बिहार चुनाव का नतीजा एक महीना पहले आ गया था। इतना समय बीत जाने के बावजूद उसके नतीजों के कारणों को लेकर कुछ हलकों में अब भी कन्फ्यूजन बना हुआ है। या, फिर यह कन्फ्यूजन भी राजनीतिक ही है?
इस संबंध में ताजा बयान पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती और माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य के आये हैं। जानकार लोगों के अनुसार इन बयानों से भी सही नतीजों तक पहुंचने में मदद नहीं मिलती।
पहले के अधिकतर बयान भी ऐसे ही थे। हालांकि दोनों पक्षों में कुछ नेता ऐसे जरूर हैं जो हकीकत जानते हैं। चुनाव हारने वाले को हार के सही कारणों की जानकारी होनी ही चाहिए। इससे उसे आगे की राह तय करने में सुविधा होती है। जीतने वाले दल को आगे भी विजयी होते जाने की राह मिलती है।
पर बिहार विधानसभा चुनाव के बाद दोनों पक्षों के अनेक नेताओं को रिजल्ट के असली कारणों का पता ही नहीं है। उनके बयानों से तो यही लगता है।
2004 में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार तब लोकसभा चुनाव में हार गयी थी। उससे पहले राजग सरकार ने इंडिया साइनिंग का नारा दिया था।
अटल के कार्यकाल में कई अच्छे काम हुए भी थे। आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडु की राज्य सरकार ने भी बहुत अच्छे काम किये थे। लोकसभा चुनाव के साथ ही आंध्र में विधानसभा का चुनाव भी हुआ था। तब नायडु का दल भी सत्ता से बाहर हो गया था।
तब कांग्रेस को लगा था कि विकास से वोट नहीं मिलते। अनेक बुद्धिजीवियों ने ऐसा ही प्रचार भी किया था। वे कहते थे कि दलीय व जातीय समीकरण से वोट मिलते हैं। पर,यह अधूरा सच था।
अटल सरकार और नायडु सरकार की हार का कारण दूसरा था। उसने विकास पर तो ध्यान दिया, पर जातीय समीकरण को नजरअंदाज कर दिया। याद रहे कि आम तौर पर क्षेत्रीय दल जातीय पहचान का प्रतिनिधित्व करते हैं। भाजपा ने 2004 के चुनाव से ठीक पहले एक-एक करके अपने कई सहयोगी दलों को राजग से अलग हो जाने पर मजबूर कर दिया था। 2004 में आंध्र में नायडु इसलिए हारे क्योंकि अल्पसंख्यक मतदताओं ने नायडु सरकार का साथ छोड़ दिया था। नायडु के विकास की हार नहीं थी। उन्हें फिर भी 37 प्रतिशत मत मिले थे।
2004 में कांग्रेसनीत यू.पी.ए. सरकार बनी। आंध में भी कांगे्रस की सरकार बनी। इन दोनों सरकारों ने नायडु और अटल सरकारों के विकास और सुशासन से कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की। दोनों सरकारेंं भ्रष्टाचार में डूब गयीं।
यू.पी.ए. सरकार के कार्यकाल में महाघोटालों की बाढ़ आ गयी। साथ ही एकपक्षीय धर्मनिरपेक्षता अभियान चलाया गया। नरेंद्र मोदी ने इसका लाभ उठाया।
बिहार की ताजा जीत में सुशासन, विकास और मजबूत सामाजिक समीकरण की मुख्य भूमिका थी। अन्य तत्वों की भूमिका कम थी। हां,नीतीश कुमार के रूप में एक प्रामाणिक नेतृत्व मतदाताओं के सामने था।
निष्पक्ष प्रेक्षकों के अनुसार महागठबंधन की जीत में संघ प्रमुख मोहन भागवत के उस बयान ने निर्णायक भूमिका निभाई जिसमें उन्होंने आरक्षण की समीक्षा करने की जरूरत बताई थी।
