बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

गठबंधन से पहले ओपिनियन पोल की जल्दीबाजी क्यों ?

चुनावी गठबंधन का काम पूरा होने से पहले ही ओपिनियन पोल कराने की जल्दीबाजी क्यों दिखाई जा रही है ? इसको लेकर राजनीतिक हलकों में आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है।

  चुनावी गठबंधन के काम अभी अधूरे हैं। चुनाव पूर्व दल-बदल की प्रक्रिया भी अभी पूरी नहीं हुई है। हर चुनाव से पहले बड़ी संख्या में नेता दल बदल करते हैं। दल बदल टिकट के बंटवारे तक जारी रहते हैं। वोट के समीकरण में राजनीतिक गठबंधनों व दल- बदल का काफी महत्व रहा है। इस देश का चुनावी इतिहास यही बताता है।

  पर गठबंधन के पहले ही इन दिनों धुआंधार चुनावपूर्व ओपियन पोल कराए जा रहे हैं। उनके नतीजे भी सार्वजनिक किये जा रहे हैं। ऐसे में ये नतीजे आखिर कितने सटीक साबित होंगे ?

  यह सवाल बिहार को लेकर अधिक मौजूं है।


नतीजे गलत होने के आसार

   वैसे भी ओपिनियन पोल के नतीजे सीटों की संख्या के बारे में सटीक नहीं होते। हो भी नहंीं सकते। पर,उससे चुनावी हवा के रुख का जरूर पता चल जाता है। पर, यह भी इस बात पर निर्भर करता है कि ओपिनियन पोल का समय क्या है। चुनावी गठबंधन से पहले तो ओपिनियन पोल के नतीजों के गलत होने के और भी आसार रहते हैं। इसके बावजूद ओपिनियन पोल करने-कराने के लिए इतनी जल्दीबाजी क्यों ? इस जल्दीबाजी के कारण ओपिनियन पोल को बकवास बताने वालों को बल मिल रहा है। नेताओं की एक जमात हमेशा ही ओपिनियन पोल के खिलाफ आवाज उठाती रही है।

ओपिनियन पोल के नतीजे जिन दलों या नेताओं के खिलाफ जाते हैं, वे तो कुछ अधिक ही जोर-शोर से ऐसे पोल के खिलाफ आवाज उठाते रहते हैं। उनमें से कुछ लोग पोल की मंशा पर भी शक करते हैं। समय पूर्व ओपिनियन पोल से ऐसे लोगों को बल मिलता है।  


अलग पोल के अलग नतीजे

बिहार से संबंधित कुछ ओपिनियन पोल के परस्परविरोधी नतीजे भी आ रहे  हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार उनके सटीक होने के बारे में संदेह है। अब तक   दो अलग- अलग ओपिनियन पोल के अलग-अलग नतीजे आ चुके हैं। ये पोल हाल ही कराए गए थे।


अलग-अलग गठबंधन

    बिहार में राजद, जदयू और भाजपा अलग -अलग बड़ी राजनीतिक ताकतें हैं। ये दल अलग-अलग गठबंधन करने की कोशिश में हैं। यदि गठबंधन हो गये तो वोट के समीकरण थोड़ा बदल सकते हैं। फिर तो चुनाव नतीजे भी अलग तरह के हो सकते हैं। ऐसे में हाल के ओपिनियन पोल के नतीजों का क्या और कितना अर्थ रह जाएगा ?

  इन पंक्तियों के लिखते समय तक राजद प्रमुख लालू प्रसाद कांग्रेस, लोजपा और एन.सी.पी. से चुनावी तालमेल की कोशिश में हंै। बातचीत चल रही है। पर इस बीच यह भी खबर आई है कि लोजपा भाजपा से तालमेल कर सकती है।

  उधर जदयू भी कुछ वाम दलों से गठबंधन कर सकता है। वह काम भी अभी पूरा नहीं हुआ है। छोटे-छोटे दलों की चुनावों में भूमिका कई बार महत्वपूर्ण हो जाती है।

राम विलास पासवान की पार्टी लोजपा एक छोटी पार्टी है। पर वह दही में जोड़न का काम करती रही है। सन 1999 के लोकसभा चुनाव में लोजपा एन.डी.ए. के साथ थी। नतीजतन उस चुनाव में बिहार से राजग को ही लोकसभा की अधिकतर सीटें मिलीं थीं।

पर राजग को छोड़कर लोजपा 2004 के लोकसभा चुनाव में राजद के साथ हो गई। परिणाम इस गठबंधन के पक्ष में हो गया और राजग की खटिया खड़ी हो गई।

पर 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले लोजपा के किसी गठबंधन में शामिल होने की घोषणा के बिना ही ओपिनियन पोल करा लिये गये और रिजल्ट घोषित कर दिये गये। आखिर ऐसे ओपिनियन पोल के नतीजों को कितना विश्वसनीय माना जाए?

