बिहार सरकार ने मैट्रिक-इंटर परीक्षाओं को इस बार कदाचारमुक्त कर देने का निश्चय कर लिया है। इस बार दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति नजर आ रही है। राजनीतिक इच्छाशक्ति दृढ़ हो तो कोई काम मुश्किल नहीं। यदि सचमुच कदाचार रुक गया तो इससे राज्य के शैक्षणिक परिसरों की पुरानी मर्यादा लौट आने की भी संभावना बनेगी।
आज राज्य के विश्वविद्यालयों और काॅलेजों में ऐसे छात्रों की भरमार हो गयी है जिन्हें पढ़ने-लिखने से कोई मतलब ही नहीं है। परिसरों से आये दिन छेड़खानी, बमबाजी, कदाचार और गुरुओं के साथ बदतमीजी की शर्मनाक खबरें आती रहती हैं। कदाचार की छूट हो तो पढ़ने-लिखने की जरूरत ही नहीं।
अभी जो छात्रगण ‘उच्च शिक्षा’ ग्रहण कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर छात्रों ने मैट्रिक और इंटर की परीक्षाओंं में ‘भीषण’ चोरी करके अच्छे अंक लाये और नामी गिरामी शैक्षणिक संस्थानों में नामांकन करा लिया। बाद में भी कदाचार के जरिए परीक्षाएं पास करते गये।
दुर्भाग्यवश मेडिकल और इंजीनियरिंग काॅलेजों का भी लगभग यही हाल है। अपवादों की बात और है। हालांकि कुछ ही छात्र हैं जो पढ़ना-लिखना चाहते हैं। यदि इस बार मैट्रिक और इंटर की परीक्षाएं सचमुच कदाचारमुक्त हुईं तो उनसे विद्याव्यसनी और विनयी छात्र ही छनकर निकलेंगे।
वे उच्च शिक्षा के परिसरों में शांतिपूर्वक पढ़ेंगे और शिक्षकों का सम्मान करेंगे। वे ऐसे शिक्षकों की आदत बदलने को बाध्य कर सकते हैं जिनकी शिक्षण कार्य में रूचि काफी कम है।
मशहूर सर्जन डाॅ. नरेश त्रेहन ने कहा है कि मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले ने देश के डाॅक्टरों की गुणवत्ता को बर्बाद कर दिया। दरअसल डाक्टरों की गुणवत्ता को बर्बाद करने की कहानी पुरानी है। पहले बर्बादी की रफ्तार धीमी थी। अब तेज हो गयी है। अब तो अपवादों को छोड़ दें तो न तो मेडिकल छात्र क्लास कर रहे हैं और न ही वे कदाचारमुक्त परीक्षा के पक्षधर हैं।
साठ के दशक में मेडिकल-इंजीनियरिंग काॅलेजों में दाखिला इंटर में मिले अंकों के आधार पर होते थे। अपने कालेज जीवन में मैंने देखा है कि किस तरह प्रायोगिक परीक्षाओं में दो-ढाई सौ रुपये रिश्वत देकर छात्र 20 में से 18 या 19 अंक पा जाते थे।
लिखित परीक्षा में अंकों की जो कमी रह जाती थी, उसे प्रायोगिक परीक्षाओं के अंक पूरा कर देते थे। इस तरह उन छात्रों का मेडिकल-इंजीनियरिंग में दाखिला हो जाता था।
शासन को जब ऐसे घोटाले का पता चला तो फिर दाखिले के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं होने लगीं। कुछ दिनों तक तो ठीक ठाक चला। पर बाद में प्रवेश प्रतियोगिता परीक्षाओं में व्यापम जैसे घोटाले होने लगे।
पर व्यापम घोटाले से पहले बिहार में यह धंधा शुरू हो गया था। एक खास गिरोह चर्चित हुआ। भ्रष्ट और बेईमान अभिभावक अपनी काली कमाई में से लाखों रुपये घूस देकर अपने बेटे-बेटियों का मेडिकल कालेजों में दाखिला करवाने लगे।
स्थिति अब काफी बिगड़ चुकी है। करोड़ों मरीज अयोग्य और अधपढ़ डाॅक्टरों के रहमो-करम पर हैं।
इन दिनों मेडिकल कालेजों से बहुत ही कम योग्य डाॅक्टर निकल रहे हैं। अनेक योग्य डाक्टर विदेशों का रुख कर लेते हैं।
जे.एन.यू. और दिल्ली प्रेस क्लब में हाल में जिस तरह आतंकियों के पक्ष में और इस देश के विरोध में नारे लगाये गये, उससे कई नेताओं और राजनीतिक दलों तथा कुछ अन्य संगठनों और बुद्धिजवियों के वास्तविक चेहरे एक बार फिर लोगों के सामने आ गये। यदि इस देश में ऐसी घटनाएं जारी रहीं तो भाजपा और नरेंद्र मोदी को अगला लोक सभा चुनाव जीतने के लिए कुछ खास करना नहीं पड़ेगा।
लोगों में राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम की भावनाएं जगाकर वे एक बार फिर चुनाव जीत सकते हैं।
जेएनयू और प्रेस क्लब के कार्यक्रमों के आयोजक दरअसल भाजपा और नरेंद्र मोदी के दुश्मन नहीं बल्कि उनके दोस्त हैं।
