जदयू ने बिहार के बाद अब पूरे देश में राजग विरोधी दलों का महागठबंधन खड़ा करने का निर्णय किया है। बिहार की चुनावी सफलता के बाद यह स्वाभाविक है। साथ ही, यह मौजू भी है। क्योंकि राजग राष्ट्रीय स्तर पर भी पहले की अपेक्षा अब कमजोर पड़ रहा है। नरेंद्र मोदी की तेजस्विता भी मद्धिम पड़ रही है।
जिन भारी-भरसक घोषित-अघोषित वायदों के साथ नरेंद्र मोदी सत्ता में आये थे, उन्हें पूरा करने में राजग सरकार को अब तक सीमित सफलता ही मिल सकी है। मोदी जी समस्याओं की सर्जरी के बदले उनका होमियोपैथी इलाज कर रहे हैं। ऐसे में देरी होती है। लोगों को उतना धैर्य नहीं होता। हालांकि लोगबाग अभी उनसे निराश नहीं हुए हैं, पर केंद्र की राजग सरकार के प्रति समर्थन के उत्साह में कमी आ रही है। यदि आने वाले महीनों में मोदी सरकार ने जनहित में कुछ चैंकाने वाले काम नहीं किये तो राजग के लिए महंगा पड़ेगा।
लोकतंात्रिक व्यवस्था की यह मांग है कि इस बीच मजबूत विकल्प खड़ा किया जाये। अब अकेले कांग्रेस तो विकल्प बनने की स्थिति में बिलकुल नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि कांग्रेस के अनेक बड़े नेता भ्रष्टाचार, संपत्ति विवाद और अन्य तरह के गैर राजनीतिक आरोपों को लेकर बचाव की मुद्रा में हैं।
ऐसी ही स्थिति में यानी महाघोटालों के गंभीर आरोपों के बीच 2014 के लोकसभा चुनाव में मनमोहन सरकार को जनता ने धूल चटा दी। यानी भ्रष्टाचार के आरोपों से सने नेताओं और दलों को आम तौर पर जनता सत्ता नहीं सौंपती जब तक कि उनका कोई मजबूत जातीय वोट बैंक नहीं हो।
कभी कांग्रेस का अपना मजबूत जातीय वोट बैंक हुआ करता था। पर वह कई कारणों से छिजता चला गया। अब कांग्रेस यदि किसी गठबंधन में राष्ट्रीय स्तर पर भी सहयोगी रोल में ही रहे तो बेहतर होगा। कांग्रेस की यह कमजोरी भी खुलकर सामने आ रही है कि उसका अपना नेतृत्व न तो प्रामाणिक है और न ही कल्पनाशील। वंशवाद की यही तो सबसे बड़ी बुराई है। उसमें लचर नेतृत्व को भी पार्टियां ‘ढोती’ हैं।
इधर जदयू के पास नीतीश कुमार के रूप में एक प्रामाणिक नेता उपलब्ध है। किसी अन्य नेता की अपेक्षा नीतीश कुमार के नाम पर देश के अधिकाधिक दलों को जुटा लेने की अधिक संभावना है।
वैसे जदयू यह जरूर कहता है कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं। खुद नीतीश कुमार ने भी कभी यह नहीं कहा कि वे इस पद के उम्मीदवार हंै। पर उनके समर्थक और प्रशंसक यदि ऐसा कहते हैं तो वैसा कहने का समय अब आया है।
ऐसा कहने का समय तब नहीं था जब गत लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी यू.पी.ए. सरकार के साथ चुनावी मुकाबले में थे।
महा भ्रष्टाचार और एकतरफा व ढोंगी धर्मनिरपेक्षता की नीति पर चल रहे यू.पी.ए. सरकार के खिलाफ नरेंद्र मोदी इस देश के अधिकतर मतदाताओं को बेहतर लगे। नरेंद्र मोदी के पास भाजपा के रुप में एक मजबूत पार्टी भी थी जिसमें लोगों ने कांग्रेस का विकल्प देखा। पर 2019 के लोकसभा चुनाव में क्या होगा ? राजग सरकार और नरेंद्र मोदी की छवि में छीजन जारी रही तो लोगबाग विकल्प खोजेंगे ही।
हालांकि अभी तो असम, पश्चिम बंगाल (2016) और उत्तर प्रदेश (2017) जैसे प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन राज्यों के राजनीतिक दलों यह तय करना है कि वे अकेले लड़ेंगे या बिहार माॅडल अपना कर प्रतिद्वंद्वी दलों को पराजित करेंगे।
