शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

यू.पी.चुनाव के मद्देनजर अति पिछड़ों को लुभाने की राजग की कोशिश शुरू

राजग अब अति पिछड़ा मतदाताओं को लुभाने के प्रयास मेें लग गया है। उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया जा रहा है।

वैसे उसकी नजर लोकसभा के 2019 के चुनाव पर भी है। खबर मिली है कि भाजपा के पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ ने अति पिछड़ों को गोलबंद करने के लिए रैलियां आयोजित करने का फैसला किया है।

 उधर लोजपा नेता राम विलास पासवान ने भी अपने दल के अति पिछड़ा नेताओं से कहा है कि वे अपनी दुर्दशा पर चुप नहीं रहें।

  भाजपा के कुछ नेताओं की यह राय बन रही है कि केंद्र सरकार को चाहिए कि वह पिछड़ा वर्ग आयोग की उस सिफारिश को स्वीकार कर ले जिसके तहत 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन भागों में बांट देने की सलाह दी गयी है।

  पता नहीं, केंद्र सरकार इस सलाह को मानेगी या नहीं। पर राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार यदि उसने मान लिया तो बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भाजपा को विशेष चुनावी लाभ मिल सकता है। पूरे देश में भी मिल सकता है।

   लगता है कि भाजपा के कुछ नेताओं ने इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है कि 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव जीतना जरूरी है। यदि यू.पी. में भाजपा को पराजय मिली तो राजग के कुछ सहयोगी दल पाला बदल सकते हैं।

  याद रहे कि बिहार विधानसभा के गत चुनाव से ठीक पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण पर विवादास्पद बयान दिया था। गत साल सितंबर में उन्होंने आरक्षण की समीक्षा की जरूरत बताते हुए यह सवाल भी उठा दिया था कि आखिर आरक्षण कब तक जारी रहेगा ? नतीजतन पिछड़ा और दलित समुदाय के उन मतदाताओं ने भी बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को वोट दे दिए जिन्होंने लोकसभा चुनाव में राजग को दिये थे।

 गत लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने मतदाताओं को यह जानकारी दी थी कि नरेंद्र मोदी अति पिछड़ा समुदाय से आते हैं। इसका लाभ भी राजग को तब मिला था।

 मोहन भागवत के बयान के बाद पिछड़ा समुदाय के बड़े हिस्से को 1990 की घटना याद आ गयी थी। तब भाजपा ने वी.पी. सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस लेकर उसे गिरा दिया था। ऐसा इसलिए किया था क्योंकि वी.पी. सरकार ने पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया था। तब कहा गया था कि यदि मंडल आरक्षण नहीं होता तो राम मंदिर आंदोलन भी नहीं होता।

 पर इस घटना से यह धारणा बनी कि भाजपा को सामाजिक न्याय की जरुरत समझ में नहीं आती।या समझना नहीं चाहती। मोहन भागवत के बयान के बाद उस धारणा की पुष्टि हुई थी। अब जबकि बिहार चुनाव में शर्मनाक पराजय के बाद भाजपा पस्तहिम्मत है तो उसके नेताओं के एक हिस्से को राष्ट्रीय स्तर पर अति पिछड़ा वोट बैंक बनाने की जरूरत महसूस हो रही है।

 क्योंकि उन्हें अब यह साफ लग रहा है कि सिर्फ हवाबाजी से 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं जीता जा सकता है।

  हालांकि 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के हवाबाजी के अलावा भी दो -तीन और प्रमुख कारण रहे। तब मनमोहन सिंह सरकार के कई महाघोटालों से आम लोग नाराज थे। साथ ही, यू.पी.ए. की एकतरफा धर्म निरपेक्षता की नीति को भी अनेक मतदाताओं ने नापसंद किया।

 पर अब मनमोहन सरकार नहीं है जिसे निशाना बनाकर चुनाव जीता जा सकेगा। अब नरेंद्र मोदी की सरकार के कार्यकलापों का मतदाता आकलन करेंगे।

 यह सच है कि मोदी सरकार ने महाघोटालों को रोका है। पर केंद्र सरकार  रुटीन भ्रष्टाचार को रोक नहीं पा रही  है। इससे ही आम लोगों का रोज ब रोज पाला पड़ता है। केंद्र सरकार ने राहत और विकास के भी कई काम किये हैं, पर  2014 के लोकसभा चुनाव के समय नरेंद्र मोदी ने देश के सामने जो बड़े-बड़े वायदे किये थे, उन्हें लागू करने में मोदी सरकार  अब तक विफल रही है। इसलिए भी अब भाजपा  के लिए जातीय वोट बैंक तैयार करने की मजबूरी हो गयी है।

 यदि किसी दल के पास अपना जातीय वोट बैंक हो तो उस दल की सरकार अपने वादों को कार्यरूप देने के काम में कुछ देरी करने का जोखिम उठा सकती है।

  ऐसा ही करके कांग्रेस ने लंबे समय तक देश पर राज किया था। याद रहे कि कांग्रेस के वोट बैंक ने ंउसका 1967 और 1977 के चुनावों में भी साथ नहीं छोड़ा था। उन चुनावों में उत्तर भारत में कांग्रेस विरोधी लहर के बावजूद ऐसा हुआ था।

  वैसे भी अति पिछड़ों के कल्याण के लिए अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। तभी देश का समावेशी विकास संभव है। मंडल आरक्षण का लाभ जितना मजबूत पिछड़ों को मिल रहा है, उतना अति पिछड़ों को नहंीं मिल सका है।

  बिहार में नीतीश सरकार ने अति पिछड़ों के लिए विशेष प्रावधानों के जरिए उनका सशक्तीकरण किया है। इसका चुनावी लाभ नीतीश कुमार के दल को मिला भी है।

  नीतीश सरकार ने बिहार की पंचायतों में अति पिछड़ों के लिए 20 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर दीं। उस आरक्षण से पहले अति पिछड़ों के बीच से सिर्फ 3 दशमलव 9 प्रतिशत मुखिया ही चुने जाते थे। जबकि, मजबूत और दबंग पिछड़ों के बीच से 41 दशलव 7 प्रतिशत मुखिया हुआ करते थे।

 आरक्षण के बाद अति पिछड़ों को करीब 16 प्रतिशत का लाभ मिला। याद रहे कि बिहार में मजबूत पिछड़ों की अपेक्षा अति पिछड़ों की संख्या काफी अधिक है। लगभग यही हाल पूरे देश में है। यदि भाजपा के कुछ नेताओं की नजर उधर जा रही है तो वह अकारण नहीं है।

  1977 मेंं कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार ने जब आरक्षण लागू किया तो उसमें भी अति पिछड़ों का विशेष ध्यान रखा गया था। तब 12 प्रतिशत अति पिछड़ों और 8 प्रतिशत पिछड़ों के आरक्षण का प्रावधान था। आज भी बिहार में पिछड़ों की अपेक्षा अति पिछड़ों का कोटा अधिक है।

  यदि केंद्र सरकार अति पिछड़ों के लिए कुछ ठोस कर पाएगी तो वह इस कदम के जरिए आरक्षण के सिद्धांत पर भी अपनी पार्टी की मुहर लगाएगी। अब तक तो इस मुद्दे पर भाजपा का रवैया संदिग्ध ही माना जाता रहा है।

( 9 फरवरी 2016 के दैनिक भास्कर,बिहार से साभार) 


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