सुप्रीम कोर्ट ने ललित नारायण मिश्र हत्याकांड मुकदमे की सुनवाई में देरी पर सन् 2011 में ही आश्चर्य प्रकट करते हुए इस संबंध में स्टेटस रिपोर्ट मांगी थी। सुप्रीम कोर्ट के इस निदेश का क्या नतीजा निकला, यह तो नहीं मालूम, पर यह तथ्य है कि अब तक इस केस को अंतिम मुकाम तक नहीं पहुंचाया जा सका है।
यानी लोअर कोर्ट भी इस केस में किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका है।
लोअर कोर्ट के फैसले के बाद उसकी अपील हाईकोर्ट व बाद में सुप्रीम कोर्ट में की जा सकती है। यानी इस केस में और कितनी देरी हो सकती है, इसकी कल्पना कठिन नहीं है।
याद रहे कि 1975 में तत्कालीन रेलमंत्री एल.एन. मिश्र की बिहार के समस्तीपुर में खुलेआम हत्या कर दी गई थी। किसी बड़े नेता की हत्या के केस की सुनवाई में देरी का यह एक रिकाॅर्ड है। इस मामले की सुनवाई पहले समस्तीपुर कोर्ट में हो रही थी, पर 1979 में इस मुकदमे को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया था। तब से इसकी सुनवाई जारी है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 1991 में ही यह निदेश दिया था कि इस केस की सुनवाई प्रति दिन होनी चाहिए।
मिश्र हत्याकांड की सुनवाई में देरी इस देश की आपराधिक न्याय व्यवस्था की स्थिति पर एक कड़ी टिप्पणी है। इस देरी के लिए सिर्फ न्यायालयों पर कार्य अधिकता ही जिम्मेदार नहीं है। जब एक ताकतवर केंद्रीय मंत्री के हत्यारों को भी इस देश में समय पर सजा नहीं मिल पा रही है, तो अन्य सामान्य अदालती मामलों के हश्र की कल्पना आसानी से की जा सकती है। ऐसी ढीली न्याय प्रणाली का खामियाजा पूरा समाज और देश भुगत रहा है। इससे सिर्फ अपराधी खुश होते हैं।
ललित नारायण मिश्र सत्तर के दशक के चर्चित केंद्रीय मंत्री थे। अपने जीवनकाल में वे कई कारणों से अक्सर चर्चाओं में रहते थे। पर, उससे भी अधिक चर्चा उनकी हत्या को लेकर हुई थी।
ललित नारायण मिश्र एक दबंग और विवादास्पद नेता थे। वे तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और उनके छोटे पुत्र संजय गांधी के करीबी थे। उनके जितने दोस्त थे, उतने ही दुश्मन। बिहार के मजबूत नेता व स्वतंत्रता सेनानी ललित नारायण मिश्र की हत्या से संबंधित मुकदमे की सुनवाई के अंत की वर्षों से बिहारवासी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
याद रहे कि इस केस में भी शुरू से ही राजनीति होती रही है। यह भी देरी का कारण रहा। इसे राजनीतिक हत्या बताया जाता है। इस केस की जांच का भार पहले बिहार पुलिस की सी.आई.डी. और बाद में सी.बी.आई. को सांैपा गया। बिहार की अदालत में इस केस से संबंधित आरोप पत्र दाखिल किया गया था। पर बाद में सी.बी.आई. ने सुप्रीम कोर्ट से गुजारिश की थी कि वह इस केस को बिहार से बाहर सुनवाई के लिए भेजने का आदेश दे। क्यांेकि इस केस से संबंधित कागजात नष्ट किए जाने का खतरा है और गवाह विक्रम की जान पर भी खतरा है। विक्रम इस केस का इकबालिया गवाह बन गया था।
सी.बी.आई. ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि विक्रम को बिहार की जेल में जान से मार देने की धमकी मिल रही है। संभवतः यह पहला केस था जिसकी सुनवाई संबंधित राज्य से बाहर करने का सुप्रीम कोर्ट ने 17 दिसंबर 1979 को आदेश दिया। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की त्वरित सुनवाई का आदेश भी निचली अदालत को दिया था। इसके बावजूद कई कारणों से यह केस लंबा खिंचता चला गया।
