भाजपा सांसद गोपीनाथ मुंडे ने 27 जून, 2013 को सार्वजनिक रुप से एक बड़ी बात कह दी।उन्होंने स्वीकार किया कि 2009 में अपने चुनाव क्षेत्र में उन्होंने आठ करोड़ रुपये खर्च किये।हालांकि उन्होंने चुनाव आयोग को अपने खर्च का जो विवरण दिया था,उसमें उन्होंने अपना खर्च मात्र 19 लाख 36 हजार रुपये बताया था।
तब नियमतः खर्च की अधिकत्तम सीमा 25 लाख थी ।वह सीमा 2011 में बढ़ कर 40 लाख रुपये हो गई। उसी साल मिलिंद देवड़ा ने अपना चुनावी खर्च 10 लाख 63 हजार रुपये बताया तो राहुल गांधी ने 11 लाख 8 हजार रुपये।सुषमा स्वराज ने 8 लाख 92 हजार रुपये बताया तो शरद यादव ने 15 लाख 89 हजार रुपये।
अब भला बताइए कि जब मुंडे को आठ करोड़ खर्च करने पड़े तो उसी राज्य से विजयी बड़े नेता शरद पवार को कितने रुपये खर्च करने पड़े होंगे ! यह खुला सत्य है कि इस देश के अधिकतर नेतागण खर्च तो करोड़ों में करते हैं और आयोग को जो व्योरा देते हैं,वह तय सीमा के भीतर का ही होता है।
आखिर ऐसा असत्य व अविश्वसनीय आंकड़ा देश के बड़े-बड़े नेता लोग क्यों चुनाव आयोग को समर्पित करते हैं ? यह तो एक मामूली उदाहरण है। ऐसे-ऐसे अनेक कारनामों के कारण इस देश के अधिकतर नेताओं पर से जनता का विश्वास उठता जा रहा है।पर, जनता भी आखिर क्या करे ! आखिर उसे इन्हीं नेताओं में से किसी न किसी को हर पांच साल पर चुुनना पड़ता है।ऐसे में राजनीति और चुनाव प्रक्रिया को सुधारने के लिए सुप्रीम कोर्ट कोई निदेश देता है तो आम लोगों को बड़ी खुशी होती है।पर अधिकतर नेतागण उस फैसले से नाराज हो उठते हैं।एक बार फिर यही हो रहा है।
सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के खिलाफ इस बार भी अधिकतर नेतागण उठ खडे़ हुए हंै। हाल का राजनीतिक इतिहास देखते हुए ऐसी ही उम्मीद की भी जा रही थी।उन फैसलों को निरर्थक करने की कोशिश में शायद जल्दी ही कुछ कदम उठाए जाएंगे।कदम उठाने के पक्ष में केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के साथ साथ प्रतिपक्ष के भी कुछ दल हैं। याद रहे कि हाल में बारी -बारी से सुप्रीम कोर्ट ने दो महत्वपूर्ण फैसले किये ।चुनाव सुधार की दिशा में एक ठोस कदम के तहत अदालत ने कहा कि कोर्ट से दोषी करार जन प्रतिनिधियों की सदस्यता तत्काल प्रभाव से खत्म हो जाएगी।एक अन्य निर्णय के तहत देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि जेल में रहने पर कोई व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकेगा।
क्या इस देश के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच इस फैसले पर खुशी और नाखुशी का यही अनुपात है ?हमारे नेतागण आम लोगों के विचारों के कितने पास या कितने दूर हैं ? टी.वी चैनलों पर नेताओं के उद्गारों और अखबारों में उनके बयानों से इस सवाल का जवाब मिल जाएगा।
इस देश में जब भी हाई टेक और शहरी विकास की चर्चा चलती है तो कुछ नेतागण तुरंत यह बयान दे देते हैं कि ‘देखा न, हाईटेक के कारण किस तरह चंद्र बाबू नायडु चुनाव हार गये ! ’
ऐसे बयान संभवतः आंध्र प्रदेश में तब के चुनावी समीकरण की गैर जानकारी के कारण आते रहते हैं।याद रहे कि आंध्र प्रदेश में लोक सभा और विधान सभा के चुनाव साथ -साथ ही होते हैं।
1999 के चुनाव में नायडु के दल को 44 प्रतिशत वोट मिले थे।उसमें अल्पसंख्यकों के वोट भी शामिल थे।नायडु मुख्य मंत्री बने थे।नायडु का दल केंद्र में अटल सरकार का बाहर से समर्थन कर रहा था।
इस बीच 2002 में गुजरात में सांप्रदायिक दंगा हो गया।आंध्र के अल्पसंख्यक नेताओं ने नायडु से कहा कि आप अब अटल सरकार से अपना समर्थन वापस कर लें।नायडु ने ऐसा नहीं किया।नतीजतन आंध्र के अल्पसंख्यकों ने 2004 के चुनाव में नायडु के दल तेलुगु देशम पार्टी को वोट नहीं दिया। इस कारण टी.डी.पी.का वोट प्रतिशत 44 से घटकर 37 रह गया।
नतीजतन नायडु सत्ता से बाहर हो गये । अब सवाल उठता है कि क्या 37 प्रतिशत वोट उन्हें सिर्फ शहरों से मिले थे ? क्या ये मत सिर्फ हाई टेक के कारण मिले थे ? क्या आंध्र में शहरों और हाईटेक के समर्थकों के वोट मिल कर भी 37 प्रतिशत हो सकते हैं ? हां, नौ प्रतिशत अल्पसंख्यक आबादी वाले राज्य में 7 प्रतिशत मतों के कम हो जाने का सीधा मतलब यही था कि वहां भी गुजरात दंगे का असर पड़ गया।ऐसे में हाईटेक और शहरी विकास के क्षेत्र में भी काम करने वाले नेताओं को भयभीत करना सही नहीं होगा।किसी दल की जीत या हार में एक साथ कई तत्व काम करते हैं।
