एक अध्ययन के अनुसार दक्षिण भारत के तीन राज्य चुनावी घूसखोरी के मामले में
अब तक देश में सबसे आगे रहे हैं। इस बार बिहार में भी कोई अच्छे संकेत नहीं हैं। यहां इस बार प्रचार में जितने अधिक पैसे खर्च हो रहे हैं,वह तो अभूतपूर्व है। इस राज्य (Bihar) में भी घूस देकर वोट लेने के छिटपुट प्रयास पहले भी होते रहे हैं।
कई बार उम्मीदवार इस प्रयास में सफल होते रहे हैं तो कई बार विफल।विफल इसलिए भी होते हैं क्योंकि यह राजनीतिक रुप से अत्यंत जागरुक प्रदेश है।
यहां अधिकतर मतदाताओं के दिलो दिमाग पर पैसे के अलावा दूसरे तत्व अधिक हावी रहते हैं।पर इस बार क्या होगा ?कई बार प्रलोभनों की अधिकता के बीच कई लोगों के संयम टूट जाते हंै। इस बार जितनी बड़ी संख्या में धनवान उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं,उससे भी यह सवाल उठता है।
विधान परिषद के हाल के चुनाव में भी पैसे का खूब खेल चला। सवाल है कि क्या इस मामले में दक्षिण भारत ही अब भी आगे रहेगा ? या फिर बिहार उसका एकाधिकार तोड़ेगा ? इस पृष्ठभूमि में चुनाव आयोग की जिम्मेदारी बढ़ गई है।उसकी प्रतिष्ठा दांव पर है।
सन 1962 के आम चुनाव में सहरसा लोक सभा क्षेत्र में समाजवादी नेता भूपंेद्र नारायण मंडल ने कांग्रेस के ललित नारायण मिश्र को हराया था। पर इस चुनाव के खिलाफ याचिका दायर की गई।आरोप लगा कि भूपेंद्र नारायण मंडल की ओर से वोट के लिए जातीय आधार पर मतदाताओं से अपील की गई थी। मंडल जी का चुनाव खारिज हो गया था।
एक पुराने समाजवादी नेता ने बताया कि आज विधान सभा चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह से कुछ नेतागण वोट के लिए मतदाताओं की जातीय और धार्मिक भावनाएं उभारने की कोशिश कर रहे हैं, वे 1962 की अपेक्षा अधिक प्रत्यक्ष और भोंड़ा है।
कल्पना कीजिए कि इस चुनाव के बाद इस आधार पर चुनाव याचिकाएं दायर होने लगें तो क्या होगा ?
क्या पराजित उम्मीदवार इस आधार पर चुनाव याचिका दायर नहीं कर सकता कि किसी राष्ट्रीय या प्रादेशिक नेता ने हमारे चुनाव क्षेत्र में आयोजित अपनी सभा में धार्मिक या जातीय भावना उभारी और उसका लाभ उठाकर प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार जीत गया ?
इस आरोप पर पता नहीं अदालत कैसा रुख अपनाएगी ? इस आशंका को ध्यान में रखते हुए कम से कम चुनाव प्रचार के अगले दौर में तो जातीय और धार्मिक भावनाएं उभारने का प्रयास बंद हो जाना चाहिए।
वंशवादी राजनीति की आंधी में एक वंशवाद विरोधी नेता आज भी अडिग खड़ा है।
वह नेता हैं राजद के जगदानंद सिंह। जरा ऐसे लोगों की भी चर्चा कर लेनी चाहिए।
राज्य के पूर्व सिंचाई मंत्री श्री सिंह 2009 में बक्सर से लोक सभा के लिए चुन लिए गए थे।
इस कारण उन्हें विधान सभा की अपनी सीट खाली करनी पड़ी थी।
जानकार सूत्रों के अनुसार राजद ने उनसे कहा था कि आप अपने पुत्र को उप चुनाव में खड़ा करा दीजिए। पर,जगदानंद ने मना कर दिया।
राजपूत वर्चस्व वाले रामगढ़ चुनाव क्षेत्र से जगदानंद ने एक कार्यकत्र्ता अम्बिका सिंह यादव को राजद का उम्मीदवार बनवा दिया। जगदानंद के पुत्र पिता से विद्रोह करके भाजपा से खड़ा हो गए। उन्होंने अपने पुत्र को हरवाकर राजद उम्मीदवार को जितवा दिया।
याद रहे कि 1952 से अब तक किसी भी महत्वपूर्ण पार्टी ने रामगढ़ से किसी यादव उम्मीदवार को खड़ा तक नहीं किया था।
गत लोक सभा चुनाव में जगदानंद हार गए। इन दिनों लोकसभा चुनाव में पराजित कुछ नेता भी विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं। क्योंकि किसी सदन का सदस्य बन जाने के बाद आज के अधिकतर नेतागण एक खास तरह की जीवनशैली अपना लेते हैं। वे उसे बनाये रखने के लिए किसी न किसी सदन मेें जल्द से जल्द प्रवेश चाहते हैं।
पर,इस बार भी जगदानंद ने अपने पुत्र को अपने दल से खड़ा नहीं कराया। न ही अम्बिका यादव का टिकट कटवा कर वे खुद लड़े।