इन राज्यों में महागठबंधन के गठन की राह में बाधाएं हंै। क्योंकि वहां नेताओं के बीच व्यक्तिगत अहं का भीषण टकराव है।
हालांकि असम में महागठबंधन की राह आसान हो सकती है। वैसे कुल मिलाकर महागठबंधन के नेताओं खासकर नीतीश कुमार का राजनीतिक कौशल में कसौटी पर होगा। यदि इन राज्योंे में सफलता मिल गई तो 2019 का चुनाव महागठबंधन के लिए आसान हो जाएगा।
महागठबंधन का अंतिम लक्ष्य 2019 का लोकसभा चुनाव रहेगा।
तब यदि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले राजग को चुनावी सफलता नहीं मिलती है तो गैर राजग दलों में से ही किसी न किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिलेगा।
देश के विभिन्न नेताओं की छवि और उपलब्धियों के तुलनात्मक अध्ययन के बाद अधिकतर राजनीतिक प्रेक्षक इस नतीजे पर आसानी से पहुंच सकते हंै कि नीतीश कुमार का स्थान सबसे ऊपर रहेगा। यह बिहार के लिए भी गौरव की बात है। यदि नीतीश प्रधानमंत्री बने तो वे बिहार से पहले पी.एम. होंगे।
हालांकि तब भी नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं, यह अन्य अनेक बातों पर निर्भर करेगा।
इस देश के छह पूर्व मुख्यमंत्री अब तक प्रधानमंत्री बन चुके हैं। वे हैं मोरारजी देसाई (बंबई), चरण सिंह व वी.पी. सिंह (उत्तर प्रदेश), नरसिंह राव (आंध्र प्रदेश), एच.डी. देवगौड़ा (कर्नाटका) और नरेंद्र मोदी (गुजरात)।
इसलिए यह सवाल उठाना भी बेमानी है कि कोई क्षेत्रीय नेता, प्रधानमंत्री के रूप में कितना ठीक रहेगा।
यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि जो लोग गत लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री मेटेरियल बता रहे थे, वे जल्दीबाजी कर रहे हैं। क्योंकि देश की उम्मीदों के केंद्र नरेंद्र मोदी की तेजस्विता तब तक मद्धिम नहीं पड़ी थी।
हाल का राजनीतिक इतिहास बताता है कि जिस अनुपात में सत्ताधारी नेता का करिश्मा कम होने लगता है, उसी अनुपात में मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल के नेता की छवि भी निखरती है। यदि महागठबंधन को राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार देने में नीतीश कुमार सफल हो गये तो राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य प्रतिद्वंद्वी नीतीश कुमार बन सकते हैं।
यहां यह मानकर भी चला जा रहा है कि कांग्रेस के बड़े -बड़े नेताओं को विवादास्पद कानूनी परेशानियों से अगले लोकसभा चुनाव तक शायद फुर्सत नहीं मिल पाएगी।
कुल मिलाकर आने वाली राजनीति के संकेत यह हैं कि महागठबंधन के कारगर विस्तार व चुनावी सफलता का श्रेय बिहार के नेता को मिल सकता है। पर इसके साथ एक शर्त है। इस बीच बिहार की नीतीश सरकार और भी बेहतर काम करे। शर्त यह है कि कांग्रेस तथा राजद के राज्य भर के छोटे- बड़े नेतागण सुशासन और न्याय के साथ विकास के काम में नीतीश कुमार का पूरे दिल से साथ देते रहें। अब तक राजद और कांग्रेस ने अच्छे संकेत दिए हैं। पर पता नहीं आगे क्या होगा! नीतीश सरकार की उपलब्धियां 2019 के लोकसभा चुनाव में राजग विरोधी दलों के काम आएंगीं। गुजरात की उपलब्धियों की पृष्ठभूमि में लोगों ने 2014 में नरेंद्र मोदी को हाथों-हाथ लिया था। क्या ऐसा हो पाएगा ?
