रविवार, 7 मई 2017

किसानों की आय बढ़ाए बिना कैसे बढ़ेंगे उद्योग-धंधे !

गत लोकसभा चुनाव के समय भाजपा ने यह वादा किया था कि सत्ता में आने पर  उसकी सरकार किसानों की आय डेढ़ गुनी कर देगी। किसान उस दिन की अभी प्रतीक्षा कर रहे हैं। मोदी सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री ने यह भी कहा था कि सरकार 60 साल से अधिक उम्र के किसानों के लिए पेंशन योजना शुरू कर सकती है। वह भी नहीं हुआ।

इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में नरेंद्र मोदी सरकार से देश के प्रत्येक नागरिक को हर महीने एक तयशुदा आमदनी सुनिश्चित करने की सिफारिश की गयी है। पर सवाल है कि कर का दायरा बढ़ाये और टैक्स चोरी रोके बिना इसके लिए आर्थिक संसाधन कहां से आएंगे ?

इस बीच स्वामी रामदेव की पतंंजलि संस्था ने देश के कुछ किसानों की आमदनी जरूर बढ़ाई है। पर पतंजलि की अपनी सीमाएं हैं। पतंजलि का दावा है कि उसने देश के एक करोड़ किसानों को पतंजलि उद्योग से जोड़ा है। अगले कुछ समय में इस संख्या को बढ़ाकर पांच करोड़ करने की उनकी योजना है।

यानी कृषि उत्पाद को पतंजलि से जुड़े कारखानों में इस्तेमाल किया जा रहा है। पतंजलि दवाओं, खाद्य और पेय पदार्थों का बड़े पैमाने पर उत्पादन कर रही है। पतंजलि के उत्पादों की बढ़ती मांग को देखते हुए कृषकों के लिए थोड़ी उम्मीद बन रही है।

पतंजलि किसान और संबंधित राज्य सरकारों के बीच ईमानदार तालमेल हो सके तो बड़ी संख्या में किसानों को उनके उत्पाद का उचित दाम मिल सकेगा। इससे किसानों की आत्महत्याएं कम होंगी। पर इसमें एक कठिनाई सामने आ रही है। अन्य अनेक लोगों की तरह ही मेरे परिवार में भी पतंजलि के अनेक उत्पादों का इस्तेमाल होता है। उसमें मिलावट और खराब गुणवत्ता का खतरा बहुत कम है।

पर हाल के दिनों में पतंजलि उत्पादों को लेकर छिटपुट शिकायतें भी मिलने लगी हैं।

मैंने भी पतंजलि दफ्तर को इसकी शिकायत भेजी और गुणवत्ता पर निगरानी रखने  की सलाह दी। पर कोई जवाब नहीं आया। न ही किसी तरह की जांच की कोई खबर मिली। यदि अपनी भारी तरक्की से मुग्ध पतंजलि संगठन क्वालिटी कंट्रोल की उपेक्षा करता रहा तो न तो किसानों की उम्मीदें पूरी होंगी और न ही उपभोक्ताओं का उस पर विश्वास बना रहेगा। इस स्थिति में सबसे अधिक खुशी पतंजलि के प्रतिद्वंद्वी बहुराष्ट्रीय संगठनों को होगी।

याद रहे कि मिलावटखोरों के सामने इस देश की सरकारें लगभग लाचार बनी हुई हैं। परोक्ष रूप से पतंजलि उन मानवद्रोहियों का मुकाबला कर रही है। 


किसानों के हितैषी चैधरी चरण सिंह

पूर्व प्रधानमंत्री चैधरी चरण सिंह किसानों के हित में देश का हित देखते थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में इस बात का लगातार प्रचार किया कि किसानों की आय बढ़ाये बिना कारखानों का विकास नहीं हो सकता। देश की अधिकतर आबादी गांवों में रहती है। वह खेती पर निर्भर है।

पर उनमें से अधिकतर किसानों की आय इतनी कम है कि वे अन्य जरूरी सामान के साथ-साथ अपने बच्चों के लिए भी न तो जरूरत के अनुसार कपड़े खरीद पाते हैं और न ही जूते। अधिकतर किसान परिवारों में स्कूली बैग और स्लेट-पेंसिल के भी लाले पड़े रहते हैं।

यदि उन किसानों और उनसे जुड़े लोगों की आय बढ़ेगी तभी जूते, छाते, स्कूली बैग, स्लेट -पेंसिल आदि के अधिक कारखाने लगेंगे। 

पर चरण सिंह से जुड़े नेताओं ने भी सत्ता में आने के बाद खेती की उपेक्षा की। नतीजतन अधिकतर किसानों के लिए आज भी खेती लाभ का पेशा नहीं है।  


आखिर क्यों बढ़ रही भाजपा !

भाजपा की लगातार चुनावी बढ़त से सेक्युलर दल चिंतित हैं। होना भी चाहिए। क्योंकि कोई दल यदि एकतरफा ढंग से बढ़ता जाएगा तो उसकी सरकार में तानाशाही की प्रवृत्ति पैदा हो सकती है। पर समस्या यह है कि तथाकथित सेक्युलर दलों को भाजपा की बढ़त के असली कारण समझ में नहीं आ रहे हैं। या फिर वे समझना नहीं चाहते ?