 (24 फरवरी 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित) 


शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

सुनवाई में देरी का एक रिकार्ड है एल.एन.मिश्र हत्याकांड मुकदमा

   सुप्रीम कोर्ट ने ललित नारायण मिश्र हत्याकांड मुकदमे की सुनवाई में देरी पर सन् 2011 में ही आश्चर्य प्रकट करते हुए इस संबंध में स्टेटस रिपोर्ट मांगी थी। सुप्रीम कोर्ट के इस निदेश का क्या नतीजा निकला, यह तो नहीं मालूम, पर यह तथ्य है कि अब तक इस केस को अंतिम मुकाम तक नहीं पहुंचाया जा सका है।

यानी लोअर कोर्ट भी इस केस में किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका है।

  लोअर कोर्ट के फैसले के बाद उसकी अपील हाईकोर्ट व बाद में सुप्रीम कोर्ट में की जा सकती है। यानी इस केस में और कितनी देरी हो सकती है, इसकी कल्पना कठिन नहीं है।

  याद रहे कि 1975 में तत्कालीन रेलमंत्री एल.एन. मिश्र की बिहार के समस्तीपुर में खुलेआम हत्या कर दी गई थी। किसी बड़े नेता की हत्या के केस की सुनवाई में देरी का यह एक रिकाॅर्ड है। इस मामले की सुनवाई पहले समस्तीपुर कोर्ट में हो रही थी, पर 1979 में इस मुकदमे को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया था। तब से इसकी सुनवाई जारी है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 1991 में ही यह निदेश दिया था कि इस केस की सुनवाई प्रति दिन होनी चाहिए।

  मिश्र हत्याकांड की सुनवाई में देरी इस देश की आपराधिक न्याय व्यवस्था की स्थिति पर एक कड़ी टिप्पणी है। इस देरी के लिए सिर्फ न्यायालयों पर कार्य अधिकता ही जिम्मेदार नहीं है। जब एक ताकतवर केंद्रीय मंत्री के हत्यारों को भी इस देश में समय पर सजा नहीं मिल पा रही है, तो अन्य सामान्य अदालती मामलों के हश्र की कल्पना आसानी से की जा सकती है। ऐसी ढीली न्याय प्रणाली का खामियाजा पूरा समाज और देश भुगत रहा है। इससे सिर्फ अपराधी खुश होते हैं।      
  
 ललित नारायण मिश्र सत्तर के दशक के चर्चित केंद्रीय मंत्री थे। अपने जीवनकाल में वे कई कारणों से अक्सर चर्चाओं में रहते थे। पर, उससे भी अधिक चर्चा उनकी हत्या को लेकर हुई थी।

    ललित नारायण मिश्र एक दबंग और विवादास्पद नेता थे। वे तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और उनके छोटे पुत्र संजय गांधी के करीबी थे। उनके जितने दोस्त थे, उतने ही दुश्मन। बिहार के मजबूत नेता व स्वतंत्रता सेनानी ललित नारायण मिश्र की हत्या से संबंधित मुकदमे की सुनवाई के अंत की वर्षों से बिहारवासी प्रतीक्षा कर रहे हैं। 

   याद रहे कि इस केस में भी शुरू से ही राजनीति होती रही है। यह भी देरी का कारण रहा। इसे राजनीतिक हत्या बताया जाता है। इस केस की जांच का भार पहले बिहार पुलिस की सी.आई.डी. और बाद में सी.बी.आई. को सांैपा गया। बिहार की अदालत में इस केस से संबंधित आरोप पत्र दाखिल किया गया था। पर बाद में सी.बी.आई. ने सुप्रीम कोर्ट से गुजारिश की थी कि वह इस केस को बिहार से बाहर सुनवाई के लिए भेजने का आदेश दे। क्यांेकि इस केस से संबंधित कागजात नष्ट किए जाने का खतरा है और गवाह विक्रम की जान पर भी खतरा है। विक्रम इस केस का इकबालिया गवाह बन गया था। 

सी.बी.आई. ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि विक्रम को बिहार की जेल में जान से मार देने की धमकी मिल रही है। संभवतः यह पहला केस था जिसकी सुनवाई संबंधित राज्य से बाहर करने का सुप्रीम कोर्ट ने 17 दिसंबर 1979 को आदेश दिया। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की त्वरित सुनवाई का आदेश भी निचली अदालत को दिया था। इसके बावजूद कई कारणों से यह केस लंबा खिंचता चला गया।
    
22 मई 1980 को यह केस सेशन ट्रायल के लिए भेज दिया गया था। याद रहे कि इकबाली गवाह यानी एप्रूवर विक्रम ने 7 मई 1980 को दिल्ली के चीफ मेट्रोपाॅलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष यह बयान दिया था कि अक्तूबर 1978 में बिहार सरकार के तत्कालीन मुख्य सचिव ने उससे कहा था कि राज्य सरकार इस केस को वापस कराना चाहती है। विक्रम ने यह भी कहा था कि बिहार सरकार चाहती है कि उसके कहने के अनुसार ही वह कोर्ट में गवाही दे। 