जिन भारी-भरसक घोषित-अघोषित वायदों के साथ नरेंद्र मोदी सत्ता में आये थे, उन्हें पूरा करने में राजग सरकार को अब तक सीमित सफलता ही मिल सकी है। मोदी जी समस्याओं की सर्जरी के बदले उनका होमियोपैथी इलाज कर रहे हैं। ऐसे में देरी होती है। लोगों को उतना धैर्य नहीं होता। हालांकि लोगबाग अभी उनसे निराश नहीं हुए हैं, पर केंद्र की राजग सरकार के प्रति समर्थन के उत्साह में कमी आ रही है। यदि आने वाले महीनों में मोदी सरकार ने जनहित में कुछ चैंकाने वाले काम नहीं किये तो राजग के लिए महंगा पड़ेगा।
लोकतंात्रिक व्यवस्था की यह मांग है कि इस बीच मजबूत विकल्प खड़ा किया जाये। अब अकेले कांग्रेस तो विकल्प बनने की स्थिति में बिलकुल नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि कांग्रेस के अनेक बड़े नेता भ्रष्टाचार, संपत्ति विवाद और अन्य तरह के गैर राजनीतिक आरोपों को लेकर बचाव की मुद्रा में हैं।
ऐसी ही स्थिति में यानी महाघोटालों के गंभीर आरोपों के बीच 2014 के लोकसभा चुनाव में मनमोहन सरकार को जनता ने धूल चटा दी। यानी भ्रष्टाचार के आरोपों से सने नेताओं और दलों को आम तौर पर जनता सत्ता नहीं सौंपती जब तक कि उनका कोई मजबूत जातीय वोट बैंक नहीं हो।
कभी कांग्रेस का अपना मजबूत जातीय वोट बैंक हुआ करता था। पर वह कई कारणों से छिजता चला गया। अब कांग्रेस यदि किसी गठबंधन में राष्ट्रीय स्तर पर भी सहयोगी रोल में ही रहे तो बेहतर होगा। कांग्रेस की यह कमजोरी भी खुलकर सामने आ रही है कि उसका अपना नेतृत्व न तो प्रामाणिक है और न ही कल्पनाशील। वंशवाद की यही तो सबसे बड़ी बुराई है। उसमें लचर नेतृत्व को भी पार्टियां ‘ढोती’ हैं।
इधर जदयू के पास नीतीश कुमार के रूप में एक प्रामाणिक नेता उपलब्ध है। किसी अन्य नेता की अपेक्षा नीतीश कुमार के नाम पर देश के अधिकाधिक दलों को जुटा लेने की अधिक संभावना है।
वैसे जदयू यह जरूर कहता है कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं। खुद नीतीश कुमार ने भी कभी यह नहीं कहा कि वे इस पद के उम्मीदवार हंै। पर उनके समर्थक और प्रशंसक यदि ऐसा कहते हैं तो वैसा कहने का समय अब आया है।
ऐसा कहने का समय तब नहीं था जब गत लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी यू.पी.ए. सरकार के साथ चुनावी मुकाबले में थे।
महा भ्रष्टाचार और एकतरफा व ढोंगी धर्मनिरपेक्षता की नीति पर चल रहे यू.पी.ए. सरकार के खिलाफ नरेंद्र मोदी इस देश के अधिकतर मतदाताओं को बेहतर लगे। नरेंद्र मोदी के पास भाजपा के रुप में एक मजबूत पार्टी भी थी जिसमें लोगों ने कांग्रेस का विकल्प देखा। पर 2019 के लोकसभा चुनाव में क्या होगा ? राजग सरकार और नरेंद्र मोदी की छवि में छीजन जारी रही तो लोगबाग विकल्प खोजेंगे ही।
हालांकि अभी तो असम, पश्चिम बंगाल (2016) और उत्तर प्रदेश (2017) जैसे प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन राज्यों के राजनीतिक दलों यह तय करना है कि वे अकेले लड़ेंगे या बिहार माॅडल अपना कर प्रतिद्वंद्वी दलों को पराजित करेंगे।
इन राज्यों में महागठबंधन के गठन की राह में बाधाएं हंै। क्योंकि वहां नेताओं के बीच व्यक्तिगत अहं का भीषण टकराव है।
