन किया था। बुजुर्ग अन्ना हजारे तो केंद्र सरकार के ढीले ढाले लोकपाल विधेयक पर मान गये। यदि जवान केजरीवाल नहीं मान रहे हैं तो क्या उनकी जिद के पीछे उनका कोई निजी स्वार्थ है ? ऐसे आरोप को कोई ईमानदार व्यक्ति तो सच मानेगा ही नहीं।
(इस लेख का संशोधित अंश जनसत्ता के 11 फरवरी 2014 के अंक में प्रकाशित)
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