सुख-शांति के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा यह है कि हमारे पास जो कुछ है,उसे हम कम करके देखते हैं।साथ ही,जो कुछ दूसरे के पास है,उसके बारे में हम बढ़ा -चढ़ाकर आकलन करते हैं।
(जुलाई 2013)
तब नियमतः खर्च की अधिकत्तम सीमा 25 लाख थी ।वह सीमा 2011 में बढ़ कर 40 लाख रुपये हो गई। उसी साल मिलिंद देवड़ा ने अपना चुनावी खर्च 10 लाख 63 हजार रुपये बताया तो राहुल गांधी ने 11 लाख 8 हजार रुपये।सुषमा स्वराज ने 8 लाख 92 हजार रुपये बताया तो शरद यादव ने 15 लाख 89 हजार रुपये।
अब भला बताइए कि जब मुंडे को आठ करोड़ खर्च करने पड़े तो उसी राज्य से विजयी बड़े नेता शरद पवार को कितने रुपये खर्च करने पड़े होंगे ! यह खुला सत्य है कि इस देश के अधिकतर नेतागण खर्च तो करोड़ों में करते हैं और आयोग को जो व्योरा देते हैं,वह तय सीमा के भीतर का ही होता है।
आखिर ऐसा असत्य व अविश्वसनीय आंकड़ा देश के बड़े-बड़े नेता लोग क्यों चुनाव आयोग को समर्पित करते हैं ? यह तो एक मामूली उदाहरण है। ऐसे-ऐसे अनेक कारनामों के कारण इस देश के अधिकतर नेताओं पर से जनता का विश्वास उठता जा रहा है।पर, जनता भी आखिर क्या करे ! आखिर उसे इन्हीं नेताओं में से किसी न किसी को हर पांच साल पर चुुनना पड़ता है।ऐसे में राजनीति और चुनाव प्रक्रिया को सुधारने के लिए सुप्रीम कोर्ट कोई निदेश देता है तो आम लोगों को बड़ी खुशी होती है।पर अधिकतर नेतागण उस फैसले से नाराज हो उठते हैं।एक बार फिर यही हो रहा है।
सुधार के खिलाफ राजनीतिक वर्ग
सुप्रीम कोर्ट के साथ जनता
एक राष्ट्रीय अखबार ने हाल में अपने पाठकों से एक सवाल पूछा।वह सवाल यह था कि ‘ क्या आप सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से खुश हैं कि अब जेल में रहने वाले नेता चुनाव नहीं लड़ पाएंगे ? इसके जवाब में 96 दशमलव 70 प्रतिशत पाठकों ने कहा कि हम खुश हैं। सिर्फ 3 दशमलव 30 प्रतिशत पाठकों ने अपनी नाखुशी जाहिर की।क्या इस देश के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच इस फैसले पर खुशी और नाखुशी का यही अनुपात है ?हमारे नेतागण आम लोगों के विचारों के कितने पास या कितने दूर हैं ? टी.वी चैनलों पर नेताओं के उद्गारों और अखबारों में उनके बयानों से इस सवाल का जवाब मिल जाएगा।
नायडु के साथ अन्याय
ऐसे बयान संभवतः आंध्र प्रदेश में तब के चुनावी समीकरण की गैर जानकारी के कारण आते रहते हैं।याद रहे कि आंध्र प्रदेश में लोक सभा और विधान सभा के चुनाव साथ -साथ ही होते हैं।
1999 के चुनाव में नायडु के दल को 44 प्रतिशत वोट मिले थे।उसमें अल्पसंख्यकों के वोट भी शामिल थे।नायडु मुख्य मंत्री बने थे।नायडु का दल केंद्र में अटल सरकार का बाहर से समर्थन कर रहा था।
इस बीच 2002 में गुजरात में सांप्रदायिक दंगा हो गया।आंध्र के अल्पसंख्यक नेताओं ने नायडु से कहा कि आप अब अटल सरकार से अपना समर्थन वापस कर लें।नायडु ने ऐसा नहीं किया।नतीजतन आंध्र के अल्पसंख्यकों ने 2004 के चुनाव में नायडु के दल तेलुगु देशम पार्टी को वोट नहीं दिया। इस कारण टी.डी.पी.का वोट प्रतिशत 44 से घटकर 37 रह गया।
नतीजतन नायडु सत्ता से बाहर हो गये । अब सवाल उठता है कि क्या 37 प्रतिशत वोट उन्हें सिर्फ शहरों से मिले थे ? क्या ये मत सिर्फ हाई टेक के कारण मिले थे ? क्या आंध्र में शहरों और हाईटेक के समर्थकों के वोट मिल कर भी 37 प्रतिशत हो सकते हैं ? हां, नौ प्रतिशत अल्पसंख्यक आबादी वाले राज्य में 7 प्रतिशत मतों के कम हो जाने का सीधा मतलब यही था कि वहां भी गुजरात दंगे का असर पड़ गया।ऐसे में हाईटेक और शहरी विकास के क्षेत्र में भी काम करने वाले नेताओं को भयभीत करना सही नहीं होगा।किसी दल की जीत या हार में एक साथ कई तत्व काम करते हैं।
और अंत में
(जुलाई 2013)
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