शुक्रवार, 12 मई 2017

कठिन हो गया है योग्य उम्मीदवारों का मेडिकल कालेजों में दाखिला !

व्यापमं घोटाले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने गत फरवरी में तीन सौ मेडिकल छात्रों के दाखिले को रद कर दिया। नाजायज तरीके से मध्य प्रदेश के मेडिकल कालेजों में दाखिला पाने का उनपर आरोप था।

इधर ‘नीट’ के प्रश्न पत्र आउट करने की कोशिश के आरोप में पटना में रविवार को परीक्षा माफिया  दस्ते के पांच  सदस्य पकड़े गये। माफिया का नेटवर्क पूरे देश मेें सक्रिय है। वे लोग 20 लाख रुपए में मेडिकल प्रतियोगिता परीक्षा पास कराने की गारंटी लेते हैं। करीब 10-15 साल पहले इस काम में 15 लाख रुपए लगते थे।

इस धंधे को उच्चस्तरीय संरक्षण हासिल है। इसीलिए यह लगातार जारी है। ऐसे धंधे को जिन सत्ताधारी नेताओं तथा अन्य लोगों का संरक्षण हासिल है, क्या उन्हें सजा नहीं मिलनी चाहिए ? अनेक सत्ताधीन नेताओं, बड़े अफसरों और धन पशुओं में अपनी संतानों को येन-केन प्रकारेण मेडिकल कालेजों में दाखिला कराने की होड़ मची रहती है। इसलिए भी माफियाओं को राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण हासिल है।

अपार पैसों के बल पर देश भर में अयोग्य उम्मीदवारों का मेडिकल के डिग्री और पी.जी.पाठ्यक्रमों में दाखिला कराया जा रहा है। यानी अपवादों को छोड़ दें तो ऐसे-ऐसे डाक्टर तैयार किए जा रहे हैं, जो सामान्य मरीजों का भी ठीक से इलाज नहीं कर पाएंगे। विशेषज्ञता की तो बात ही और है।

कई मेडिकल कालेजों से खबर आती रहती है कि वार्षिक परीक्षाओं में भी बड़े पैमाने पर कदाचार हो रहे हैं। अयोग्य लोगों को दाखिला दिलाया जाएगा तो वे एम.बी.बी.एस. की वार्षिक परीक्षाएं भी चोरी करके ही तो पास कर पाएंगे।

भ्रष्ट तंत्र वाले इस देश में नेतागण और शासन तंत्र करोड़ों अभागे व गरीब मरीजों को साल दर साल अयोग्य डाक्टरों के हवाले कर रहे हैं। पर नेताओं व अफसरों में कुछ अपवाद भी हैं। पर अपवादों से देश नहीं चलता।
इस मारक स्थिति के लिए शासन व्यवस्था में व्याप्त भीषण भ्रष्टाचार जिम्मेदार है।

भ्रष्टाचारियों का नेटवर्क काफी ताकतवर बन चुका है। उन पर राजनीति के बीच के सारे ईमानदार लोगों को मिलकर पूरी ताकत से हमला करना होगा। क्योंकि मुख्यतः राजनीति के बीच के ही बेईमान लोग इस नेटवर्क के मुख्य संरक्षक हैं।

सरकारी भ्रष्टाचार का कुप्रभाव समाज व सत्ता के विभिन्न क्षेत्रों पर भी पड़ रहा है। इस बीच यदि किसी दल के किसी नेता पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं कि वह दल आरोप लगाने वाले दल के किसी अन्य नेता पर भी ऐसे ही आरोप लगाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेता है।

यानी वे कहते हैं कि आरोप मुझ पर है तो तुम भी कौन दूध के धोये हुए हो ! आरोप-प्रत्यारोप के दो पाटों के बीच आम जनता पिस रही है। डाक्टरों को ‘धरती का भगवान’ कहा जाता है। क्या इस देश की राजनीति कभी इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार करके आम सहमति बनाने की कोशिश करेगी कि कम से कम ‘धरती के नकली भगवानों’ का तो निर्माण किसी भी कीमत पर तत्काल रोक दिया जाना चाहिए ? यदि देश के शिक्षा-परीक्षा माफियाओं को पक्ष विपक्ष के नेताओं और बड़े अफसरों का संरक्षण मिलना बंद हो जाए तो यह काम कतई असंभव नहीं।  


कौन मिटाएगा भ्रष्टाचार ?

  भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने 21 दिसंबर 1997 को भुवनेश्वर में कहा था कि ‘नैतिकता की उम्मीद केवल भाजपा से ही क्यों की जा रही है ? आप हमसे क्या अपेक्षा रखते हैं ? राजनीति के खेल में क्या दूसरे लगातार ‘फाउल’ करे और हम नियमों पर चलें ?’ दरअसल तब उनसे यह सवाल पूछा गया था कि आपने यू.पी. के भाजपा मंत्रिमंडल को गिरने से बचाने के लिए वहां के तमाम माफिया विधायकों को सरकार में क्यों शामिल करा दिया ? 

