मुख्यमंत्री इन दिनों बिहार में संकल्प सभाएं कर रहे हैंं। उनकी सभाओं में अच्छी -खासी भीड़ जुट रही है। पर वे उस भीड़ को सावधान भी कर रहे हैं। वे प्रकारांतर से 15 साल के ‘जंगल राज’ की याद दिला रहे हैं। उस कथित जंगल राज से ऊब कर ही बिहार की जनता ने 2005 में राजग को सत्ता सौंपी थी।
सन् 2005-10 के बीच बेहतर काम करने के कारण नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले गठबंधन को जनता ने 2010 के विधानसभा चुनाव में तीन -चैथाई से भी अधिक बहुमत दिया। पर इस बीच नरेंद्र मोदी के उदय और भाजपा से जदयू के अलग हो जाने के बाद बिहार की राजनीतिक स्थिति में बदलाव आ गया है।
इस बीच आयोजित ओपिनियन पोल के रिजल्ट बता रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में बिहार में भी भाजपा की बढ़त रहेगी। पर उसी रिजल्ट के अनुसार अब भी राज्य के 55 प्रतिशत लोग यह कहते हैं कि अगले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के दल को ही वे वोट देंगे।
पर जदयू को आशंका है कि यदि अब से कुछ ही सप्ताह बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में बिहार में भाजपा को अन्य दलों से अधिक सीटें मिल गईं तो जदयू के कई विधायक जदयू छोड़ सकते हैं। इन दिनों नीतीश कुमार की अल्पमत सरकार कुछ निर्दलीय और कांग्रेस के चार विधायकों के बाहरी समर्थन के बल पर टिकी हुई है।
जदयू सूत्रों के अनुसार भाजपा को चुनावी बढ़त मिलते ही जदयू के कुछ विधायकों को यह लगेगा कि वे जदयू के साथ रह कर अगला विधानसभा चुनाव नहीं जीत सकते। इसलिए वे दल बदल कर सकते हैं चाहे उनकी मौजूदा सदस्यता ही क्यों न चली जाए। वे इस बात का इंतजार नहीं करेंगे कि ओपियन पोल के अनुसार अगले बिहार विधानसभा चुनाव में 55 प्रतिशत लोग नीतीश कुमार के दल को ही वोट देने वाले हैं।
राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार जब एक बार नीतीश कुमार की सरकार गिर जाएगी तो अगले विधानसभा चुनाव से पहले तक राज्य का राजनीतिक दृश्य व समीकरण कैसा बनेगा, यह कहा नहीं जा सकता है। लालू प्रसाद का राजद भी बिहार की राजनीति में एक बड़ा फैक्टर है।
उधर बिहार भाजपा के नेता सुशील कुमार मोदी सार्वजनिक तौर पर यह कह चुके हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार से बेहतर लालू प्रसाद साबित हो चुके हैं। प्रेक्षकों के अनुसार लोकसभा चुनाव में भले बिहार में भाजपा को बढ़त मिल जाए, पर बिहार विधानसभा चुनाव में उसी अनुपात में भाजपा को चुनावी जीत नहीं मिलेगी।
कुछ प्रेक्षक यह भी संभावना व्यक्त कर रहे हैं कि फिर वैसी राजनीतिक स्थिति में भाजपा का राजद से किसी न किसी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष चुनावी तालमेल भी हो सकता है। लालू प्रसाद और भाजपा समान रूप से इन दिनों नीतीश कुमार से खार खाए हुए हंै। यानी सख्त नाराज है। उन्हें सत्ता से हटाना चाहते हैं।
राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार फिर यदि अगले चुनाव के बाद केंद्र में भाजपानीत सरकार बन गई तो लालू प्रसाद उन्हीं कारणों से केंद्र की उस सरकार के समर्थन में भी उतर सकते हैं जिन कारणों से इन दिनों वे मनमोहन सरकार का अंध समर्थन कर रहे हैं। फिर बिहार विधानसभा चुनाव में कैसा राजनीतिक दृश्य बनेगा ?
इन सब संभावित राजनीतिक हलचलों के बीच नीतीश कुमार की आशंका व चेतावनी को देखा जा सकता है। जदयू का दावा है कि नीतीश कुमार के अलावा कोई भी दूसरा मुख्यमंत्री बिहार में न तो शांति -व्यवस्था कायम रखकर ‘जंगल राज’ की आशंका को निर्मूल कर सकता है और न ही विकास की मौजूदा रफ्तार को कायम रख सकता है। फिर तो बिहार उन्हीं दिनों में वापस जा सकता है।
पता नहीं, जदयू की यह आशंका कितनी सही है। यह भी नहीं पता कि नीतीश कुमार की चेतावनी का कितना असर मतदाताओं पर पड़ेगा। पर जदयू का दावा है कि चेतावनी का असर पड़ रहा है। नीतीश कुमार की इस चैंकाने वाली आशंका के बीच बिहार के उन सामाजिक समीकरणों पर एक बार फिर गौर कर लेना मौजूं होगा जो समीकरण विभिन्न दलों को ताकत देते हैं।
लालू प्रसाद के राजद के साथ यादव मतदाताओं की मजबूत गोलबंदी देखी जा रही है। यह गोलबंदी इसलिए भी है क्योंकि उन्हें लगता है कि कुछ करोड़ रुपये के घोटाले के आरोप में तो लालू प्रसाद को बार -बार जेल जाना पड़ता है, उन्हें निचली अदालत से सजा भी हो गई। पर दूसरी ओर अरबों रुपये के घोटाले करके इस देश के बड़े -बड़े नेता लोग चैन की वंशी बजा रहे हैं।
यदि लालू प्रसाद का कांग्रेस व लोजपा से चुनावी तालमेल हो गया तो अल्पसंख्यक मतों का एक हिस्सा उन्हें मिल जाएगा। भाजपा के साथ सवर्णों व वैश्य समुदाय की गोलबंदी है। इसके अलावा हिंदुत्व से प्रभावित कुछ वोट हर जाति से मोदी को मिलेंगे।
नीतीश कुमार के साथ अति पिछड़ा, महा दलित, कुर्मी, महिलाओं का एक हिस्सा तथा सुशासन व विकास के पक्षधर कुछ लोग हैं। ताजा ओपिनियन पोल के नतीजे के अनुसार लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखा जाए तो बिहार के 39 प्रतिशत लोग नरेंद्र मोदी, 20 प्रतिशत लोग नीतीश कुमार और 15 प्रतिशत लोग लालू प्रसाद को पसंद करते हैं।
ओपिनियन पोल के नतीजे पूरी तरह तो सही नहीं होते, पर वे इस बात की ओर इशारा जरूर कर देते हैं कि हवा का रुख किधर है। कथित जंगल राज के विरोधी व विकास के पक्षधर लोगों ने सरकार गिरने की नीतीश कुमार की चेतावनी की गंभीरता को समझा तो बिहार के राजनीतिक समीकरण नरेंद्र मोदी के थोड़-बहुत खिलाफ भी जा सकते हैं।
पर, क्या ऐसा हो पाएगा? इसका जवाब आने वाले दिनों में ही मिल पाएगा।
(इस लेख का संपादित अंश 8 फरवरी 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)
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