शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

यू.पी.चुनाव के मद्देनजर अति पिछड़ों को लुभाने की राजग की कोशिश शुरू

राजग अब अति पिछड़ा मतदाताओं को लुभाने के प्रयास मेें लग गया है। उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया जा रहा है।

वैसे उसकी नजर लोकसभा के 2019 के चुनाव पर भी है। खबर मिली है कि भाजपा के पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ ने अति पिछड़ों को गोलबंद करने के लिए रैलियां आयोजित करने का फैसला किया है।

 उधर लोजपा नेता राम विलास पासवान ने भी अपने दल के अति पिछड़ा नेताओं से कहा है कि वे अपनी दुर्दशा पर चुप नहीं रहें।

  भाजपा के कुछ नेताओं की यह राय बन रही है कि केंद्र सरकार को चाहिए कि वह पिछड़ा वर्ग आयोग की उस सिफारिश को स्वीकार कर ले जिसके तहत 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन भागों में बांट देने की सलाह दी गयी है।

  पता नहीं, केंद्र सरकार इस सलाह को मानेगी या नहीं। पर राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार यदि उसने मान लिया तो बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भाजपा को विशेष चुनावी लाभ मिल सकता है। पूरे देश में भी मिल सकता है।

   लगता है कि भाजपा के कुछ नेताओं ने इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है कि 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव जीतना जरूरी है। यदि यू.पी. में भाजपा को पराजय मिली तो राजग के कुछ सहयोगी दल पाला बदल सकते हैं।

  याद रहे कि बिहार विधानसभा के गत चुनाव से ठीक पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण पर विवादास्पद बयान दिया था। गत साल सितंबर में उन्होंने आरक्षण की समीक्षा की जरूरत बताते हुए यह सवाल भी उठा दिया था कि आखिर आरक्षण कब तक जारी रहेगा ? नतीजतन पिछड़ा और दलित समुदाय के उन मतदाताओं ने भी बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को वोट दे दिए जिन्होंने लोकसभा चुनाव में राजग को दिये थे।

 गत लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने मतदाताओं को यह जानकारी दी थी कि नरेंद्र मोदी अति पिछड़ा समुदाय से आते हैं। इसका लाभ भी राजग को तब मिला था।

 मोहन भागवत के बयान के बाद पिछड़ा समुदाय के बड़े हिस्से को 1990 की घटना याद आ गयी थी। तब भाजपा ने वी.पी. सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस लेकर उसे गिरा दिया था। ऐसा इसलिए किया था क्योंकि वी.पी. सरकार ने पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया था। तब कहा गया था कि यदि मंडल आरक्षण नहीं होता तो राम मंदिर आंदोलन भी नहीं होता।

 पर इस घटना से यह धारणा बनी कि भाजपा को सामाजिक न्याय की जरुरत समझ में नहीं आती।या समझना नहीं चाहती। मोहन भागवत के बयान के बाद उस धारणा की पुष्टि हुई थी। अब जबकि बिहार चुनाव में शर्मनाक पराजय के बाद भाजपा पस्तहिम्मत है तो उसके नेताओं के एक हिस्से को राष्ट्रीय स्तर पर अति पिछड़ा वोट बैंक बनाने की जरूरत महसूस हो रही है।

 क्योंकि उन्हें अब यह साफ लग रहा है कि सिर्फ हवाबाजी से 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं जीता जा सकता है।

  हालांकि 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के हवाबाजी के अलावा भी दो -तीन और प्रमुख कारण रहे। तब मनमोहन सिंह सरकार के कई महाघोटालों से आम लोग नाराज थे। साथ ही, यू.पी.ए. की एकतरफा धर्म निरपेक्षता की नीति को भी अनेक मतदाताओं ने नापसंद किया।

 पर अब मनमोहन सरकार नहीं है जिसे निशाना बनाकर चुनाव जीता जा सकेगा। अब नरेंद्र मोदी की सरकार के कार्यकलापों का मतदाता आकलन करेंगे।

