चुनावी टिकट के लिए अपनी पार्टी कौन कहे, आज कुछ नेता तो अपने रिश्तेदारों तक से भी बगावत पर उतारू हैं। राजनीति में गिरावट की इंतिहा वाले इस दौर में पचास साल पहले की एक राजनीतिक घटना को याद कर लेना मौजूं होगा। तब एक नेता ने देशहित में केंद्रीय कैबिनेट तक से इस्तीफा दे दिया था।
ऐसे समय पर उस घटना को याद करना और भी जरुरी है क्योंकि इन दिनों अपना देश 1965 के युद्ध की स्वर्ण जयंती मना रहा है।
नई पीढ़ी के लिए यह जानना जरुरी है कि हमारे नेताओं ने 50 साल में राजनीति को कहां से कहां पहुंचा दिया है। आज खुलेआम कई बड़े नेताओें पर आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने पैसे लेकर टिकट बेच दिए।
1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ था। 1962 में चीन के हाथों पराजय के तीन ही साल बाद 1965 के युद्ध में भारत को भारी कामयाबी मिली थी। पर, ताशकंद समझौते से वह कामयाबी कायम नहीं रह सकी।
तत्कालीन केंद्रीय पुनर्वास मंत्री महावीर त्यागी इस बात के सख्त खिलाफ थे कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ताशकंंद समझौते पर मुहर लगाए।
उस समझौते मंे पाकिस्तान की जीती हुई जमीन वापस कर देनी थी। मंत्रिमंडल को अमादा देख त्यागी जी ने मंत्रिमंडल से ही इस्तीफा दे दिया। उन्होंने कहा था कि ‘मैं ताशकंद समझौते के ध्येय से सहमत हूं। पर समझौते में कुछ बातें ऐसी हैं जो हमारी सरकार और हमारी पार्टी की ओर से सितंबर, 1965 के बाद की गई घोषणाओं के विपरीत हंै।
5 अगस्त, 1965 को जीती हुई हाजी पीर की चैकियों को छोड़ना भयंकर भूल होगी, विशेषकर जबतक पाकिस्तान अपने छापामारों, गुप्तचरों और बिना वर्दी के हथियारबंद सैनिकों को वापस बुलाने और भविष्य में ऐसे आक्रमण न करने को राजी नहीं होता है।
त्यागी जी ने यह भी कहा था कि हाजी पीर सैनिक दृष्टि से इतना महत्व का स्थान है कि जिस सेना का इस मोर्चे पर कब्जा होगा, उसे किसी भी हालत में हटाना संभव नहीं होगा। बिना इस मोर्चे को अपने हाथ में लिए हमें कश्मीर के उस हिस्से को अपने कब्जे में लेना असंभव है जिसको पाकिस्तान ने हड़प रखा है।
याद रहे कि युद्ध के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने कई बार यह घोषणा की थी कि कश्मीर की वह भूमि, जिसका पाकिस्तान ने अपहरण कर लिया था और जिसे हमने इस युद्ध में पाकिस्तान से छीन लिया है, उसे हम किसी भी शत्र्त पर नहीं लौटाएंगे।
यह और बात है कि किसी खास परिस्थिति में उन्हें ताशकंद समझौता करना पड़ा। पर उसके लिए महावीर त्यागी जिम्मेदार नहीं थे। वह मंत्रिमंडल में आराम से बने रह सकते थे। पर उन्होंने जब महसूस किया कि हाजी पीर लौटाना देश की सुरक्षा के लिए उचित नहीं है तो उन्होंने मंत्री पद को ठोकर मार दी।
आज बिहार चुनावी टिकट के लिए बेशर्मी का नंगा नाच कर रहे अनेक नेतागण महावीर त्यागी के त्याग की कहानी पढ़कर थोड़ा भी शर्म करेंगे ? पता नहीं !
ऐसे समय पर उस घटना को याद करना और भी जरुरी है क्योंकि इन दिनों अपना देश 1965 के युद्ध की स्वर्ण जयंती मना रहा है।
नई पीढ़ी के लिए यह जानना जरुरी है कि हमारे नेताओं ने 50 साल में राजनीति को कहां से कहां पहुंचा दिया है। आज खुलेआम कई बड़े नेताओें पर आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने पैसे लेकर टिकट बेच दिए।
1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ था। 1962 में चीन के हाथों पराजय के तीन ही साल बाद 1965 के युद्ध में भारत को भारी कामयाबी मिली थी। पर, ताशकंद समझौते से वह कामयाबी कायम नहीं रह सकी।
तत्कालीन केंद्रीय पुनर्वास मंत्री महावीर त्यागी इस बात के सख्त खिलाफ थे कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ताशकंंद समझौते पर मुहर लगाए।
उस समझौते मंे पाकिस्तान की जीती हुई जमीन वापस कर देनी थी। मंत्रिमंडल को अमादा देख त्यागी जी ने मंत्रिमंडल से ही इस्तीफा दे दिया। उन्होंने कहा था कि ‘मैं ताशकंद समझौते के ध्येय से सहमत हूं। पर समझौते में कुछ बातें ऐसी हैं जो हमारी सरकार और हमारी पार्टी की ओर से सितंबर, 1965 के बाद की गई घोषणाओं के विपरीत हंै।
5 अगस्त, 1965 को जीती हुई हाजी पीर की चैकियों को छोड़ना भयंकर भूल होगी, विशेषकर जबतक पाकिस्तान अपने छापामारों, गुप्तचरों और बिना वर्दी के हथियारबंद सैनिकों को वापस बुलाने और भविष्य में ऐसे आक्रमण न करने को राजी नहीं होता है।
त्यागी जी ने यह भी कहा था कि हाजी पीर सैनिक दृष्टि से इतना महत्व का स्थान है कि जिस सेना का इस मोर्चे पर कब्जा होगा, उसे किसी भी हालत में हटाना संभव नहीं होगा। बिना इस मोर्चे को अपने हाथ में लिए हमें कश्मीर के उस हिस्से को अपने कब्जे में लेना असंभव है जिसको पाकिस्तान ने हड़प रखा है।
याद रहे कि युद्ध के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने कई बार यह घोषणा की थी कि कश्मीर की वह भूमि, जिसका पाकिस्तान ने अपहरण कर लिया था और जिसे हमने इस युद्ध में पाकिस्तान से छीन लिया है, उसे हम किसी भी शत्र्त पर नहीं लौटाएंगे।
यह और बात है कि किसी खास परिस्थिति में उन्हें ताशकंद समझौता करना पड़ा। पर उसके लिए महावीर त्यागी जिम्मेदार नहीं थे। वह मंत्रिमंडल में आराम से बने रह सकते थे। पर उन्होंने जब महसूस किया कि हाजी पीर लौटाना देश की सुरक्षा के लिए उचित नहीं है तो उन्होंने मंत्री पद को ठोकर मार दी।
आज बिहार चुनावी टिकट के लिए बेशर्मी का नंगा नाच कर रहे अनेक नेतागण महावीर त्यागी के त्याग की कहानी पढ़कर थोड़ा भी शर्म करेंगे ? पता नहीं !
(23 सितंबर, 2015 )
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