जनता परिवार की एकता की गंभीर कोशिश जारी है। उम्मीद है कि एकता होकर रहेगी। पर सवाल है कि सिर्फ एकता से ही जनता परिवार देश में कोई राजनीतिक कमाल दिखा पाएगा ?
ऐसा लगता तो नहीं है। बल्कि उसे अपने चाल, चरित्र और चिंतन में भी बदलाव लाना होगा। साथ ही उसे भाजपा की केंद्र सरकार के अलोकप्रिय होने की प्रतीक्षा भी करनी पड़ेगी। उसके लिए जिस धैर्य की जरुरत है, क्या वह जनता परिवार के सदस्यों में है ?
वैसे एकता की दिशा में हाल की कुछ बातों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे एकता की कोशिश की गति तेज होगी।
नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की राजनीतिक दोस्ती बढ़ी है। नीतीश कुमार को लगता है कि लालू प्रसाद समय के साथ बदल रहे हैं। उधर लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव के बीच करीबी रिश्तेदारी की संभावना है। इससे दोनों दलों के बीच राजनीतिक रिश्ता भी काफी मजबूत होगा।
इन तीन नेताओं की एकता से जनता परिवार की एकता की ठोस नींव तैयार होगी। फिर जनता परिवार के अन्य सदस्यों के जुड़ने में कोई दिक्कत नहीं होगी।
एकता की कोशिश का स्वागत करते हुए सीपीएम महासचिव प्रकाश करात ने कहा है कि भाजपा की बढ़ती ताकत का मुकाबला करने के लिए संसद में हम जनता परिवार से समन्वय बनाकर काम करेंगे।
जनता परिवार के सदस्य 1977 और 1989 के चुनावों में भी एक हुए थे। तब के सत्ताधारी दल जनता में अलोकप्रिय हो चुके थे। एकता का लाभ उन्हें दोनों बार मिला था। इस बार की परिस्थिति बिलकुल अलग हैं। अभी सत्ताधारी दल लोकप्रियता के चरम पर है। इसलिए जनता परिवार के लिए राह अपेक्षाकृत कठिन है। अनुकूल चुनावी रिजल्ट पाने के लिए इस बार उसे कुछ अधिक ही प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है।
पर राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए जल्द एक होने के अलावा और कोई उपाय भी तो नहीं है। जब दलों के बीच चुनावी एकता या विलयन की कोशिश होती है तो उन दलों के भीतर से ही अधिक विरोध होता है। इस बार भी हो रहा है।
विरोध का मुख्य कारण पदों की कमी हो जाने का खतरा है। अपवादों को छोड़ दें तो आज कोई भी छोटा -बड़ा राजनीतिक कार्यकर्ता या नेता पद के बिना नहीं रहना चाहता। पर ऐसे विरोधों को नेतागण इस बार भी नजरअंदाज ही करेंगे।
इसके अलावा बाधाएं बाहर से भी हैं। एक -दो अपवादों को छोड़ दें तो जनता परिवार के अधिकतर नेताओंं की सार्वजनिक छवि अच्छी नहीं है। जातीय वोट बैंंक का असर भी थोड़ा घटा है। उनकी जनता में स्वीकार्यता कम होती जा रही है। इसके मुकाबले कई कारणों से नरेंद्र मोदी और भाजपा के अनेक नेताओं की छवि बेहतर है।
उधर एक बात और है। भाजपा के अधिकतर नेताओं की छवि के मुकाबले आम आदमी पार्टी के कुछ नेताओं की छवि बेहतर है।
इसलिए कुछ राजनीतिक चिंतक ओर प्रेक्षक ‘आप’ को भाजपा का अगला विकल्प बता रहे हैं। दिल्ली विधानसभा का चुनाव होने वाला है।
यदि भाजपा के पक्ष में करीब- करीब देशव्यापी हवा के बावजूद दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘आप’ ने कोई कमाल दिखा दिया तो ‘आप’ को अनेक लोग सचमुच भाजपा के विकल्प के रूप में देखने लगेंगे।
अंततः क्या होगा, यह तो भविष्य बताएगा। क्योंकि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि नरेंद्र मोदी की सरकार अगले महीनों में कैसा काम करती है।
दूसरी ओर जनता परिवार के कुछ प्रमुख नेताओं को अपनी छवि यदि बेहतर बनानी है और जनता की नजरों में भाजपा से ख्ुाद को बेहतर साबित करना है तो उन्हें अपनी कार्यशैली बदलनी होगी। इस मामले में बिहार से तो थोड़ा -बहुत अच्छे संकेत मिल रहे हैं। पर समस्या यू.पी. में अधिक है। ये दो प्रदेश जनता परिवार के मुख्य राजनीतिक गढ़ हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले महीने कहा कि ‘हमने लालू जी से समझौता किया है, पर कानून से नहीं।’ याद रहे कि भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी का आरोप है कि लालू से मिलकर नीतीश कुमार आतंक राज लौटाना चाहते हैं। कुछ भाजपा नेता तो यह भी आरोप लगा रहे हैं कि बिहार में जंगल राज -2 कायम हो चुका है।