सेक्युलर दलों के लिए तथाकथित शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर कर रहा हूं। क्योंकि अधिकतर सेक्युलर दल और नेता सांप्रदायिक सवालों और समस्याओं पर एकतरफा रवैया अपनाते हैं। इस रवैये से भी भाजपा को बढ़त मिलती है।

एक पुरानी राजनीतिक कथा याद आती है। वह कथा एक पत्रकार कामरेड ने 1977 में ही सुनाई थी। 1977 में लोकसभा का चुनाव प्रचार चल रहा था। जयप्रकाश नारायण और जनता पार्टी के नेताओं ने आपातकाल की ज्यादतियों को चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाया था। तत्कालीन सरकार के भ्रष्टाचार और वंशवाद अधिकतर लोगों के लिए अहम मुद्दे थे।

पर इस देश के कम्युनिस्टों की एक जमात के नेतागण अपनी पार्टी की चुनाव सभाओं में कहते थे कि दियो गार्सिया द्वीप में अमेरिका अपना फौजी अड्डा बना रहा है। इससे भारी खतरा है। यानी जो मुद्दे अधिकतर भारतीय जनता को उद्वेलित कर रहे थे, उनको कम्युनिस्टों ने महत्व नहीं दिया था।

नतीजतन 1977 में मतदाताओं ने जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता सौंप दी। कांग्रेस के साथ-साथ अधिकतर कम्युनिस्टों की पराजय हुई। चुनाव के बाद कम्युनिस्ट नेताओं की बैठक में एक कामरेड ने चिढ़ाने के लिए अपने नेताओं से सवाल किया कि ‘कामरेड आजकल दियो गार्सिया का क्या हाल है?’ नेता चुप रहे। यानी कम्युनिस्टों ने एक ऐसे मुद्दे को चुनावी मुद्दा बना रखा था जिससे आम जनता का कुछ लेना-देना नहीं था।
कतिपय राजनीतिक प्रेक्षक बताते हैं कि यही हाल आज के अधिकतर सेक्युलर दलों का है। उनके नेता यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा क्यों जीत गयी। यह भी नहीं कि उसके बाद के अधिकतर चुनावों में वह क्यों विजयी होती जा रही है।

कुछ साल पहले पूर्व कंेद्रीय मंत्री शशि थरूर की मृत पत्नी सुनंदा पुष्कर के वेसरा को जांच के लिए भारत सरकार ने अमेरिका भेजा था। कोई हर्ज नहीं यदि सेक्युलर दल किन्हीं निष्पक्ष विदेशी एजेंसी से इस बात की जांच करा लें कि आखिर भाजपा लगातार चुनाव क्यों जीत रही है। यदि सेक्युलर दल सही नतीजे पर नहीं पहुंचना चाहते तब तो कोई बात नहीं।

यह भी कहा जाता है कि अनेक सेक्युलर नेताओं को अपनी हार के असली कारणों का पता है। पर वे अपनी ‘आदतों’ से लाचार हैं। स्वार्थवश उन ‘आदतों’ को बदलने को वे तैयार नहीं हैं। अब वे गैर राजग दलों की महाएकता में अपने लिए राजनीतिक संजीवनी खोज रहे हैं।

प्रेक्षकों के अनुसार इस देश का पिछला राजनीतिक इतिहास यह बताता है कि अपनी आदतों और कमजोरियों को दूर किए बिना सिर्फ दलीय, जातीय और सांप्रदायिक एकता की संजीवनी राजनीतिक दलों को अधिक दिनों तक काम नहीं आती।


गलती मानना बड़प्पन

‘आप’ नेता अरविंद केजरीवाल ने पहले तो कहा कि ‘आप’ इवीएम के कारण हारी। पर अब वह कह रहे हैं कि हार के लिए हमारी गलतियां जिम्मेदार हैं। आज के जमाने में अपनी गलतियां स्वीकारना किसी नेता के लिए अजूबी बात है।

शायद ही कोई नेता अपनी गलती स्वीकारता है। यदि कभी किसी ने स्वीकारा भी तो उसे सुधारा नहीं। केजरीवाल ने अपनी गलती स्वीकार कर राजनीति को एक संदेश दिया है।

उम्मीद है कि अन्य नेतागण भी समय-समय पर अपनी गलतियां स्वीकारेंगे और उन्हें सुधारेंगे भी। यदि ऐसा हुआ तो लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा।


और अंत में

भारतीय भाषाओं के लिए एक अच्छी खबर है। खासकर हिंदी भाषा भाषियों के लिए। सन 2021 तक अंग्रेजी में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या से अधिक संख्या उनकी होगी जो हिंदी में इंटरनेट का इस्तेमाल करेंगे।

एक ताजा आकलन के अनुसार अन्य भारतीय भाषाएं भी इस मामले में अगले चार साल में बढ़ेंगी। अगले चार साल में जितने लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करेंगे, उनमें से 75 प्रतिशत लोग भारतीय भाषाओं के होंगे।

(प्रभात खबर में 5 मई 2017 को प्रकाशित)

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