 यह सच है कि मोदी सरकार ने महाघोटालों को रोका है। पर केंद्र सरकार  रुटीन भ्रष्टाचार को रोक नहीं पा रही  है। इससे ही आम लोगों का रोज ब रोज पाला पड़ता है। केंद्र सरकार ने राहत और विकास के भी कई काम किये हैं, पर  2014 के लोकसभा चुनाव के समय नरेंद्र मोदी ने देश के सामने जो बड़े-बड़े वायदे किये थे, उन्हें लागू करने में मोदी सरकार  अब तक विफल रही है। इसलिए भी अब भाजपा  के लिए जातीय वोट बैंक तैयार करने की मजबूरी हो गयी है।

 यदि किसी दल के पास अपना जातीय वोट बैंक हो तो उस दल की सरकार अपने वादों को कार्यरूप देने के काम में कुछ देरी करने का जोखिम उठा सकती है।

  ऐसा ही करके कांग्रेस ने लंबे समय तक देश पर राज किया था। याद रहे कि कांग्रेस के वोट बैंक ने ंउसका 1967 और 1977 के चुनावों में भी साथ नहीं छोड़ा था। उन चुनावों में उत्तर भारत में कांग्रेस विरोधी लहर के बावजूद ऐसा हुआ था।

  वैसे भी अति पिछड़ों के कल्याण के लिए अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। तभी देश का समावेशी विकास संभव है। मंडल आरक्षण का लाभ जितना मजबूत पिछड़ों को मिल रहा है, उतना अति पिछड़ों को नहंीं मिल सका है।

  बिहार में नीतीश सरकार ने अति पिछड़ों के लिए विशेष प्रावधानों के जरिए उनका सशक्तीकरण किया है। इसका चुनावी लाभ नीतीश कुमार के दल को मिला भी है।

  नीतीश सरकार ने बिहार की पंचायतों में अति पिछड़ों के लिए 20 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर दीं। उस आरक्षण से पहले अति पिछड़ों के बीच से सिर्फ 3 दशमलव 9 प्रतिशत मुखिया ही चुने जाते थे। जबकि, मजबूत और दबंग पिछड़ों के बीच से 41 दशलव 7 प्रतिशत मुखिया हुआ करते थे।

 आरक्षण के बाद अति पिछड़ों को करीब 16 प्रतिशत का लाभ मिला। याद रहे कि बिहार में मजबूत पिछड़ों की अपेक्षा अति पिछड़ों की संख्या काफी अधिक है। लगभग यही हाल पूरे देश में है। यदि भाजपा के कुछ नेताओं की नजर उधर जा रही है तो वह अकारण नहीं है।

  1977 मेंं कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार ने जब आरक्षण लागू किया तो उसमें भी अति पिछड़ों का विशेष ध्यान रखा गया था। तब 12 प्रतिशत अति पिछड़ों और 8 प्रतिशत पिछड़ों के आरक्षण का प्रावधान था। आज भी बिहार में पिछड़ों की अपेक्षा अति पिछड़ों का कोटा अधिक है।

  यदि केंद्र सरकार अति पिछड़ों के लिए कुछ ठोस कर पाएगी तो वह इस कदम के जरिए आरक्षण के सिद्धांत पर भी अपनी पार्टी की मुहर लगाएगी। अब तक तो इस मुद्दे पर भाजपा का रवैया संदिग्ध ही माना जाता रहा है।

( 9 फरवरी 2016 के दैनिक भास्कर,बिहार से साभार) 


शैक्षणिक परिसरों की गरिमा लौटने की उम्मीद

बिहार सरकार ने  मैट्रिक-इंटर परीक्षाओं को इस बार कदाचारमुक्त कर देने का निश्चय कर लिया है। इस बार दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति नजर आ रही है। राजनीतिक इच्छाशक्ति दृढ़ हो तो कोई काम मुश्किल नहीं। यदि सचमुच कदाचार रुक गया तो इससे राज्य के शैक्षणिक परिसरों की पुरानी मर्यादा लौट आने की भी संभावना बनेगी।

 आज राज्य के विश्वविद्यालयों और काॅलेजों में ऐसे छात्रों की भरमार हो गयी है जिन्हें पढ़ने-लिखने से कोई मतलब ही नहीं है। परिसरों से आये दिन छेड़खानी, बमबाजी, कदाचार और गुरुओं के साथ बदतमीजी की शर्मनाक खबरें आती रहती हैं। कदाचार की छूट हो तो पढ़ने-लिखने की जरूरत ही नहीं।