कुछ दशक पहले तक कई राजनीतिक दल अपने कार्यकत्र्ताओं के लिए अक्सर राजनीतिक प्रशिक्षण शिविर आयोजित करते थे।वह सब अब लगभग बंद है। चुनाव भी कार्यकत्र्ताओं को शिक्षित-प्रशिक्षित करने के अवसर होते थे।आज के चुनाव में जो कुछ हो रहे हैं,उनसे राजनीतिक कार्यकत्र्तागण कैसी शिक्षा ग्रहण करेंगे ?कौन-कौन से र्गिर्हत शब्द ग्रहण करेंगे ? पता नहीं।
(दैनिक भास्कर, पटना - 17 अक्तूबर,2015)
अब तक देश में सबसे आगे रहे हैं। इस बार बिहार में भी कोई अच्छे संकेत नहीं हैं। यहां इस बार प्रचार में जितने अधिक पैसे खर्च हो रहे हैं,वह तो अभूतपूर्व है। इस राज्य (Bihar) में भी घूस देकर वोट लेने के छिटपुट प्रयास पहले भी होते रहे हैं।
कई बार उम्मीदवार इस प्रयास में सफल होते रहे हैं तो कई बार विफल।विफल इसलिए भी होते हैं क्योंकि यह राजनीतिक रुप से अत्यंत जागरुक प्रदेश है।
यहां अधिकतर मतदाताओं के दिलो दिमाग पर पैसे के अलावा दूसरे तत्व अधिक हावी रहते हैं।पर इस बार क्या होगा ?कई बार प्रलोभनों की अधिकता के बीच कई लोगों के संयम टूट जाते हंै। इस बार जितनी बड़ी संख्या में धनवान उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं,उससे भी यह सवाल उठता है।
विधान परिषद के हाल के चुनाव में भी पैसे का खूब खेल चला। सवाल है कि क्या इस मामले में दक्षिण भारत ही अब भी आगे रहेगा ? या फिर बिहार उसका एकाधिकार तोड़ेगा ? इस पृष्ठभूमि में चुनाव आयोग की जिम्मेदारी बढ़ गई है।उसकी प्रतिष्ठा दांव पर है।
बिगड़े बोल कहीं बिगाड़ न दे किया-धरा !
एक पुराने समाजवादी नेता ने बताया कि आज विधान सभा चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह से कुछ नेतागण वोट के लिए मतदाताओं की जातीय और धार्मिक भावनाएं उभारने की कोशिश कर रहे हैं, वे 1962 की अपेक्षा अधिक प्रत्यक्ष और भोंड़ा है।
कल्पना कीजिए कि इस चुनाव के बाद इस आधार पर चुनाव याचिकाएं दायर होने लगें तो क्या होगा ?
क्या पराजित उम्मीदवार इस आधार पर चुनाव याचिका दायर नहीं कर सकता कि किसी राष्ट्रीय या प्रादेशिक नेता ने हमारे चुनाव क्षेत्र में आयोजित अपनी सभा में धार्मिक या जातीय भावना उभारी और उसका लाभ उठाकर प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार जीत गया ?
इस आरोप पर पता नहीं अदालत कैसा रुख अपनाएगी ? इस आशंका को ध्यान में रखते हुए कम से कम चुनाव प्रचार के अगले दौर में तो जातीय और धार्मिक भावनाएं उभारने का प्रयास बंद हो जाना चाहिए।
वंशवाद की आंधी के बीच अडिग
वह नेता हैं राजद के जगदानंद सिंह। जरा ऐसे लोगों की भी चर्चा कर लेनी चाहिए।
राज्य के पूर्व सिंचाई मंत्री श्री सिंह 2009 में बक्सर से लोक सभा के लिए चुन लिए गए थे।
इस कारण उन्हें विधान सभा की अपनी सीट खाली करनी पड़ी थी।
जानकार सूत्रों के अनुसार राजद ने उनसे कहा था कि आप अपने पुत्र को उप चुनाव में खड़ा करा दीजिए। पर,जगदानंद ने मना कर दिया।
राजपूत वर्चस्व वाले रामगढ़ चुनाव क्षेत्र से जगदानंद ने एक कार्यकत्र्ता अम्बिका सिंह यादव को राजद का उम्मीदवार बनवा दिया। जगदानंद के पुत्र पिता से विद्रोह करके भाजपा से खड़ा हो गए। उन्होंने अपने पुत्र को हरवाकर राजद उम्मीदवार को जितवा दिया।
याद रहे कि 1952 से अब तक किसी भी महत्वपूर्ण पार्टी ने रामगढ़ से किसी यादव उम्मीदवार को खड़ा तक नहीं किया था।
गत लोक सभा चुनाव में जगदानंद हार गए। इन दिनों लोकसभा चुनाव में पराजित कुछ नेता भी विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं। क्योंकि किसी सदन का सदस्य बन जाने के बाद आज के अधिकतर नेतागण एक खास तरह की जीवनशैली अपना लेते हैं। वे उसे बनाये रखने के लिए किसी न किसी सदन मेें जल्द से जल्द प्रवेश चाहते हैं।
पर,इस बार भी जगदानंद ने अपने पुत्र को अपने दल से खड़ा नहीं कराया। न ही अम्बिका यादव का टिकट कटवा कर वे खुद लड़े।
और अंत में
(दैनिक भास्कर, पटना - 17 अक्तूबर,2015)
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