एक चुनाव पूर्व सर्वेक्षण के अनुसार राजग को बिहार में महागठबंधन पर करीब चार प्रतिशत की बढ़त मिल रही थी। पर भागवत के आरक्षण पर लगातार तीन बयानों के बाद स्थिति बदल गयी। यहां तक कि दलितों पर भी इस बयान का असर पड़ा। इसके बावजूद नतीजे आने के बाद भाजपा के नेतृत्व से नाराज नेतागण हार के लिए नरेंद्र मोदी, अमित शाह और बिहार भाजपा के नेतृत्व को दोषी ठहराने लगे।
हां, बिहार चुनाव का एक बड़ा सबक भाजपा के लिए है। भाजपा नेतृत्व आरक्षण के दायरे में आने वाले लोगों को अपने कर्मों के जरिए विश्वास दिलाये। यह कि न सिर्फ वह आरक्षण का बिना शर्त समर्थन करता है बल्कि उन लोगों के लिए अब कुछ अधिक ही करना चाहता है।
एक समाजशास्त्री ने केंद्र की भाजपानीत सरकार को यह सलाह दी थी कि वह 27 प्रतिशत आरक्षण में से अति पिछड़ों के लिए 15 प्रतिशत सीटें अलग से आरक्षित कर दे। पर केंद्र सरकार ने इस सलाह पर अभी ध्यान नहीं दिया है। सरकार को दलितों के लिए भी कुछ खास करना पड़ेगा अन्यथा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी भाजपा का हाल बिहार जैसा ही हो सकता है।
क्या भाजपा देश की इस सामाजिक सच्चाई को अब भी समझेगी? दरअसल आरक्षण को लेकर भाजपा का इतिहास संदिग्ध रहा है। मंडल आरक्षण लागू करने वाले वी.पी. सिंह की सरकार भाजपा ने ही 1990 में गिरा दी थी।
शायद पिछड़ों-दलितों के लिए कुछ खास करना नहीं पड़े, शायद इसीलिए भी भाजपा के अनेक नेता मोहन भागवत को जिम्मेदार नहीं मान रहे हैं। जबकि जिन भाजपा नेताओं ने अपने पुत्रों को बिहार विधानसभा चुनाव में खड़ा करा रखा था, उन्होंने जरूर भागवत को जिम्मेदार ठहराया था। ये नेता अपने पुत्र के लिए चुनाव प्रचार के दौरान जनता के काफी करीब गये थे।
अधिकतर भाजपा नेता तो भागवत पर अंगुली उठाने से डरते हैं। कुछ भाजपा नेताओं को नरेंद्र मोदी-अमित शाह से बदला लेने का बहाना भी मिल गया है।
इसी तरह महागठबंधन के दल भी जीत के सही कारणों को नहीं समझेंगे तो उन्हें आगे भी चुनावी जीत हासिल करते रहने में दिक्कत आएगी।
दरअसल चुनावी राजनीति के साथ समस्या यह है कि नतीजे का विश्लेषण अक्सर वस्तुपरक की जगह व्यक्तिपरक होकर किया जाता है।
अब रही महबूबा और दीपंकर की बातें तो वे अपनी बनी-बनायी राजनीतिक लाइन के अनुसार ही बयान दे रहे थे।
माले महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य राम मंदिर पर भागवत के बयान की चर्चा करते हुए हाल में कहा कि बिहार में शिकस्त के बावजूद भाजपा ने कुछ नहीं सीखा है।
उधर महबूबा मुफ्ती ने शनिवार को कहा कि बिहार के नतीजों ने वैसे तत्वों को अच्छा सबक सिखाया जो हिन्दुत्व के नाम पर राष्ट्रवाद का दुरुपयोग कर रहे हैं। महबूबा का इशारा भाजपा के उन कुछ अतिवादी नेताओं की ओर था जो अपने विवादास्पद बयानों से उत्तेजना पैदा करते रहते हैं। पर जानकार लोगों के अनुसार वे तत्व इस बार कोई कारगर भूमिका नहीं निभा सके। बल्कि उससे पहले लोकसभा चुनाव में वैसे बयानों ने कुछ मतदाताओं की भावनाएं भड़काई थीं। बिहार विधानसभा चुनाव में हिन्दुत्व के मुद्दों की अपेक्षा आरक्षण तथा अन्य तत्व काफी अधिक महत्वपूर्ण रहे। पर यह समझने से कुछ नेता अब भी इनकार कर रहे हैं।