पर राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति थोड़ी बिगड़ी जरूर है, पर वैसी अराजक स्थिति कत्तई नहीं हुई है जैसी लालू-राबड़ी राज में थी।
राजद-जदयू के पास एक-एक मजबूत तर्क है। गत लोकसभा चुनाव में राजद-जदयू को मिले वोट भाजपा को मिले मतों से ज्यादा थे। साथ ही हाल के विधानसभा उपचुनाव में राजद-जदयू गठबंधन को भाजपा की अपेक्षा अधिक सीटें मिलीं।
हालांकि भाजपा गठबंधन के नेताओं के इस तर्क में भी दम है कि केंद्र से झगड़ा करने वाली सरकार बिहार में 2015 में बनेगी तो राज्य का विकास नहीं होगा।
इन तर्क वितर्कों के साथ बिहार विधानसभा के अगले चुनाव में राजद-जदयू की ओर से साझा नेता कौन होगा, इस बात पर भी रिजल्ट बहुत हद तक निर्भर करेगा।
पर ऐसी बेहतर स्थिति उत्तर प्रदेश की नहीं है। वहां से जो खबरें आती रहती हैं, उनके अनुसार वहां लगभग वैसी ही स्थिति है जैसी स्थिति लालू-राबड़ी राज में बिहार में थी। राजनीतिक संरक्षणप्राप्त इंजीनियर यादव सिंह के अभूतपूर्व घोटाले ने तो रही -सही कसर भी पूरी कर दी है।
गत विधानसभा चुनावों में सपा को इसलिए सफलता मिली क्योंकि बसपा ने उम्मीदवार खड़ा नहीं कराया था। यानी यू.पी. में अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा की राह अधिक आसान लगती है।
खैर जो हो, संकेत तो यही हैं कि जनता परिवार की एकता हो कर रहेगी। एकीकृत जनता परिवार निकट भविष्य में भले कोई बड़ी चुनावी सफलता हासिल नहीं कर सके, पर लगातार जन संघर्षों के जरिए वह देर सवेर अपने पुराने सुनहले दिन वापस ला सकते हैं। पर इसके लिए यह जरूरी है कि नरेंद्र मोदी की सरकार इस बीच उन वायदों को पूरा नहीं कर सके जो उसने गत लोकसभा चुनाव में किये थे। पर मोदी सरकार की आशंकित विफलता का लाभ उठाने के लिए जनता परिवार के अनेक प्रमुख नेताओं को अपने चाल, चरित्र और चिंतन में इस बीच भारी बदलाव करना होगा।
ऐसा लगता तो नहीं है। बल्कि उसे अपने चाल, चरित्र और चिंतन में भी बदलाव लाना होगा। साथ ही उसे भाजपा की केंद्र सरकार के अलोकप्रिय होने की प्रतीक्षा भी करनी पड़ेगी। उसके लिए जिस धैर्य की जरुरत है, क्या वह जनता परिवार के सदस्यों में है ?
वैसे एकता की दिशा में हाल की कुछ बातों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे एकता की कोशिश की गति तेज होगी।
नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की राजनीतिक दोस्ती बढ़ी है। नीतीश कुमार को लगता है कि लालू प्रसाद समय के साथ बदल रहे हैं। उधर लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव के बीच करीबी रिश्तेदारी की संभावना है। इससे दोनों दलों के बीच राजनीतिक रिश्ता भी काफी मजबूत होगा।
इन तीन नेताओं की एकता से जनता परिवार की एकता की ठोस नींव तैयार होगी। फिर जनता परिवार के अन्य सदस्यों के जुड़ने में कोई दिक्कत नहीं होगी।
एकता की कोशिश का स्वागत करते हुए सीपीएम महासचिव प्रकाश करात ने कहा है कि भाजपा की बढ़ती ताकत का मुकाबला करने के लिए संसद में हम जनता परिवार से समन्वय बनाकर काम करेंगे।
जनता परिवार के सदस्य 1977 और 1989 के चुनावों में भी एक हुए थे। तब के सत्ताधारी दल जनता में अलोकप्रिय हो चुके थे। एकता का लाभ उन्हें दोनों बार मिला था। इस बार की परिस्थिति बिलकुल अलग हैं। अभी सत्ताधारी दल लोकप्रियता के चरम पर है। इसलिए जनता परिवार के लिए राह अपेक्षाकृत कठिन है। अनुकूल चुनावी रिजल्ट पाने के लिए इस बार उसे कुछ अधिक ही प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है।
पर राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए जल्द एक होने के अलावा और कोई उपाय भी तो नहीं है। जब दलों के बीच चुनावी एकता या विलयन की कोशिश होती है तो उन दलों के भीतर से ही अधिक विरोध होता है। इस बार भी हो रहा है।