 अभी जो छात्रगण ‘उच्च शिक्षा’ ग्रहण कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर छात्रों ने मैट्रिक और इंटर की परीक्षाओंं में ‘भीषण’ चोरी करके अच्छे अंक लाये और नामी गिरामी शैक्षणिक संस्थानों में नामांकन करा लिया। बाद में भी कदाचार के जरिए  परीक्षाएं पास करते गये।

दुर्भाग्यवश मेडिकल और इंजीनियरिंग काॅलेजों का भी लगभग यही हाल है। अपवादों की बात और है। हालांकि कुछ ही छात्र हैं जो पढ़ना-लिखना चाहते हैं। यदि इस बार मैट्रिक और इंटर की परीक्षाएं सचमुच कदाचारमुक्त हुईं तो उनसे विद्याव्यसनी और विनयी छात्र ही छनकर निकलेंगे।

 वे उच्च शिक्षा के परिसरों में शांतिपूर्वक पढ़ेंगे और शिक्षकों का सम्मान करेंगे। वे ऐसे शिक्षकों की आदत बदलने को बाध्य कर सकते हैं जिनकी शिक्षण कार्य में रूचि काफी कम है।  


डाॅ. त्रेहन का अधूरा सच

  मशहूर सर्जन डाॅ. नरेश त्रेहन ने कहा है कि मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले ने देश के डाॅक्टरों की गुणवत्ता को बर्बाद कर दिया। दरअसल डाक्टरों की गुणवत्ता को बर्बाद करने की कहानी पुरानी है। पहले बर्बादी की रफ्तार धीमी थी। अब तेज हो गयी है। अब तो अपवादों को छोड़ दें तो न तो मेडिकल छात्र क्लास कर रहे हैं और न ही वे कदाचारमुक्त परीक्षा के पक्षधर हैं।

साठ के दशक में मेडिकल-इंजीनियरिंग  काॅलेजों में दाखिला इंटर में मिले अंकों के आधार पर होते थे। अपने कालेज जीवन में मैंने देखा है कि किस तरह  प्रायोगिक परीक्षाओं में दो-ढाई सौ रुपये रिश्वत देकर छात्र 20 में से 18 या 19 अंक पा जाते थे।

 लिखित परीक्षा में अंकों की जो कमी रह जाती थी, उसे प्रायोगिक परीक्षाओं के अंक पूरा कर देते थे।  इस तरह उन छात्रों का  मेडिकल-इंजीनियरिंग  में दाखिला हो जाता था।

 शासन को जब ऐसे घोटाले का पता चला तो फिर दाखिले के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं होने लगीं। कुछ दिनों तक तो ठीक ठाक चला। पर बाद में प्रवेश प्रतियोगिता परीक्षाओं में व्यापम जैसे घोटाले होने लगे।

पर व्यापम घोटाले से पहले बिहार में यह धंधा शुरू हो गया था। एक खास गिरोह चर्चित हुआ। भ्रष्ट और बेईमान अभिभावक अपनी काली कमाई में से लाखों रुपये घूस देकर अपने बेटे-बेटियों का मेडिकल कालेजों में दाखिला करवाने लगे।

 स्थिति अब काफी बिगड़ चुकी है। करोड़ों मरीज अयोग्य और अधपढ़ डाॅक्टरों के रहमो-करम पर हैं।
इन दिनों मेडिकल कालेजों से बहुत ही कम योग्य डाॅक्टर निकल रहे हैं। अनेक योग्य डाक्टर विदेशों का रुख कर लेते हैं।


सामने आये वास्तविक चेहरे    

  जे.एन.यू. और दिल्ली प्रेस क्लब में हाल में जिस तरह आतंकियों के पक्ष में और इस देश के विरोध में नारे लगाये गये, उससे कई नेताओं और राजनीतिक दलों तथा  कुछ अन्य संगठनों और बुद्धिजवियों के वास्तविक चेहरे एक बार फिर लोगों के सामने आ गये। यदि इस देश में ऐसी घटनाएं जारी रहीं तो भाजपा और  नरेंद्र मोदी को अगला लोक सभा चुनाव जीतने के लिए कुछ खास करना नहीं पड़ेगा।

