शनिवार, 20 मई 2017

अंततः फायदे में नहीं रहते राजनीति में हिंसा का सहारा लेने वाले

 जयप्रकाश नारायण ने 14 जून 1974 को बिहार विधानसभा के स्पीकर हरिनाथ मिश्र को लिखा था कि ‘विधानसभा के सामने छात्रों के सत्याग्रह के सिलसिले में कुुछ विधायकों के साथ दुव्र्यवहार किये जाने और उनके विरूद्ध भद्दे नारे लगाये जाने की सूचना मुझे मिली है। रिपोर्ट परस्पर विरोधी है, पर यह लगता है कि कुछ भद्दे नारे तो सत्याग्रहियों ने भी दुहराये। पर कुर्ता फाड़़ना, रिक्शे से नीचे खींचना आदि दुष्कृत्य दर्शकों में से ही कुछ लोगों ने किये। पर चाहे जिन लोगों ने ऐसा किया हो, मुझे घटना के लिए बहुत खेद है। जिन विधायकों के साथ ऐसा दुव्र्यवहार किया गया, उनके प्रति मैं क्षमाप्रार्थी हूं। आप मेरी यह भावना उन सभी विधायकों तक पहुंचा दें और मेरा यह पत्र विधानसभा में पढ़कर सुना देने की कृपा करें। मैं आभार मानूंगा।’

  इस पत्र को आज के संदर्भ में देखें। बुधवार को पटना के वीरचंद पटेल पथ पर जो कुछ हुआ, उससे जेपी की आत्मा कराह रही होगी। इसलिए भी राजद और भाजपा के आज के शीर्ष नेतागण 1974 के उस आंदोलन में सकिय थे जिसका नेतृत्व जेपी ने किया था। कुछ लोग कह सकते हैं कि क्या राजनीति के सतयुग की बात आज के ‘कलियुग’ में लेकर बैठ गए! पर राजनीति के ‘कलियुग’ का एक उदाहरण यहां पेश है।

नब्बे के दशक की बात है। सी.बी.आई. चारा घोटाले की जांच कर रही थी। सी.बी.आई. के संयुक्त निदेशक डाॅ. यू.एन. विश्वास के खिलाफ राजद ने पटना राजभवन के सामने तलवार जुलूस निकाला था। विश्वास के पुतले को तलवार से काटा गया था। पर क्या ऐसे प्रदर्शन से राजद को कोई लाभ मिला? न तो कानूनी लाभ मिला और राजनीतिक लाभ।

चारा घोटाले के केस में क्या हो रहा है, यह सबको मालूम है। साथ ही जिस लालू प्रसाद ने अपने बल पर 1995 के चुनाव में विधानसभा में पूर्ण बहुमत लाया था, उनके दल ने सन 2000 के चुनाव में बहुमत खो दिया। कांग्रेस की मदद से राबड़ी देवी की सरकार बन सकी थी।

मंगलवार को आयकर महकमे ने लालू प्रसाद से जुड़े लोगों के ठिकानों पर छापे मारे। लोकतांत्रिक देश में अच्छा तो यह होता कि राजद के लोग उसका मुकाबला कानूनी तरीके से करते। लाठी-डंडे के साथ प्रतिबंधित क्षेत्र में शक्ति प्रदर्शन से न नब्बे के दशक में उन्हें लाभ मिला था और न ही अब मिलने की उम्मीद है। उधर भाजपा के लोगों ने बुधवार को राजद के प्रदर्शनकारियों के मुकाबले के सिलसिले में कोई आदर्श उपस्थित नहीं किया।

जेपी आंदोलन में यही लोग यह नारा लगा रहे थे कि ‘हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा।’ पर वीरचंद पटेल पथ पर कुछ भाजपाइयों के हाथों में भी लाठियां और पत्थर देखे गये थे। यदि बिहार में सुशासन है तो वह एक बार फिर कसौटी पर है। यदि बुधवार को पटेल पथ पर अशोभनीय और हिंसंक दृश्य उपस्थिति करने वालों दोनों पक्षों के उपद्रवियों पर कार्रवाई करनी होगी। हालांकि यह बात छिपी नहीं रही कि पहल तो राजद से जुड़े लोगों ने ही की थी।   


हिंसक राजनीति की प्रयोगशाला का हाल

पश्चिम बंगाल हिंसक राजनीति की प्रयोगशाला रहा है। सन 1967 में नक्सलबाड़ी से हिंसक आंदोलन शुरू हुआ। उसे तत्कालीन सिद्धार्थ शंकर राय की सरकार ने पुलिस और बाहुबलियों के बल पर कुचला। 1977 में कांग्रेस चुनाव हार गयी।

