चुनावी गठबंधन का काम पूरा होने से पहले ही ओपिनियन पोल कराने की जल्दीबाजी क्यों दिखाई जा रही है ? इसको लेकर राजनीतिक हलकों में आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है।
चुनावी गठबंधन के काम अभी अधूरे हैं। चुनाव पूर्व दल-बदल की प्रक्रिया भी अभी पूरी नहीं हुई है। हर चुनाव से पहले बड़ी संख्या में नेता दल बदल करते हैं। दल बदल टिकट के बंटवारे तक जारी रहते हैं। वोट के समीकरण में राजनीतिक गठबंधनों व दल- बदल का काफी महत्व रहा है। इस देश का चुनावी इतिहास यही बताता है।
पर गठबंधन के पहले ही इन दिनों धुआंधार चुनावपूर्व ओपियन पोल कराए जा रहे हैं। उनके नतीजे भी सार्वजनिक किये जा रहे हैं। ऐसे में ये नतीजे आखिर कितने सटीक साबित होंगे ?
यह सवाल बिहार को लेकर अधिक मौजूं है।
वैसे भी ओपिनियन पोल के नतीजे सीटों की संख्या के बारे में सटीक नहीं होते। हो भी नहंीं सकते। पर,उससे चुनावी हवा के रुख का जरूर पता चल जाता है। पर, यह भी इस बात पर निर्भर करता है कि ओपिनियन पोल का समय क्या है। चुनावी गठबंधन से पहले तो ओपिनियन पोल के नतीजों के गलत होने के और भी आसार रहते हैं। इसके बावजूद ओपिनियन पोल करने-कराने के लिए इतनी जल्दीबाजी क्यों ? इस जल्दीबाजी के कारण ओपिनियन पोल को बकवास बताने वालों को बल मिल रहा है। नेताओं की एक जमात हमेशा ही ओपिनियन पोल के खिलाफ आवाज उठाती रही है।
ओपिनियन पोल के नतीजे जिन दलों या नेताओं के खिलाफ जाते हैं, वे तो कुछ अधिक ही जोर-शोर से ऐसे पोल के खिलाफ आवाज उठाते रहते हैं। उनमें से कुछ लोग पोल की मंशा पर भी शक करते हैं। समय पूर्व ओपिनियन पोल से ऐसे लोगों को बल मिलता है।
बिहार से संबंधित कुछ ओपिनियन पोल के परस्परविरोधी नतीजे भी आ रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार उनके सटीक होने के बारे में संदेह है। अब तक दो अलग- अलग ओपिनियन पोल के अलग-अलग नतीजे आ चुके हैं। ये पोल हाल ही कराए गए थे।
बिहार में राजद, जदयू और भाजपा अलग -अलग बड़ी राजनीतिक ताकतें हैं। ये दल अलग-अलग गठबंधन करने की कोशिश में हैं। यदि गठबंधन हो गये तो वोट के समीकरण थोड़ा बदल सकते हैं। फिर तो चुनाव नतीजे भी अलग तरह के हो सकते हैं। ऐसे में हाल के ओपिनियन पोल के नतीजों का क्या और कितना अर्थ रह जाएगा ?
इन पंक्तियों के लिखते समय तक राजद प्रमुख लालू प्रसाद कांग्रेस, लोजपा और एन.सी.पी. से चुनावी तालमेल की कोशिश में हंै। बातचीत चल रही है। पर इस बीच यह भी खबर आई है कि लोजपा भाजपा से तालमेल कर सकती है।
उधर जदयू भी कुछ वाम दलों से गठबंधन कर सकता है। वह काम भी अभी पूरा नहीं हुआ है। छोटे-छोटे दलों की चुनावों में भूमिका कई बार महत्वपूर्ण हो जाती है।
राम विलास पासवान की पार्टी लोजपा एक छोटी पार्टी है। पर वह दही में जोड़न का काम करती रही है। सन 1999 के लोकसभा चुनाव में लोजपा एन.डी.ए. के साथ थी। नतीजतन उस चुनाव में बिहार से राजग को ही लोकसभा की अधिकतर सीटें मिलीं थीं।
पर राजग को छोड़कर लोजपा 2004 के लोकसभा चुनाव में राजद के साथ हो गई। परिणाम इस गठबंधन के पक्ष में हो गया और राजग की खटिया खड़ी हो गई।
पर 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले लोजपा के किसी गठबंधन में शामिल होने की घोषणा के बिना ही ओपिनियन पोल करा लिये गये और रिजल्ट घोषित कर दिये गये। आखिर ऐसे ओपिनियन पोल के नतीजों को कितना विश्वसनीय माना जाए?