लोगों में राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम की भावनाएं जगाकर वे एक बार फिर चुनाव जीत सकते हैं।

जेएनयू और प्रेस क्लब के कार्यक्रमों के आयोजक दरअसल भाजपा और नरेंद्र मोदी के दुश्मन नहीं बल्कि उनके दोस्त हैं।


और अंत में

   अधिकतर नेता व्यापक जनहित और राष्ट्रहित की जगह अपने सांप्रदायिक और जातीय वोट बैंक को ध्यान में रखकर ही कोई बयान देते हैं या अपने कदम उठाते हैंं। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति संभवतः सिर्फ इसी देश की है।
एक प्रमुख राजनीतिक दल के बारे में डा. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि उसके दिल में गरीबों के लिए दर्द तो है, पर वह राष्ट्रवादी नहीं हैं। एक दूसरे बड़े दल के बारे में उनकी राय थी कि वह सीमाओं की चिंता जरूर करता है, पर उसके मन में समाज के  वंचितों के लिए दर्द नहीं है। आज दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि खुद डा.लोहिया के नाम की माला जपने वाले कई नेता और दल भी उसी राह पर हैं।

(14 फरवरी 2016 के दैनिक भास्कर ,बिहार से साभार)

राजबल्लभ जैसों को टिकट देने से तोबा करेंगे दल !

 विधायक राजबल्लभ यादव के खिलाफ राजद का कदम सराहनीय है। पर, क्या यह दल भविष्य में ऐसे विवादास्पद नेताओं को टिकट देना बंद करेगा ? क्या अन्य दल भी विवादास्पद लोगों का अपने दल में प्रवेश रोकेंगे ?

यदि कभी ऐसा हुआ तो फिर लोकतंत्र को शर्मिंदा होना नहीं पड़ेगा। याद रहे कि बदल रहे राजद ने बलात्कार के आरोप के कारण राजबल्लभ को पार्टी से निलंबित कर दिया है। गत माह अपेक्षाकृत हल्के आरोप में जदयू ने अपने विधायक सरफराज आलम को दल से निलंबित किया था।

 राज्य के शांतिप्रिय लोग, राजनीतिक दलों से इसी तरह की उम्मीद करते हैं।

 राजद की ताजा कार्रवाई का विशेष महत्व है। क्योंकि 1990 से 2005 तक के कालखंड में गंभीर आरोपों के बावजूद लालू प्रसाद का दल आम तौर पर कार्रवाई नहीं करता था।

 1995 में राज बल्लभ यादव का टिकट इसलिए कट सका था क्योंकि अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले उसी दल के एक महत्वपूर्ण नेता ने राज बल्लभ के खिलाफ अभियान चला दिया था।

  लालू प्रसाद बदल रहे हैं, ताजा कार्रवाई उसका सबूत है। इस बदलाव की सराहना होनी चाहिए ताकि और अधिक बदलाव हो। अब लालू प्रसाद चाहते हैं कि कानून को अपना काम करने दिया जाना चाहिए। इसी कार्यशैली पर पहले से नीतीश सरकार काम करती रही है।

यह और बात है कि लालू प्रसाद की बदली हुई कार्यशैली को अपनाने में राजद के मंझले और छोटे दरजे के कुछ नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों को कठिनाई हो रही है। राज बल्लभ यादव प्रकरण इसका नमूना है। अच्छा होगा यदि ऐसे अन्य राजदाई इस बात को समय रहते समझ लें। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि इस सरकार के नेता नीतीश कुमार को सत्ता से अधिक अपनी छवि प्यारी है।

   सब जानते हैं कि विवादास्पद नेता और आदतन अपराधी राजनीतिक कार्यकर्ता कौन-कौन हैं। क्या घटनाएं घट जाने के बाद ही ऐसे लोगों को दल से निष्कासित या निलंबित किया जाएगा ?