इस संबंध में ताजा बयान पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती और माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य के आये हैं। जानकार लोगों के अनुसार इन बयानों से भी सही नतीजों तक पहुंचने में मदद नहीं मिलती।
पहले के अधिकतर बयान भी ऐसे ही थे। हालांकि दोनों पक्षों में कुछ नेता ऐसे जरूर हैं जो हकीकत जानते हैं। चुनाव हारने वाले को हार के सही कारणों की जानकारी होनी ही चाहिए। इससे उसे आगे की राह तय करने में सुविधा होती है। जीतने वाले दल को आगे भी विजयी होते जाने की राह मिलती है।
पर बिहार विधानसभा चुनाव के बाद दोनों पक्षों के अनेक नेताओं को रिजल्ट के असली कारणों का पता ही नहीं है। उनके बयानों से तो यही लगता है।
2004 में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार तब लोकसभा चुनाव में हार गयी थी। उससे पहले राजग सरकार ने इंडिया साइनिंग का नारा दिया था।
अटल के कार्यकाल में कई अच्छे काम हुए भी थे। आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडु की राज्य सरकार ने भी बहुत अच्छे काम किये थे। लोकसभा चुनाव के साथ ही आंध्र में विधानसभा का चुनाव भी हुआ था। तब नायडु का दल भी सत्ता से बाहर हो गया था।
तब कांग्रेस को लगा था कि विकास से वोट नहीं मिलते। अनेक बुद्धिजीवियों ने ऐसा ही प्रचार भी किया था। वे कहते थे कि दलीय व जातीय समीकरण से वोट मिलते हैं। पर,यह अधूरा सच था।
अटल सरकार और नायडु सरकार की हार का कारण दूसरा था। उसने विकास पर तो ध्यान दिया, पर जातीय समीकरण को नजरअंदाज कर दिया। याद रहे कि आम तौर पर क्षेत्रीय दल जातीय पहचान का प्रतिनिधित्व करते हैं। भाजपा ने 2004 के चुनाव से ठीक पहले एक-एक करके अपने कई सहयोगी दलों को राजग से अलग हो जाने पर मजबूर कर दिया था। 2004 में आंध्र में नायडु इसलिए हारे क्योंकि अल्पसंख्यक मतदताओं ने नायडु सरकार का साथ छोड़ दिया था। नायडु के विकास की हार नहीं थी। उन्हें फिर भी 37 प्रतिशत मत मिले थे।
2004 में कांग्रेसनीत यू.पी.ए. सरकार बनी। आंध में भी कांगे्रस की सरकार बनी। इन दोनों सरकारों ने नायडु और अटल सरकारों के विकास और सुशासन से कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की। दोनों सरकारेंं भ्रष्टाचार में डूब गयीं।
यू.पी.ए. सरकार के कार्यकाल में महाघोटालों की बाढ़ आ गयी। साथ ही एकपक्षीय धर्मनिरपेक्षता अभियान चलाया गया। नरेंद्र मोदी ने इसका लाभ उठाया।
बिहार की ताजा जीत में सुशासन, विकास और मजबूत सामाजिक समीकरण की मुख्य भूमिका थी। अन्य तत्वों की भूमिका कम थी। हां,नीतीश कुमार के रूप में एक प्रामाणिक नेतृत्व मतदाताओं के सामने था।
निष्पक्ष प्रेक्षकों के अनुसार महागठबंधन की जीत में संघ प्रमुख मोहन भागवत के उस बयान ने निर्णायक भूमिका निभाई जिसमें उन्होंने आरक्षण की समीक्षा करने की जरूरत बताई थी।
