शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

गलत कामों की आलोचना के साथ ही अच्छे कामों की सराहना से बढ़ेगी नेताओं की साख

केजरीवाल सरकार के एक साल पूरा होने पर एक टी.वी. चैनल पर चर्चा हो रही थी। एंकर ने चर्चा में शामिल भाजपा और कांग्रेस के नेताओं से पूछा कि क्या एक साल में केजरीवाल सरकार ने एक भी अच्छा काम ंनहीं किया? भाजपा और कांग्रेस के नेताओं ने इस सवाल का सीधा जवाब देने के बजाये दूसरी बात शुरू कर दी।

  ताजा जनमत संग्रह के अनुसार दिल्ली के आधे से अधिक लोग केजरीवाल सरकार के कामकाज से संतुष्ट हैं। कांग्रेस ने इस अवसर पर रिपोर्ट कार्ड जारी किया। उसने केजरीवाल सरकार को 100 में से शून्य अंक दिये। क्या केजरीवाल सरकार एक अंक लायक भी नहीं है ?

दरअसल किसी सरकार के इस असंतुलित और एक तरफा आकलन के जरिए खुद कांग्रेस और भाजपा ने अपने बारे में लोगों मेंे यह धारणा बनाई कि वह सच बोल ही नहीं सकती।

 पर बात सिर्फ कांग्रेस पर ही लागू नहीं होती। जिन प्रदेशों में कांग्रेस की सरकारें हैं, उन राज्यों के प्रतिपक्षी दल भी उन सरकारों के बारे में लगभग वैसी ही राय रखते हैं जिस तरह की राय कांग्रेस और भाजपा केजरीवाल सरकार के बारे में रखती है।

  ऐसा पूरे देश में होता है। बिहार कोई अपवाद नहीं। इस देश के प्रतिपक्षी दल सरकार के गलत कामों की आलोचना के साथ यदि कभी -कभी उसके अच्छे कामों की सार्वजनिक रूप से सराहना कर लेते तो उससे आम लोगों को यह लगता है राजनीतिक दल सच भी बोलते हैं। यानी राजनीति मेंे जाने के बाद लोगों को सिर्फ असत्य या अर्ध सत्य बोलने की ही मजबूरी नहीं है। पर ऐसी आंशिक सराहना के लिए भी कोई जगह राजनीति में शायद नहीं बची है।

 संभवतः इसीलिए झूठ से नफरत करने वाले लोग यह समझते हैं कि राजनीति उनके अनुकूल की चीज नहीं है।

  बिहार में इन दिनों अपराध को लेकर प्रतिपक्षी दल नीतीश सरकार के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। हाल के दिनों में कुछ चर्चित व प्रमुख लोगों की हत्याएं हुई भी हैं। हालांकि आंकड़े बता रहे हैं कि कुल मिलाकर अपराध के आंकड़ों में 2014 की अपेक्षा 2015 में कमी आई है।  

  वैसे अपराध की जो भी घटनाएं हो रही हैं, उनको अलग-अलग करके देखने की जरूरत है। यदि निर्माण कार्य में लगे इंजीनियरों की हत्याएं हुई हैं तो उसमें यह साफ लग जाता है कि वह कांड शासन के निकम्मेपन या फिर अपराधियों के साथ पुलिस की मिलीभगत के कारण हुई। उस कांड में सख्त कार्रवाई की दिशा में शासन की ढिलाई है तो उसके लिए राज्य सरकार की आलोचना जरूर होनी चाहिए। आंदोलन भी किया जा सकता है।

पर यदि कुछ बाहुबली गैंगवार में मारे जाते हैं तो उन कांडों को दूसरे तरह से देखा जाना चाहिए। उसके लिए सर्वदलीय बैठक की मांग की जानी चाहिए ताकि राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण की समस्या पर सभी दल अपनी राय दें और इस समस्या के निदान का कोई रास्ता मिलजुल कर निकालें।
 यदि ऐसा नहीं होगा तो इस समस्या का कोई अंत नहीं है। साथ ही इतिहास भी आज के नेताओं के बारे में कुछ अलग ढंग की ही राय बनाएगा।

  राजनीति में सबसे बड़ी कमी वस्तुपरकता की है।देश और प्रदेश के अधिकतर नेता अपने वेाट बैंक और अन्य तरह के ओछे स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए ही बयान देते हैं। आरोप और बचाव के बीच कई बार सत्य पिसता नजर आता है। हालांकि आम लोग चीजों को निरपेक्ष ढंग से देखते हैं, इसलिए अंततः उनसे कुछ छिपा हुआ नहीं रहता।

  जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की ताजा घटना को लेकर भी यही सब हो रहा है। यह सच है कि परिसर में कुछ छात्र-छात्राओं तथा अन्य लोगों ने अत्यंत आपत्तिजनक लहजे में भारत विरोधी नारेबाजियां कीं। उस पूरी घटना को लेकर आॅडियो और वीडियो टेप उपलब्ध हैं। इस देश में टेप की प्रामाणिकता की जांच भी संभव है। टेप के विवरण सामने आ जाने के बाद राजनीतिक दलों को उस संवेदनशील मामले पर अपना बयान देना चाहिए था। पर, उससे पहले ही अधिकतर नेता शुरू हो गये। सब अपनी -अपनी पार्टी की लाइन के आधार पर बयान देने और आरोप लगाने लगे।

  बयान परस्पर विरोधी हैं। कोई एक ही पक्ष सच बोल रहा है। दूसरा झूठ। देश की सुरक्षा के मामलों को लेकर भी राजनीतिक दलों का ऐसा रवैया ? उस घटना की पूरी सचाई आ जाने के बाद क्या उससे कई प्रमुख नेताओं की साख नहीं गिरेगी ?

इस बीच बिहार से एक केंद्रीय मंत्री ने कहा है कि नीतीश कुमार को लालू प्रसाद के साथ बैठकर अपराध के कारणों को तलाशना चाहिए। इस बयान में भी पूरी सच्चाई नहीं है।

पूरी सच्चाई तब सामने आती जब मंत्री जी यह कहते कि अब किसी बाहुबली विधायक की गिरफ्तारी के बाद हमारे दल का कोई नेता यह नहीं कहेगा कि हम मुख्यमंत्री की छाती तोड़ देंगे।

 अब तक बिहार में यही होता रहा है कि अपने दल से जुड़े बाहुबलियों को संरक्षण दो और प्रतिद्वंद्वी दलों के बाहुबलियों के खिलाफ अभियान चलाओ। इसीलिए अधिकतर नेताओं के बयानों में एकतरफा सच, अर्ध सत्य और झूठ ही होते हैं।

इससे नेताओं की साख नहीं बढ़ती। जब तक  राजनीतिक दल और नेताओं की साख नहीं बढ़ेगी तब तक लोकतंत्र अपने सही स्वरूप में सामने नहीं आएगा जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी। जो हो रहा है यदि यही सब जारी रहा तो न तो बिहार में अपराध पर काबू पाया जा सकेगा और न ही लोगों में यह धारणा बनेगी कि राजनीतिक नेता सच भी बोलते हैं। यहां अपवाद की चर्चा नहीं की जा रही है।

(16 फरवरी 2016 के दैनिक भास्कर,पटना से साभार)  




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