 लालू और नीतीश कुमार के साझे वोट बैंक की ताकत अब इतनी बढ़ चुकी है कि  उनके प्रभाव क्षेत्रों में शायद ही कोई स्थानीय क्षत्रप राजद-जदयू की इच्छा के खिलाफ चुनाव जीत पाएगा। यदि दस-पांच जीत भी जाएं तो उससे राजद-जदयू  पर कोई फर्क नहीं पड़ सकता है।

  अब यह स्थिति बन गयी है कि जदयू और राजद स्वच्छ छवि के राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं को भी टिकट देकर चुनाव जितवा सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो सामान्य अपराधों पर काबू पाने में भी सरकार को सुविधा होगी। साथ ही, जंगलराज का आरोप लगाने वालों की बोलती बंद हो जाएगी। हां, राजनीतिक विरोधियों के पास एक काम जरूर बच जाएगा। गैंगवार में ‘शहीद’ हुए बाहुबलियों के शवोंं पर रोने का काम।

(15 फरवरी, 2016 के दैनिक भास्कर,पटना से साभार)


गलत कामों की आलोचना के साथ ही अच्छे कामों की सराहना से बढ़ेगी नेताओं की साख

केजरीवाल सरकार के एक साल पूरा होने पर एक टी.वी. चैनल पर चर्चा हो रही थी। एंकर ने चर्चा में शामिल भाजपा और कांग्रेस के नेताओं से पूछा कि क्या एक साल में केजरीवाल सरकार ने एक भी अच्छा काम ंनहीं किया? भाजपा और कांग्रेस के नेताओं ने इस सवाल का सीधा जवाब देने के बजाये दूसरी बात शुरू कर दी।

  ताजा जनमत संग्रह के अनुसार दिल्ली के आधे से अधिक लोग केजरीवाल सरकार के कामकाज से संतुष्ट हैं। कांग्रेस ने इस अवसर पर रिपोर्ट कार्ड जारी किया। उसने केजरीवाल सरकार को 100 में से शून्य अंक दिये। क्या केजरीवाल सरकार एक अंक लायक भी नहीं है ?

दरअसल किसी सरकार के इस असंतुलित और एक तरफा आकलन के जरिए खुद कांग्रेस और भाजपा ने अपने बारे में लोगों मेंे यह धारणा बनाई कि वह सच बोल ही नहीं सकती।

 पर बात सिर्फ कांग्रेस पर ही लागू नहीं होती। जिन प्रदेशों में कांग्रेस की सरकारें हैं, उन राज्यों के प्रतिपक्षी दल भी उन सरकारों के बारे में लगभग वैसी ही राय रखते हैं जिस तरह की राय कांग्रेस और भाजपा केजरीवाल सरकार के बारे में रखती है।

  ऐसा पूरे देश में होता है। बिहार कोई अपवाद नहीं। इस देश के प्रतिपक्षी दल सरकार के गलत कामों की आलोचना के साथ यदि कभी -कभी उसके अच्छे कामों की सार्वजनिक रूप से सराहना कर लेते तो उससे आम लोगों को यह लगता है राजनीतिक दल सच भी बोलते हैं। यानी राजनीति मेंे जाने के बाद लोगों को सिर्फ असत्य या अर्ध सत्य बोलने की ही मजबूरी नहीं है। पर ऐसी आंशिक सराहना के लिए भी कोई जगह राजनीति में शायद नहीं बची है।

 संभवतः इसीलिए झूठ से नफरत करने वाले लोग यह समझते हैं कि राजनीति उनके अनुकूल की चीज नहीं है।

  बिहार में इन दिनों अपराध को लेकर प्रतिपक्षी दल नीतीश सरकार के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। हाल के दिनों में कुछ चर्चित व प्रमुख लोगों की हत्याएं हुई भी हैं। हालांकि आंकड़े बता रहे हैं कि कुल मिलाकर अपराध के आंकड़ों में 2014 की अपेक्षा 2015 में कमी आई है।  