एक चुनाव पूर्व सर्वेक्षण के अनुसार राजग को बिहार में महागठबंधन पर करीब चार प्रतिशत की बढ़त मिल रही थी। पर भागवत के आरक्षण पर लगातार तीन बयानों के बाद स्थिति बदल गयी। यहां तक कि दलितों पर भी इस बयान का असर पड़ा। इसके बावजूद नतीजे आने के बाद भाजपा के नेतृत्व से नाराज नेतागण हार के लिए नरेंद्र मोदी, अमित शाह और बिहार भाजपा के नेतृत्व को दोषी ठहराने लगे।
हां, बिहार चुनाव का एक बड़ा सबक भाजपा के लिए है। भाजपा नेतृत्व आरक्षण के दायरे में आने वाले लोगों को अपने कर्मों के जरिए विश्वास दिलाये। यह कि न सिर्फ वह आरक्षण का बिना शर्त समर्थन करता है बल्कि उन लोगों के लिए अब कुछ अधिक ही करना चाहता है।
एक समाजशास्त्री ने केंद्र की भाजपानीत सरकार को यह सलाह दी थी कि वह 27 प्रतिशत आरक्षण में से अति पिछड़ों के लिए 15 प्रतिशत सीटें अलग से आरक्षित कर दे। पर केंद्र सरकार ने इस सलाह पर अभी ध्यान नहीं दिया है। सरकार को दलितों के लिए भी कुछ खास करना पड़ेगा अन्यथा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी भाजपा का हाल बिहार जैसा ही हो सकता है।
क्या भाजपा देश की इस सामाजिक सच्चाई को अब भी समझेगी? दरअसल आरक्षण को लेकर भाजपा का इतिहास संदिग्ध रहा है। मंडल आरक्षण लागू करने वाले वी.पी. सिंह की सरकार भाजपा ने ही 1990 में गिरा दी थी।
शायद पिछड़ों-दलितों के लिए कुछ खास करना नहीं पड़े, शायद इसीलिए भी भाजपा के अनेक नेता मोहन भागवत को जिम्मेदार नहीं मान रहे हैं। जबकि जिन भाजपा नेताओं ने अपने पुत्रों को बिहार विधानसभा चुनाव में खड़ा करा रखा था, उन्होंने जरूर भागवत को जिम्मेदार ठहराया था। ये नेता अपने पुत्र के लिए चुनाव प्रचार के दौरान जनता के काफी करीब गये थे।
अधिकतर भाजपा नेता तो भागवत पर अंगुली उठाने से डरते हैं। कुछ भाजपा नेताओं को नरेंद्र मोदी-अमित शाह से बदला लेने का बहाना भी मिल गया है।
इसी तरह महागठबंधन के दल भी जीत के सही कारणों को नहीं समझेंगे तो उन्हें आगे भी चुनावी जीत हासिल करते रहने में दिक्कत आएगी।
दरअसल चुनावी राजनीति के साथ समस्या यह है कि नतीजे का विश्लेषण अक्सर वस्तुपरक की जगह व्यक्तिपरक होकर किया जाता है।
अब रही महबूबा और दीपंकर की बातें तो वे अपनी बनी-बनायी राजनीतिक लाइन के अनुसार ही बयान दे रहे थे।
माले महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य राम मंदिर पर भागवत के बयान की चर्चा करते हुए हाल में कहा कि बिहार में शिकस्त के बावजूद भाजपा ने कुछ नहीं सीखा है।
उधर महबूबा मुफ्ती ने शनिवार को कहा कि बिहार के नतीजों ने वैसे तत्वों को अच्छा सबक सिखाया जो हिन्दुत्व के नाम पर राष्ट्रवाद का दुरुपयोग कर रहे हैं। महबूबा का इशारा भाजपा के उन कुछ अतिवादी नेताओं की ओर था जो अपने विवादास्पद बयानों से उत्तेजना पैदा करते रहते हैं। पर जानकार लोगों के अनुसार वे तत्व इस बार कोई कारगर भूमिका नहीं निभा सके। बल्कि उससे पहले लोकसभा चुनाव में वैसे बयानों ने कुछ मतदाताओं की भावनाएं भड़काई थीं। बिहार विधानसभा चुनाव में हिन्दुत्व के मुद्दों की अपेक्षा आरक्षण तथा अन्य तत्व काफी अधिक महत्वपूर्ण रहे। पर यह समझने से कुछ नेता अब भी इनकार कर रहे हैं।
(08 दिसंबर, 2015 के दैनिक भास्कर, पटना से साभार )
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