रविवार, 16 मार्च 2014

बलिदान की भूमि पर आदर्शों की हत्या

  बिहार में इस बार जितने बड़े पैमाने पर टिकट के लिए दल -बदल हो रहे हैं, उतने इससे पहले कभी नहीं हुए। बिहार कभी सेवा, त्याग और बलिदान वाली राजनीति की भूमि रहा है। अब तो उसे पहचानना ही मुश्किल है।
सवाल यह नहीं है कि कितने लोग दल -बदल कर रहे हैं। सवाल यह है कि आज की राजनीति में कौन ऐसा नेता बचा है जिसका टिकट कट जाने के बावजूद वह अपने दल में बना रह जाएगा ?

किसी नेता को अपनी पत्नी के लिए टिकट चाहिए तो किसी को अपने पति के लिए। किसी की संतान टिकट के लिए मचल रही है तो कोई खुद टिकट के बिना जिंदा नहीं रह सकतां।

  टिकट के लिए इस चूहा -दौड़ को देख कर लगता है कि आज टिकट धर्मा, टिकट कर्मा, धर्मा-कर्मा टिकट-टिकट ही हो चुका है।

    बिहार की इसी धरती पर डा. राजेंद्र प्रसाद हुए थे जिन्होंने 1949 में जवाहर लाल नेहरू को यह लिख कर दे दिया था कि मैं किसी पद का उम्मीदवार नहीं हूं। उनसे पंडित नेहरू ने पूछा था कि क्या आप राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं?

यह और बात है कि बाद में सरदार पटेल और दूसरे नेताओं के हस्तक्षेप के बाद राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति बने थे।
  जय प्रकाश नारायण कभी सक्रिय राजनीति में भी थे, पर खुद कभी चुनाव नहीं लड़े। बाद में जेपी ने उपप्रधानमंत्री बनाने के नेहरू के आॅफर को ठुकरा दिया था।

आजादी के समय के बिहार कांग्रेस के दो सर्वाधिक प्रमुख नेता डा. श्रीकृष्ण सिन्हा और डा.अनुग्रह नारायण सिन्हा कभी टिकट के लिए आवदेन पत्र तक ंनहीं देते थे।

उन्हें पार्टी टिकट आॅफर करती थी। तब श्रीबाबू मुख्यमंत्री व अनुग्रह बाबू वित्त मंत्री थे।

 समाजवादी नेता व पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर से जब 1980 में उनकी पार्टी ने कहा कि आपके पुत्र को भी हम लोग विधानसभा का चुनाव लड़वाना चाहते हैं तो कर्पूरी ठाकुर ने कहा कि उसे दे दीजिए, पर तब मैं खुद नहीं लडूंगा। क्योंकि परिवार के किसी एक ही व्यक्ति को चुनाव लड़ना चाहिए। बिहार के ताजा राजनीतिक इतिहास में ऐसे अन्य अनेक उदाहरण मिलेंगे।

2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद नेता जगदानंद सिंह ने रामगढ़ विधानसभा क्षेत्र में अपने पुत्र को हरवा दिया। उनका पुत्र भाजपा से उम्मीदवार था। जगदानंद ने एक यादव कार्यकर्ता को उम्मीदवार बनवा कर बेटे को हराया।

इससे पहले कोई यादव उम्मीदवार उस क्षेत्र से चुनाव जीत नहीं पाया था। क्योंकि वह राजपूतबहुल क्षेत्र है। जगदानंद सिंह खुद राजपूत परिवार से आते हैं। उन पर लालू प्रसाद का दबाव था कि वे अपने बेटे को ही राजद का उम्मीदवार बनायें। पर उन्होंने नहीं बनाया। 

जगदानंद बक्सर से निवर्तमान सांसद हैं। पर इसके विपरीत आज अपने ही घोषित नीति -सिद्धांत, दलीय आस्था और नेतृत्व के प्रति निष्ठा को तिलांजलि दे -दे कर बड़ी संख्या में नेतागण दल बदल कर रहे हैं और परिवारवाद को बढ़ावा दे रहे हैं।

  लगता है कि संसद की सीट नहीं हो बल्कि स्वर्ग की सीढ़ी हो।

बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष चैधरी महबूब कैसर का एल.जे.पी. में जाना और राजद नेता रामकृपाल यादव का भाजपा ज्वाइन करना लोगों को चैंकाता है।

यानी चुनावी टिकट के समक्ष सांप्रदायिकता व सामाजिक न्याय के मुद्दे कुछ भी नहीं हंै। वंे मुददे भी सिर्फ मतदाताओं को मूर्ख बनाने के लिए हैं। 

  रामविलास पासवान यह काम पहले ही कर चुके हैं। पर उनके ताजा ‘दिल-बदल’ को देखकर कम से कम उन लोगों को कोई आश्चर्य नहीं हुआ जो 2002 में उनके राजग छोड़ने की असलियत को जानते हैं।

   ऊपर दिये गये कुछ नाम तो नमूने मात्र हैं। दल बदल की महामारी व टिकट के लिए मारामारी से कोई दल वंचित नहीं है। बड़े नेताओं की ओर से ऐसे कामों के लिए पूरा उकसावा है।

  आखिर ऐसे दल बदलु लोग किसी न किसी कीमत पर संसद में क्यों जाना चाहते हैं? क्या वे राष्ट्रहित में सार्थक चर्चा करने के लिए उतावले हैं ? क्या ऐसा कुछ इन दिनों संसद में हो भी रहा है ?

 क्या इन दिनों संसद में देशहित के गंभीर मुद्दे पर कभी कोई आम सहमति बन भी पा रही है ?

  क्या भ्रष्टाचार, महंगाई, संसद के भीतर की रोज ब रोज की अराजकता तथा दूसरे जरुरी मुद्दों पर कोई सार्थक व कारगर बहस हो पा रही है ?

राजनीति में धन बल, बाहुबल व कारपोरेट बल के बढ़ते प्रभाव को रोकन के लिए संसद कोई काम कर भी रही है ?

 इसके विपरीत जनहित में जो कुछ भी कदम उठाए जा रहे हैं, वे आम तौर पर  अदालतों व मीडिया के दबाव के कारण ही।

 ऐसे में दल बदलु लोगों, नव कुबेरों, स्वार्थी तत्वों और आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को संसद में भेज कर मतदातागण देश का कौन सा भला करेंगे ?

यदि थोड़े से  अपवादों को छोड़ दें तो दल बदल करने वालों में से अधिकतर नेताओं के जीवन में शुचिता नाम की कोई चीज नहीं है।

  देश व लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि अधिकतर राजनीतिक दलों ने ऐसे ही लोगों को भेजने की तैयारी कर ली है। इस स्थिति में राजनीतिक प्रेक्षकों व देश का भला सोचने वालों की राय है कि अब यह जिम्मेदारी मतदाताओं पर है जो ऐसे लोगों को कत्तई तरजीह नहीं दें।राजनीतिक दलों की गलतियां सुधारने की जिम्मेदारी अब मतदाताओं पर आ पड़ी है। 


(इस लेख का संशोधित अंश जनसत्ता के 15 मार्च 2014 के अंक में प्रकाशित)

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