विरोध का मुख्य कारण पदों की कमी हो जाने का खतरा है। अपवादों को छोड़ दें तो आज कोई भी छोटा -बड़ा राजनीतिक कार्यकर्ता या नेता पद के बिना नहीं रहना चाहता। पर ऐसे विरोधों को नेतागण इस बार भी नजरअंदाज ही करेंगे।
इसके अलावा बाधाएं बाहर से भी हैं। एक -दो अपवादों को छोड़ दें तो जनता परिवार के अधिकतर नेताओंं की सार्वजनिक छवि अच्छी नहीं है। जातीय वोट बैंंक का असर भी थोड़ा घटा है। उनकी जनता में स्वीकार्यता कम होती जा रही है। इसके मुकाबले कई कारणों से नरेंद्र मोदी और भाजपा के अनेक नेताओं की छवि बेहतर है।
उधर एक बात और है। भाजपा के अधिकतर नेताओं की छवि के मुकाबले आम आदमी पार्टी के कुछ नेताओं की छवि बेहतर है।
इसलिए कुछ राजनीतिक चिंतक ओर प्रेक्षक ‘आप’ को भाजपा का अगला विकल्प बता रहे हैं। दिल्ली विधानसभा का चुनाव होने वाला है।
यदि भाजपा के पक्ष में करीब- करीब देशव्यापी हवा के बावजूद दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘आप’ ने कोई कमाल दिखा दिया तो ‘आप’ को अनेक लोग सचमुच भाजपा के विकल्प के रूप में देखने लगेंगे।
अंततः क्या होगा, यह तो भविष्य बताएगा। क्योंकि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि नरेंद्र मोदी की सरकार अगले महीनों में कैसा काम करती है।
दूसरी ओर जनता परिवार के कुछ प्रमुख नेताओं को अपनी छवि यदि बेहतर बनानी है और जनता की नजरों में भाजपा से ख्ुाद को बेहतर साबित करना है तो उन्हें अपनी कार्यशैली बदलनी होगी। इस मामले में बिहार से तो थोड़ा -बहुत अच्छे संकेत मिल रहे हैं। पर समस्या यू.पी. में अधिक है। ये दो प्रदेश जनता परिवार के मुख्य राजनीतिक गढ़ हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले महीने कहा कि ‘हमने लालू जी से समझौता किया है, पर कानून से नहीं।’ याद रहे कि भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी का आरोप है कि लालू से मिलकर नीतीश कुमार आतंक राज लौटाना चाहते हैं। कुछ भाजपा नेता तो यह भी आरोप लगा रहे हैं कि बिहार में जंगल राज -2 कायम हो चुका है।
पर राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति थोड़ी बिगड़ी जरूर है, पर वैसी अराजक स्थिति कत्तई नहीं हुई है जैसी लालू-राबड़ी राज में थी।
राजद-जदयू के पास एक-एक मजबूत तर्क है। गत लोकसभा चुनाव में राजद-जदयू को मिले वोट भाजपा को मिले मतों से ज्यादा थे। साथ ही हाल के विधानसभा उपचुनाव में राजद-जदयू गठबंधन को भाजपा की अपेक्षा अधिक सीटें मिलीं।
हालांकि भाजपा गठबंधन के नेताओं के इस तर्क में भी दम है कि केंद्र से झगड़ा करने वाली सरकार बिहार में 2015 में बनेगी तो राज्य का विकास नहीं होगा।
इन तर्क वितर्कों के साथ बिहार विधानसभा के अगले चुनाव में राजद-जदयू की ओर से साझा नेता कौन होगा, इस बात पर भी रिजल्ट बहुत हद तक निर्भर करेगा।
पर ऐसी बेहतर स्थिति उत्तर प्रदेश की नहीं है। वहां से जो खबरें आती रहती हैं, उनके अनुसार वहां लगभग वैसी ही स्थिति है जैसी स्थिति लालू-राबड़ी राज में बिहार में थी। राजनीतिक संरक्षणप्राप्त इंजीनियर यादव सिंह के अभूतपूर्व घोटाले ने तो रही -सही कसर भी पूरी कर दी है।
गत विधानसभा चुनावों में सपा को इसलिए सफलता मिली क्योंकि बसपा ने उम्मीदवार खड़ा नहीं कराया था। यानी यू.पी. में अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा की राह अधिक आसान लगती है।
खैर जो हो, संकेत तो यही हैं कि जनता परिवार की एकता हो कर रहेगी। एकीकृत जनता परिवार निकट भविष्य में भले कोई बड़ी चुनावी सफलता हासिल नहीं कर सके, पर लगातार जन संघर्षों के जरिए वह देर सवेर अपने पुराने सुनहले दिन वापस ला सकते हैं। पर इसके लिए यह जरूरी है कि नरेंद्र मोदी की सरकार इस बीच उन वायदों को पूरा नहीं कर सके जो उसने गत लोकसभा चुनाव में किये थे। पर मोदी सरकार की आशंकित विफलता का लाभ उठाने के लिए जनता परिवार के अनेक प्रमुख नेताओं को अपने चाल, चरित्र और चिंतन में इस बीच भारी बदलाव करना होगा।
(2 दिसंबर 2014 के दैनिक भास्कर ,पटना में प्रकाशित)
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