  वैसे अपराध की जो भी घटनाएं हो रही हैं, उनको अलग-अलग करके देखने की जरूरत है। यदि निर्माण कार्य में लगे इंजीनियरों की हत्याएं हुई हैं तो उसमें यह साफ लग जाता है कि वह कांड शासन के निकम्मेपन या फिर अपराधियों के साथ पुलिस की मिलीभगत के कारण हुई। उस कांड में सख्त कार्रवाई की दिशा में शासन की ढिलाई है तो उसके लिए राज्य सरकार की आलोचना जरूर होनी चाहिए। आंदोलन भी किया जा सकता है।

पर यदि कुछ बाहुबली गैंगवार में मारे जाते हैं तो उन कांडों को दूसरे तरह से देखा जाना चाहिए। उसके लिए सर्वदलीय बैठक की मांग की जानी चाहिए ताकि राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण की समस्या पर सभी दल अपनी राय दें और इस समस्या के निदान का कोई रास्ता मिलजुल कर निकालें।
 यदि ऐसा नहीं होगा तो इस समस्या का कोई अंत नहीं है। साथ ही इतिहास भी आज के नेताओं के बारे में कुछ अलग ढंग की ही राय बनाएगा।

  राजनीति में सबसे बड़ी कमी वस्तुपरकता की है।देश और प्रदेश के अधिकतर नेता अपने वेाट बैंक और अन्य तरह के ओछे स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए ही बयान देते हैं। आरोप और बचाव के बीच कई बार सत्य पिसता नजर आता है। हालांकि आम लोग चीजों को निरपेक्ष ढंग से देखते हैं, इसलिए अंततः उनसे कुछ छिपा हुआ नहीं रहता।

  जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की ताजा घटना को लेकर भी यही सब हो रहा है। यह सच है कि परिसर में कुछ छात्र-छात्राओं तथा अन्य लोगों ने अत्यंत आपत्तिजनक लहजे में भारत विरोधी नारेबाजियां कीं। उस पूरी घटना को लेकर आॅडियो और वीडियो टेप उपलब्ध हैं। इस देश में टेप की प्रामाणिकता की जांच भी संभव है। टेप के विवरण सामने आ जाने के बाद राजनीतिक दलों को उस संवेदनशील मामले पर अपना बयान देना चाहिए था। पर, उससे पहले ही अधिकतर नेता शुरू हो गये। सब अपनी -अपनी पार्टी की लाइन के आधार पर बयान देने और आरोप लगाने लगे।

  बयान परस्पर विरोधी हैं। कोई एक ही पक्ष सच बोल रहा है। दूसरा झूठ। देश की सुरक्षा के मामलों को लेकर भी राजनीतिक दलों का ऐसा रवैया ? उस घटना की पूरी सचाई आ जाने के बाद क्या उससे कई प्रमुख नेताओं की साख नहीं गिरेगी ?

इस बीच बिहार से एक केंद्रीय मंत्री ने कहा है कि नीतीश कुमार को लालू प्रसाद के साथ बैठकर अपराध के कारणों को तलाशना चाहिए। इस बयान में भी पूरी सच्चाई नहीं है।

पूरी सच्चाई तब सामने आती जब मंत्री जी यह कहते कि अब किसी बाहुबली विधायक की गिरफ्तारी के बाद हमारे दल का कोई नेता यह नहीं कहेगा कि हम मुख्यमंत्री की छाती तोड़ देंगे।

 अब तक बिहार में यही होता रहा है कि अपने दल से जुड़े बाहुबलियों को संरक्षण दो और प्रतिद्वंद्वी दलों के बाहुबलियों के खिलाफ अभियान चलाओ। इसीलिए अधिकतर नेताओं के बयानों में एकतरफा सच, अर्ध सत्य और झूठ ही होते हैं।

इससे नेताओं की साख नहीं बढ़ती। जब तक  राजनीतिक दल और नेताओं की साख नहीं बढ़ेगी तब तक लोकतंत्र अपने सही स्वरूप में सामने नहीं आएगा जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी। जो हो रहा है यदि यही सब जारी रहा तो न तो बिहार में अपराध पर काबू पाया जा सकेगा और न ही लोगों में यह धारणा बनेगी कि राजनीतिक नेता सच भी बोलते हैं। यहां अपवाद की चर्चा नहीं की जा रही है।

(16 फरवरी 2016 के दैनिक भास्कर,पटना से साभार)