22 मई 1980 को यह केस सेशन ट्रायल के लिए भेज दिया गया था। याद रहे कि इकबाली गवाह यानी एप्रूवर विक्रम ने 7 मई 1980 को दिल्ली के चीफ मेट्रोपाॅलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष यह बयान दिया था कि अक्तूबर 1978 में बिहार सरकार के तत्कालीन मुख्य सचिव ने उससे कहा था कि राज्य सरकार इस केस को वापस कराना चाहती है। विक्रम ने यह भी कहा था कि बिहार सरकार चाहती है कि उसके कहने के अनुसार ही वह कोर्ट में गवाही दे।
याद रहे कि जब ललित नारायण मिश्र की हत्या हुई थी तब कांग्रेस के अब्दुल गफूर बिहार के मुख्यमंत्री थे। बाद में उसी दल के डा. जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री बना दिए गए। कांग्रेस हाई कमान के इस फैसले को स्वीकार कर लेने के कारण ललित बाबू की विधवा डा. मिश्र से नाराज हो गई थीं। डा. मिश्र ललित बाबू के भाई हैं। इस नाराजगी को लेकर तरह- तरह की चर्चाएं थीं। आपातकाल की समाप्ति के बाद जनता पार्टी के कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने। सन् 1980 में इंदिरा गांधी फिर कें्रद्र में सत्ता में आ गईं। 1980 में ही डा.जगन्नाथ मिश्र एक बार फिर मुख्य मंत्री बने।
कर्पूरी ठाकुर जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने प्रसिद्ध न्यायविद् वी.एम.तारकुंडे से कहा था कि वे इस बात की समीक्षा करें कि सी.बी.आई.इस केस कीं जांच सही दिशा में कर रही है या नहीं। तारकुंडे ने फरवरी, 1979 में प्रस्तुत अपनी रपट में साफ -साफ कह दिया था कि सी.बी.आई. इस केस में आनंद मार्गियों को गलत ढंग से फंसा रही है। इस रपट को बिहार सरकार ने केंद्र सरकार को भेज दिया था।
पहले दिल्ली के पाटियाला हाउस कोर्ट में यह केस गया। फिर इसे तीस हजारी कोर्ट में भेज दिया गया। इस लंबे खिंचते मुकदमे की सुनवाई बारी- बारी से करीब दो दर्जन जज कर चुके हैं। कुछ समय पहले तक प्राप्त सूचना के अनुसार बचाव पक्ष के चार वकीलों का सुनवाई के बीच ही देहांत हो चुका है। एक अभियुक्त की भी मृत्यु हो चुकी है। सन 2011 में यह सूचना मिली थी कि बचाव पक्ष के कुल 39 गवाहों में से 31 की इस बीच मृत्यु हो चुकी है।
इस केस के दस्तावेज 11 हजार पन्नों में हैं। सी.बी.आई. ने आनंद मार्ग से जुड़े 10 प्रमुख लोगों के खिलाफ अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया। आनंद मार्ग के जिन लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया, उनमें संतोषानंद, सुदेवानंद, गोपाल जी, रंजन द्विवेदी, दीनानंद, राम कुमार, रामाश्रय और अर्थानंद शामिल हैं। इनमें से कुछ व्यक्तियों का निधन हो चुका है। राम कुमार तथा रामाश्रय को गिरफ्तार नहीं किया जा सका। कई सौ गवाहों की गवाहियां गुजर चुकी हैं। कई साल साल पहले एल.एन.मिश्र के पुत्र विजय कुमार मिश्र की गवाही हो चुकी है। विजय मिश्र बिहार में विधायक हैं।
यह हत्याकांड जब हुआ था तब आनंद मार्ग के संस्थापक प्रभात रंजन सरकार उर्फ आनंदमूर्ति जी पटना के केंद्रीय कारा में बंद थे। उन पर अपने ही संगठन के बागी संन्यासियों की हत्या का आरोप था। यह बात और है कि वे बाद में उन आरोपों से बरी हो गए थे। पर आनंदमूर्ति के जेल में रहने के कारण देश-विदेश में फैले उनके कट्टर अनुयायियों में बड़ा रोष था। सी.बी.आई. का आरोप है कि आनंदमार्गियों ने अपने गुरू की रिहाई के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए ललित नारायण मिश्र की हत्या कर दी।