चुनावी गठबंधन के काम अभी अधूरे हैं। चुनाव पूर्व दल-बदल की प्रक्रिया भी अभी पूरी नहीं हुई है। हर चुनाव से पहले बड़ी संख्या में नेता दल बदल करते हैं। दल बदल टिकट के बंटवारे तक जारी रहते हैं। वोट के समीकरण में राजनीतिक गठबंधनों व दल- बदल का काफी महत्व रहा है। इस देश का चुनावी इतिहास यही बताता है।
पर गठबंधन के पहले ही इन दिनों धुआंधार चुनावपूर्व ओपियन पोल कराए जा रहे हैं। उनके नतीजे भी सार्वजनिक किये जा रहे हैं। ऐसे में ये नतीजे आखिर कितने सटीक साबित होंगे ?
यह सवाल बिहार को लेकर अधिक मौजूं है।
नतीजे गलत होने के आसार
वैसे भी ओपिनियन पोल के नतीजे सीटों की संख्या के बारे में सटीक नहीं होते। हो भी नहंीं सकते। पर,उससे चुनावी हवा के रुख का जरूर पता चल जाता है। पर, यह भी इस बात पर निर्भर करता है कि ओपिनियन पोल का समय क्या है। चुनावी गठबंधन से पहले तो ओपिनियन पोल के नतीजों के गलत होने के और भी आसार रहते हैं। इसके बावजूद ओपिनियन पोल करने-कराने के लिए इतनी जल्दीबाजी क्यों ? इस जल्दीबाजी के कारण ओपिनियन पोल को बकवास बताने वालों को बल मिल रहा है। नेताओं की एक जमात हमेशा ही ओपिनियन पोल के खिलाफ आवाज उठाती रही है।
ओपिनियन पोल के नतीजे जिन दलों या नेताओं के खिलाफ जाते हैं, वे तो कुछ अधिक ही जोर-शोर से ऐसे पोल के खिलाफ आवाज उठाते रहते हैं। उनमें से कुछ लोग पोल की मंशा पर भी शक करते हैं। समय पूर्व ओपिनियन पोल से ऐसे लोगों को बल मिलता है।
अलग पोल के अलग नतीजे
बिहार से संबंधित कुछ ओपिनियन पोल के परस्परविरोधी नतीजे भी आ रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार उनके सटीक होने के बारे में संदेह है। अब तक दो अलग- अलग ओपिनियन पोल के अलग-अलग नतीजे आ चुके हैं। ये पोल हाल ही कराए गए थे।
अलग-अलग गठबंधन
बिहार में राजद, जदयू और भाजपा अलग -अलग बड़ी राजनीतिक ताकतें हैं। ये दल अलग-अलग गठबंधन करने की कोशिश में हैं। यदि गठबंधन हो गये तो वोट के समीकरण थोड़ा बदल सकते हैं। फिर तो चुनाव नतीजे भी अलग तरह के हो सकते हैं। ऐसे में हाल के ओपिनियन पोल के नतीजों का क्या और कितना अर्थ रह जाएगा ?
इन पंक्तियों के लिखते समय तक राजद प्रमुख लालू प्रसाद कांग्रेस, लोजपा और एन.सी.पी. से चुनावी तालमेल की कोशिश में हंै। बातचीत चल रही है। पर इस बीच यह भी खबर आई है कि लोजपा भाजपा से तालमेल कर सकती है।
उधर जदयू भी कुछ वाम दलों से गठबंधन कर सकता है। वह काम भी अभी पूरा नहीं हुआ है। छोटे-छोटे दलों की चुनावों में भूमिका कई बार महत्वपूर्ण हो जाती है।
राम विलास पासवान की पार्टी लोजपा एक छोटी पार्टी है। पर वह दही में जोड़न का काम करती रही है। सन 1999 के लोकसभा चुनाव में लोजपा एन.डी.ए. के साथ थी। नतीजतन उस चुनाव में बिहार से राजग को ही लोकसभा की अधिकतर सीटें मिलीं थीं।
पर राजग को छोड़कर लोजपा 2004 के लोकसभा चुनाव में राजद के साथ हो गई। परिणाम इस गठबंधन के पक्ष में हो गया और राजग की खटिया खड़ी हो गई।
पर 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले लोजपा के किसी गठबंधन में शामिल होने की घोषणा के बिना ही ओपिनियन पोल करा लिये गये और रिजल्ट घोषित कर दिये गये। आखिर ऐसे ओपिनियन पोल के नतीजों को कितना विश्वसनीय माना जाए?
(24 फरवरी 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)
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