वाम मोर्चा ने भी लंबे समय तक राज किया। पहले तो अपने कुछ गरीबपक्षी कामों से वाम मोर्चा सरकार ने जनता का समर्थन पाया।पर बाद के दिनों में जोर जबर्दस्ती से राज चलाया। राय सरकार के दौर के अनेक बाहुबली वाम में शामिल हो गये। ममता बनर्जी ने उनकी हिंसा का विरोध करके सत्ता पायी। पर अब वैसा ही आरोप बनर्जी सरकार पर भी लग रहा है। ममता बनर्जी पर मुस्लिम तुष्टिकरण का भी आरोप है। नतीजतन वहां भाजपा बढ़ रही है।

देखना है कि दीदीगिरी कब तक चलती है। बाहुबल और जातीय सांप्रदायिक वोट बैंक के जरिए चुनाव जीतने के बदले लोकतंत्र में लोगों का दिल जीतना अधिक लाभदायक तरीका है।


शिक्षकों की हो परीक्षा

मंगलवार को पटना में बिहार के कुलपतियों और प्रतिकुलपतियों का सम्मेलन हुआ। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बिहार की गरिमा को पुनस्र्थापित करने की जरूरत बताई गयी। पर सवाल है कि इस काम की शुरुआत कहां से हो? 

मुझे कम से कम एक बात समझ में आती है। विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक पहले ऐसे शिक्षक तो बहाल हों जिन्हें अपने विषय का ज्ञान हो। खबर आती रहती है कि सब तो नहीं ,पर अधिकतर शिक्षक अयोग्य हैं। हाल में एक वी.सी. ने सार्वजनिक रूप से कहा कि पटना के सबसे प्रतिष्ठित काॅलेज में ऐसे शिक्षक भी आ गए हैं जिन्हें ‘प्रिंसिपल’ तक लिखना नहीं आता।

नब्बे के दशक की एक खबर के अनुसार, एक काॅलेज शिक्षक ने छुट्टी के आवेदन पत्र में लिखा कि मेरे स्टाॅमक में हेडेक है। उन्हीं दिनों मैंेने पटना के एक प्रतिष्ठित हाई स्कूल के प्राचार्य का हस्तलिखित आवेदन पत्र पढ़ा था। दस लाइन के आवेदन पत्र में कोई लाइन भी शुद्ध नहीं थी।

इस पृष्ठभूमि में मौजूदा शिक्षकों की प्रतिभा-योग्यता की टुकड़ों में बारी -बारी से जांच होनी चाहिए। यानी छोटे सौ -दो सौ के समूहों में शिक्षकों को बारी-बारी से बुलाकर ईमानदार अफसरों व पुलिकर्मियों की कड़ी निगरानी में जांच परीक्षा होनी चाहिए। जो पास करें,वे शिक्षक रहें और जो फेल करें उन्हें किन्हीं अन्य सरकारी कामों में लगा दिया जाए।

जो काॅलेज शिक्षक प्रिंसिपल शब्द शुद्ध नहीं लिख सकता है, उसके हाथों नई पीढि़यों का भविष्य क्यों सौंपा जाए? पटना हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति अजय कुमार त्रिपाठी ने भी कहा है कि शैक्षिक मुद्दों को आयरन हैंड से हैंडल करना होगा। यानी यदि अयोग्य शिक्षकों से छात्रों को मुक्त करने का कोई कड़ा प्रयास राज्य सरकार करेगी तो अदालत से भी समर्थन मिल सकता है।  

सरकारी मकान से मोह

केंद्र सरकार की पहल अच्छी है। वह नाजयज तरीके से सरकारी मकानों में वर्षों से रह रहे प्रभावशाली लोगों को शीघ्र निकाल बाहर करने का फैसला किया है। इसके लिए संबंधित नियमों में बदलाव किया जा रहा है।

पहले के नियम के अनुसार मकान खाली के करने के लिए सरकार सात सप्ताह का समय देती थी। इसे घटाकर अब तीन दिन किया जा रहा है। साथ ही मकान में बने रहने के लिए कोई निचली अदालत की शरण नहीं ले सकता है।
  
और अंत में

खबर छपी है कि पटना के पांच सफाई निरीक्षक निलंबित कर दिये गए। इस खबर को पढ़कर किसी ने सवाल पूछा कि क्या पटना में ऐसा कोई पद भी है ? उस पद कुछ लोग बैठे हुए भी थे ? क्या इन पांच के अलावा भी ऐसे कुछ और निरीक्षक भी हैं? आखिर वे करते क्या हैं ? क्या वे सिर्फ प्रभावशाली लोगों के यहां ही सफाई करवाते हैं ? 
(प्रभात खबर में प्रकाशित)

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