अधिकतर नेता व्यापक जनहित और राष्ट्रहित की जगह अपने सांप्रदायिक और जातीय वोट बैंक को ध्यान में रखकर ही कोई बयान देते हैं या अपने कदम उठाते हैंं। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति संभवतः सिर्फ इसी देश की है।
एक प्रमुख राजनीतिक दल के बारे में डा. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि उसके दिल में गरीबों के लिए दर्द तो है, पर वह राष्ट्रवादी नहीं हैं। एक दूसरे बड़े दल के बारे में उनकी राय थी कि वह सीमाओं की चिंता जरूर करता है, पर उसके मन में समाज के वंचितों के लिए दर्द नहीं है। आज दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि खुद डा.लोहिया के नाम की माला जपने वाले कई नेता और दल भी उसी राह पर हैं।
आज राज्य के विश्वविद्यालयों और काॅलेजों में ऐसे छात्रों की भरमार हो गयी है जिन्हें पढ़ने-लिखने से कोई मतलब ही नहीं है। परिसरों से आये दिन छेड़खानी, बमबाजी, कदाचार और गुरुओं के साथ बदतमीजी की शर्मनाक खबरें आती रहती हैं। कदाचार की छूट हो तो पढ़ने-लिखने की जरूरत ही नहीं।
अभी जो छात्रगण ‘उच्च शिक्षा’ ग्रहण कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर छात्रों ने मैट्रिक और इंटर की परीक्षाओंं में ‘भीषण’ चोरी करके अच्छे अंक लाये और नामी गिरामी शैक्षणिक संस्थानों में नामांकन करा लिया। बाद में भी कदाचार के जरिए परीक्षाएं पास करते गये।
दुर्भाग्यवश मेडिकल और इंजीनियरिंग काॅलेजों का भी लगभग यही हाल है। अपवादों की बात और है। हालांकि कुछ ही छात्र हैं जो पढ़ना-लिखना चाहते हैं। यदि इस बार मैट्रिक और इंटर की परीक्षाएं सचमुच कदाचारमुक्त हुईं तो उनसे विद्याव्यसनी और विनयी छात्र ही छनकर निकलेंगे।
वे उच्च शिक्षा के परिसरों में शांतिपूर्वक पढ़ेंगे और शिक्षकों का सम्मान करेंगे। वे ऐसे शिक्षकों की आदत बदलने को बाध्य कर सकते हैं जिनकी शिक्षण कार्य में रूचि काफी कम है।
डाॅ. त्रेहन का अधूरा सच
साठ के दशक में मेडिकल-इंजीनियरिंग काॅलेजों में दाखिला इंटर में मिले अंकों के आधार पर होते थे। अपने कालेज जीवन में मैंने देखा है कि किस तरह प्रायोगिक परीक्षाओं में दो-ढाई सौ रुपये रिश्वत देकर छात्र 20 में से 18 या 19 अंक पा जाते थे।
लिखित परीक्षा में अंकों की जो कमी रह जाती थी, उसे प्रायोगिक परीक्षाओं के अंक पूरा कर देते थे। इस तरह उन छात्रों का मेडिकल-इंजीनियरिंग में दाखिला हो जाता था।
शासन को जब ऐसे घोटाले का पता चला तो फिर दाखिले के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं होने लगीं। कुछ दिनों तक तो ठीक ठाक चला। पर बाद में प्रवेश प्रतियोगिता परीक्षाओं में व्यापम जैसे घोटाले होने लगे।
पर व्यापम घोटाले से पहले बिहार में यह धंधा शुरू हो गया था। एक खास गिरोह चर्चित हुआ। भ्रष्ट और बेईमान अभिभावक अपनी काली कमाई में से लाखों रुपये घूस देकर अपने बेटे-बेटियों का मेडिकल कालेजों में दाखिला करवाने लगे।
स्थिति अब काफी बिगड़ चुकी है। करोड़ों मरीज अयोग्य और अधपढ़ डाॅक्टरों के रहमो-करम पर हैं।
इन दिनों मेडिकल कालेजों से बहुत ही कम योग्य डाॅक्टर निकल रहे हैं। अनेक योग्य डाक्टर विदेशों का रुख कर लेते हैं।
सामने आये वास्तविक चेहरे
लोगों में राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम की भावनाएं जगाकर वे एक बार फिर चुनाव जीत सकते हैं।
जेएनयू और प्रेस क्लब के कार्यक्रमों के आयोजक दरअसल भाजपा और नरेंद्र मोदी के दुश्मन नहीं बल्कि उनके दोस्त हैं।
और अंत में
एक प्रमुख राजनीतिक दल के बारे में डा. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि उसके दिल में गरीबों के लिए दर्द तो है, पर वह राष्ट्रवादी नहीं हैं। एक दूसरे बड़े दल के बारे में उनकी राय थी कि वह सीमाओं की चिंता जरूर करता है, पर उसके मन में समाज के वंचितों के लिए दर्द नहीं है। आज दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि खुद डा.लोहिया के नाम की माला जपने वाले कई नेता और दल भी उसी राह पर हैं।
(14 फरवरी 2016 के दैनिक भास्कर ,बिहार से साभार)
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