करीब 20 साल बाद ऐसा ही तर्क पूर्व राज्यसभा सदस्य शिवानंद तिवारी ने दिया है। उन्होंने कहा कि भाजपा मानती है कि सिर्फ वही सदाचारी है। बाकी सब कदाचारी हैं। भाजपा को लगता है कि लालू समाप्त हो जाएं तो देश की राजनीति सदाचारी हो जाएगी।’

ऐसे ही तर्क-वितर्क-कुतर्क के सहारे दशकों से इस देश की राजनीति चल रही है। पर सवाल है कि क्या भ्रष्टाचार का मसला सिर्फ राजनीतिक दलों और नेताओं के बीच का ही मामला है ?

इस बहस में भ्रष्टाचार से रोज-रोज पीडि़त हो रही आम जनता कहां है ? आखिर उसे भ्रष्टाचार के राक्षसों से मुक्ति कौन दिलाएगा ? याद रहे कि भ्रष्टाचार आज लोगों के जीवन- मरण का प्रश्न बन चुका है। भ्रष्टाचार के कारण प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आज देश में कहीं न कहीं किसी न किसी की जान जा रही हैं। अब यह तर्क भी दिया जाने लगा है कि जब जनता ही भ्रष्ट और अपराधी लोगों को चुन लेती है तो कोई क्या कर सकता है?
पर सवाल है कि ऐसी नौबत लाई किसने ? सवाल है कि लुटेरों, माफियाओं और डकैतों को चुनावी टिकट कौन देता है ? यदि सारे दल अच्छे उम्मीदवार ही खड़ा कराएंगे तो जनता के सामने भी मजबूरी हो जाएगी कि वह उन्हीं अच्छों में से किसी एक अच्छे को चुने। आज तो उल्टा ही हो रहा है। जिस तरह अपने वेतन-भत्तों और सुविधाओं की बढ़ोत्तरी के मामले में सांसद-विधायक तुरंत सर्वदलीय सहमति बना लेते हैं, उसी तरह यदि वे चाहते तो सिर्फ गैर विवादास्पद लोगों को ही टिकट देने के मामले में भी आम सहमति बना सकते थे। पर वे ऐसा कत्तई नहीं चाहते।  

साठ के दशक में एक अमेरिकन प्रोफेसर ने उत्तर प्रदेश में अपने गहन रिसर्च के बाद लिखा था कि अपने स्वार्थवश सत्ताधारी नेताओं ने ही राज्य स्तर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार का बीजारोपण किया और फैलाया।
आम लोग तो भ्रष्टाचार के शिकार हैं। फिर भी कुछ नेता लोग यह चाहते हैं कि न तो स्कूटर पर सांड ढुलवाने वालों को कोई सजा हो और न ही यादव सिंह नामक महाभ्रष्ट इंजीनियर को संरक्षण देने वालों को।

इस देश में जैन हवाला घोटालेबाज भी बच जाते हैं और बोफर्स घोटालेबाज भी। भले बाजार से कर्ज लेकर केंद्र और राज्य सरकारें अपना खर्च चलाने को मजबूर हों, पर सार्वजनिक धन के अधिकतर लुटेरों पर कोई आंच नहीं आती है। आखिर यह सब कब तक चलेगा ?
अधिक दिनों तक नहीं।  


ऐसे शिकार बना रहा भ्रष्टाचार 

देश के अधिकतर नगर प्रदूषण और अतिक्रमण से कराह रहे हैं। प्रदूषण से कैंसर की बीमारी बढ़ रही है। वाहन और कल कारखाने प्रदूषण फैला रहे हैं। बाजार की अधिकतर सामग्री में मिलावट है। बटखरों का वजन कम है। पेट्रोल पंपों में चीप लगाकर कम तेल दिया जा रहा है। इस देश में इस तरह की अन्य अनेक गड़बडि़यां आए दिन सामने आती रहती हैं। पर इन पर निगरानी रखने वाले अधिकतर सरकारी अफसरों को सिर्फ रिश्वत चाहिए।
ऐसे भ्रष्ट निगरानी अफसरों को, उनसे पैसे लेकर, जो सत्ताधारी नेता-अफसर संरक्षण देते हैं, क्या उन्हें सजा नहीं होनी चाहिए ? उत्तर प्रदेश से यह खबर आई है कि यदि जिलों के एस.पी. थानेदारों से मासिक उगाही बंद कर दें तो अपराध काफी हद तक रुक जाएगा।

क्या ऐसी उगाही सिर्फ एक राज्य तक सीमित है ?

अभी तो भीषण भ्रष्टाचार से जनता पीडि़त और अधिकतर नेता लाभन्वित हो रहे हैं। हां,नेताओं की अगली पीढियां अन्य लोगों के साथ -साथ भ्रष्टाचार से अधिक पीडि़त हांेगी। तब उनके वंशज अपने पूर्वजों को ही गालियां देंगे। 


और अंत में

दुनिया के एक तिहाई गरीब भारत में रहते हैं। इस देश के 20 करोड़ लोग रोज भूखे पेट सो जाते हैं। 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से हम जो सौ पैसे भेजते हैं, उनमें से 15 पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं।

85 पैसे बिचैलिए लूट लेते हैं। इस मामले में 32 साल बाद भी कितना फर्क आया है ? 85 पैसे लूटने वालों और उन्हें सरंक्षण देने वाले कितने बड़े नेताओं और अफसरों को अब तक सजाएं मिल सकी हैं ?
( प्रभात खबर में 11 मई 2017 को प्रकाशित)

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