हालांकि असम में महागठबंधन की राह आसान हो सकती है। वैसे कुल मिलाकर महागठबंधन के नेताओं खासकर नीतीश कुमार का राजनीतिक कौशल में कसौटी पर होगा। यदि इन राज्योंे में सफलता मिल गई तो 2019 का चुनाव महागठबंधन के लिए आसान हो जाएगा।
महागठबंधन का अंतिम लक्ष्य 2019 का लोकसभा चुनाव रहेगा।
तब यदि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले राजग को चुनावी सफलता नहीं मिलती है तो गैर राजग दलों में से ही किसी न किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिलेगा।
देश के विभिन्न नेताओं की छवि और उपलब्धियों के तुलनात्मक अध्ययन के बाद अधिकतर राजनीतिक प्रेक्षक इस नतीजे पर आसानी से पहुंच सकते हंै कि नीतीश कुमार का स्थान सबसे ऊपर रहेगा। यह बिहार के लिए भी गौरव की बात है। यदि नीतीश प्रधानमंत्री बने तो वे बिहार से पहले पी.एम. होंगे।
हालांकि तब भी नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं, यह अन्य अनेक बातों पर निर्भर करेगा।
इस देश के छह पूर्व मुख्यमंत्री अब तक प्रधानमंत्री बन चुके हैं। वे हैं मोरारजी देसाई (बंबई), चरण सिंह व वी.पी. सिंह (उत्तर प्रदेश), नरसिंह राव (आंध्र प्रदेश), एच.डी. देवगौड़ा (कर्नाटका) और नरेंद्र मोदी (गुजरात)।
इसलिए यह सवाल उठाना भी बेमानी है कि कोई क्षेत्रीय नेता, प्रधानमंत्री के रूप में कितना ठीक रहेगा।
यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि जो लोग गत लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री मेटेरियल बता रहे थे, वे जल्दीबाजी कर रहे हैं। क्योंकि देश की उम्मीदों के केंद्र नरेंद्र मोदी की तेजस्विता तब तक मद्धिम नहीं पड़ी थी।
हाल का राजनीतिक इतिहास बताता है कि जिस अनुपात में सत्ताधारी नेता का करिश्मा कम होने लगता है, उसी अनुपात में मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल के नेता की छवि भी निखरती है। यदि महागठबंधन को राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार देने में नीतीश कुमार सफल हो गये तो राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य प्रतिद्वंद्वी नीतीश कुमार बन सकते हैं।
यहां यह मानकर भी चला जा रहा है कि कांग्रेस के बड़े -बड़े नेताओं को विवादास्पद कानूनी परेशानियों से अगले लोकसभा चुनाव तक शायद फुर्सत नहीं मिल पाएगी।
कुल मिलाकर आने वाली राजनीति के संकेत यह हैं कि महागठबंधन के कारगर विस्तार व चुनावी सफलता का श्रेय बिहार के नेता को मिल सकता है। पर इसके साथ एक शर्त है। इस बीच बिहार की नीतीश सरकार और भी बेहतर काम करे। शर्त यह है कि कांग्रेस तथा राजद के राज्य भर के छोटे- बड़े नेतागण सुशासन और न्याय के साथ विकास के काम में नीतीश कुमार का पूरे दिल से साथ देते रहें। अब तक राजद और कांग्रेस ने अच्छे संकेत दिए हैं। पर पता नहीं आगे क्या होगा! नीतीश सरकार की उपलब्धियां 2019 के लोकसभा चुनाव में राजग विरोधी दलों के काम आएंगीं। गुजरात की उपलब्धियों की पृष्ठभूमि में लोगों ने 2014 में नरेंद्र मोदी को हाथों-हाथ लिया था। क्या ऐसा हो पाएगा ?
(22 दिसंबर, 2015 के दैनिक भास्कर,पटना से साभार)
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