हालांकि बिहार पुलिस की सी.आई.डी. द्वारा प्रारंभिक जांच के सिलसिले में जो बातें सामने आई थीं, वे बातें किन्हीं अन्य प्रभावशाली लोगों की तरफ इशारा करती थीं। इस हत्याकांड के मुख्य सूत्रधार दिल्ली के एक अत्यंत प्रभावशाली व्यक्ति बताये जाते हैं जिनका सत्ता के शीर्ष से सीधा संबंध था। आनंदमार्गी इस हत्याकांड में कहीं नहीं थे।
ललित बाबू के एक परिजन ने भी इन पंक्तियों के लेखक से व्यक्तिगत बातचीत में इस बात की पुष्टि की थी कि दिल्ली के उस प्रभावशाली व्यक्ति का ही हत्या में हाथ था।
इस केस में पूर्व मुख्यमंत्री डा.जगन्नाथ मिश्र पहले ही गवाही दे चुके हैं। इस केस के मुतल्लिक ललित बाबू के परिजन भी यह मानते हैं कि जिन आनंदमार्गियों को आरोपित किया गया है, उनसे ललित बाबू की कोई दुश्मनी नहीं थी। आनंद मार्ग से भी उनकी कोई दुश्मनी नहीं थी। दिल्ली से गवाही देकर पटना लौटे विजय कुमार मिश्र ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया था कि मैंने अदालत को कह दिया है कि मेरे पिता की हत्या में उन लोगों का हाथ नहीं है जिनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया गया है।
इससे पहले ललित नारायण मिश्र की विधवा कामेश्वरी देवी ने मई 1977 में तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री चरण सिंह को पत्र लिखकर उनसे मांग की थी कि वे मेरे पति की हत्या के मामले की फिर से जांच कराएं। उन्होंने यह भी लिखा था कि जिन आनंदमार्गियों को इस कांड में गिरफ्तार किया गया है, वे निर्दोष हैं। याद रहे कि कामेश्वरी देवी का सन् 2001 में निधन हो गया।
आश्चर्यजनक ढंग से यह बात सी.बी.आई. की कहानी से मेल नहीं खाती। अब कोर्ट को फैसला करना है कि वह सी.बी.आई की बातों पर भरोसा करती है कि ललित बाबू के परिजनों की गवाही पर। इस केस में फैसला कुछ भी हो, कोई न कोई पक्ष अपील में ऊपरी अदालत में जाएगा ही। क्योंकि मामला न सिर्फ विवादास्पद है बल्कि इसमें राजनीतिक पुट भी है। उनकी हत्या के बाद से ही यह सवाल पूछा जाता रहा है कि क्या उनकी हत्या के पीछे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी ?ं
दरअसल इस केस के प्रारंभिक दिनों से ही इस हत्याकांड की जांच प्रक्रिया को लेकर कई तरह की आशंकाएं जाहिर की जाती रही हंै। इस केस की सुनवाई में विलंब होने का यह भी एक कारण रहा। 21 जनवरी 2001 को ही अदालत इस केस में अभियुक्तों के खिलाफ आरोप गठित कर पाई। इस बीच किसी न किसी बहाने सुनवाई टलती रही।
केस की गति यही थी कि सुनवाई शुरू होने के बाद दस साल में यानी सन् 2001 तक अदालत सात में से सिर्फ दो आरोपितों के बयान ही दर्ज करा पाई थी। ऐसा इस देश के अनेक मुकदमों के सिलसिले में आए दिन होता रहता है। सरकारें अभियोजन पक्ष को चुस्त बनाने की दिशा में काम नहीं करती।
बाद में रोज ब रोज सुनवाई करने का तय हुआ तो केस कुछ तेजी से आगे बढ़ने लगा। लगा था कि सन् 2009 में किसी समय इस केस का कुछ न कुछ फैसला हो जाएगा। पर ऐसा नहीं हो सका है।
उत्तर बिहार के समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर 2 जनवरी 1975 को समस्तीपुर-मुजफ्फरपुर बड़ी लाइन का उद्घाटन समारोह था। समारोह चल ही रहा था कि सभा स्थल पर ग्रेनेड से हमला कर दिया गया। इस हमले में रेलमंत्री सहित कई लोग घायल हो गए।
आरोप है कि इस विस्फोट के बाद से ही इस बात का षड्यंत्र शुरू हो गया कि कैसे ललित नारायण मिश्र का जल्दी से जल्दी और ठीक- ठाक इलाज नहीं होने दिया जाए। ऐसे कुछ नेता लोग भी घटनास्थल पर थे जिनका नाम इस कांड में षड्यंत्रकारी के रूप में बाद में आया था। दरअसल वे ललित बाबू के पहले करीबी ही माने जाते थे, पर वे बाद में भीतर ही भीतर दुश्मन हो चुके थे। षड्यंत्र के तार दिल्ली तक जुड़े बताए गये।
2 जनवरी 1975 को शाम 5 बज कर 50 मिनट पर हैंड ग्रेनेड से हमला किया गया। घायल ललित बाबू को बगल के शहर दरभंगा के किसी निजी अस्पताल में इलाज के लिए पहुंचाया जा सकता था। पर उन्हें विशेष ट्रेन से समस्तीपुर से काफी दूर दानापुर लाया गया। वह विशेष ट्रेन जिससे घायल को दानापुर लाया गया, वह समस्तीपुर से रात आठ बजे ही खुल सकी।
बताया गया कि तकनीकी कारणों से ट्रेन जल्दी नहीं खुल सकी। उस ट्रेन को जानबूझ कर बीच में भी रोका गया। उन दिनों बिहार के सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की हड़ताल थी, किंतु निजी चिकित्सकों से ललित बाबू का इलाज करवाया जा सकता था। समस्तीपुर से घंटों यात्रा करके दानापुर के मामूली रेलवे अस्पताल में लाने के पीछे कई लोगों को तब षड्यंत्र ही लगा था। जाहिर है कि इस बीच उनकी हालत बिगड़ गई और अगले दिन उनकी मृत्यु हो गई।
इस हत्याकांड की कहानी सिर्फ इसलिए ही अजूबी नहीं है कि इसकी जांच और सुनवाई में रिकाॅर्ड समय लग रहा है, बल्कि इसलिए भी अजीब है क्योंकि इसमें काफी गुत्थियां हैं। इस केस को लेकर ललित बाबू के शुभचिंतकों व उनको जानने वाले लोगों में उलझन बरकरार है।
इस केस के अनुसंधान के दौरान कई मोड़ आए। घटना के बाद की शुरुआती जांच के दौरान अरुण कुमार ठाकुर और अरुण मिश्र के सनसनीखेज बयान सामने आए थे। इन लोगों ने समस्तीपुर के एक न्यायिक दंडाधिकारी के समक्ष सी.आर.पी.सी. की धारा -164 के तहत यह बयान दिया था कि किसी के कहने पर उन लोगों ने ही हत्या की योजना बनाई थी और उस काम को अंजाम दिया था। बिहार पुलिस की सी.आई.डी. ने मिश्र और ठाकुर के बयान दर्ज करवाए थे।
पर, इस बयान के आने के तत्काल बाद सी.बी.आई. के निदेशक डी.सेन ने समस्तीपुर का दौरा किया और कह दिया कि मिश्र और ठाकुर निर्दोष हैं। दरअसल ललित नारायण मिश्र की हत्या में आनंदमार्गियों के हाथ हैं। दरअसल अरुण मिश्र और अरुण ठाकुर के बयानों से यह बात भी सामने आ रही थी कि इस हत्याकांड में बिहार के एक एम.एल.सी., मुजफ्फरपुर के एक कांग्रेसी नेता और दिल्ली के एक चर्चित कांग्रेसी नेता शमिल हैं।
जो लोग आनंदमार्गियों को निर्दोष मानते हैं, उन्हें इस मिश्र-ठाकुर की कहानी पर भरोसा है। पर पता नहीं असलियत क्या है। अदालत के सामने सारे तथ्य दोनों ंपक्ष रख रहे हैं। अदालती निर्णय से दूध का दूध और पानी का पानी होने की उम्मीद की जानी चाहिए। अदालत देखेगी कि सी.बी.आई. के आरोप पत्र में कितना दम है। वह यह भी देखेगी कि जो लोग आरोपित हैं, उनकी कहानी में कितना दम है।
इस मुकदमे के अलावा ललितनारायण मिश्र हत्याकांड की जांच के लिए मैथ्यू आयोग भी बना था। मैथ्यू आयोग के समक्ष समस्तीपुर रेल पुलिस के अधीक्षक सरयुग राय और अतिरिक्त कलक्टर आर.वी. शुक्ल ने कहा था कि ललित नारायण मिश्र को घायलावस्था में समस्तीपुर से दानापुर ले जाने वाली गाड़ी को समस्तीपुर स्टेशन पर शंटिंग में ही एक घंटा दस मिनट लग गये।
दरभंगा के कमिश्नर जे.सी. कुंद्रा ने 16 अप्रैल 1975 को आयोग से कहा कि मैंने उद्घाटन के अवसर पर दो हजार लोगों को निमंत्रित करने के रेल अधिकारियों के प्रस्ताव पर कभी सहमति नहीं दी थी। पर सुरक्षा व्यवस्था पूरी थी। बम विस्फोट के कारण उत्पन्न विभ्रम के कारण भी घायल को लेकर जा रही रेलगाड़ी के छूटने में देर हुई होगी। साथ ही इसका यह भी कारण था कि स्टीम इंजन को बदल कर रेल अफसर उस ट्रेन में डीजल इंजन लगाना चाहते थे ताकि ट्रेन की गति अधिक हो।
(22 फरवरी 2014)