  याद रहे कि जब ललित नारायण मिश्र की हत्या हुई थी तब कांग्रेस के अब्दुल गफूर बिहार के मुख्यमंत्री थे। बाद में उसी दल के डा. जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री बना दिए गए। कांग्रेस हाई कमान के इस फैसले को स्वीकार कर लेने के कारण ललित बाबू की विधवा डा. मिश्र से नाराज हो गई थीं। डा. मिश्र ललित बाबू के भाई हैं। इस नाराजगी को लेकर तरह- तरह की चर्चाएं थीं। आपातकाल की समाप्ति के बाद जनता पार्टी के कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने। सन् 1980 में इंदिरा गांधी फिर कें्रद्र में सत्ता में आ गईं। 1980 में ही डा.जगन्नाथ मिश्र एक बार फिर मुख्य मंत्री बने। 

  कर्पूरी ठाकुर जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने प्रसिद्ध न्यायविद् वी.एम.तारकुंडे से कहा था कि वे इस बात की समीक्षा करें कि सी.बी.आई.इस केस कीं जांच सही दिशा में कर रही है या नहीं। तारकुंडे ने फरवरी, 1979 में प्रस्तुत अपनी रपट में साफ -साफ कह दिया था कि सी.बी.आई. इस केस में आनंद मार्गियों को गलत ढंग से फंसा रही है। इस रपट को बिहार सरकार ने केंद्र सरकार को भेज दिया था। 

  पहले दिल्ली के पाटियाला हाउस कोर्ट में यह केस गया। फिर इसे तीस हजारी कोर्ट में भेज दिया गया। इस लंबे खिंचते मुकदमे की सुनवाई बारी- बारी से करीब दो दर्जन जज कर चुके हैं। कुछ समय पहले तक प्राप्त सूचना के अनुसार बचाव पक्ष के चार वकीलों का सुनवाई के बीच ही देहांत हो चुका है। एक अभियुक्त की भी मृत्यु हो चुकी है। सन 2011 में यह सूचना मिली थी कि बचाव पक्ष के कुल 39 गवाहों में से 31 की इस बीच मृत्यु हो चुकी है।


   इस केस के दस्तावेज 11 हजार पन्नों में हैं। सी.बी.आई. ने आनंद मार्ग से जुड़े 10 प्रमुख लोगों के खिलाफ अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया। आनंद मार्ग के जिन लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया, उनमें संतोषानंद, सुदेवानंद, गोपाल जी, रंजन द्विवेदी, दीनानंद, राम कुमार, रामाश्रय और अर्थानंद शामिल हैं। इनमें से कुछ व्यक्तियों का निधन हो चुका है। राम कुमार तथा रामाश्रय को गिरफ्तार नहीं किया जा सका। कई सौ गवाहों की गवाहियां गुजर चुकी हैं। कई साल साल पहले एल.एन.मिश्र के पुत्र विजय कुमार मिश्र की गवाही हो चुकी है। विजय मिश्र बिहार में विधायक हैं।

    यह हत्याकांड जब हुआ था तब आनंद मार्ग के संस्थापक प्रभात रंजन सरकार उर्फ आनंदमूर्ति जी पटना के केंद्रीय कारा में बंद थे। उन पर अपने ही संगठन के बागी संन्यासियों की हत्या का आरोप था। यह बात और है कि वे बाद में उन आरोपों से बरी हो गए थे। पर आनंदमूर्ति के जेल में रहने के कारण देश-विदेश में फैले उनके कट्टर अनुयायियों में बड़ा रोष था। सी.बी.आई. का आरोप है कि आनंदमार्गियों ने अपने गुरू की रिहाई के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए ललित नारायण मिश्र की हत्या कर दी। 

हालांकि बिहार पुलिस की सी.आई.डी. द्वारा प्रारंभिक जांच के सिलसिले में जो बातें सामने आई थीं, वे बातें किन्हीं अन्य प्रभावशाली लोगों की तरफ इशारा करती थीं। इस हत्याकांड के मुख्य सूत्रधार दिल्ली के एक अत्यंत प्रभावशाली व्यक्ति बताये जाते हैं जिनका सत्ता के शीर्ष से सीधा संबंध था। आनंदमार्गी इस हत्याकांड में कहीं नहीं थे।

ललित बाबू के एक परिजन ने भी इन पंक्तियों के लेखक से व्यक्तिगत बातचीत में इस बात की पुष्टि की थी कि दिल्ली के उस प्रभावशाली व्यक्ति का ही हत्या में हाथ था। 

    इस केस में पूर्व मुख्यमंत्री डा.जगन्नाथ मिश्र पहले ही गवाही दे चुके हैं। इस केस के मुतल्लिक ललित बाबू के परिजन भी यह मानते हैं कि जिन आनंदमार्गियों को आरोपित किया गया है, उनसे ललित बाबू की कोई दुश्मनी नहीं थी। आनंद मार्ग से भी उनकी कोई दुश्मनी नहीं थी। दिल्ली से गवाही देकर पटना लौटे विजय कुमार मिश्र ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया था कि मैंने अदालत को कह दिया है कि मेरे पिता की हत्या में उन लोगों का हाथ नहीं है जिनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया गया है। 

इससे पहले ललित नारायण मिश्र की विधवा कामेश्वरी देवी ने मई 1977 में तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री चरण सिंह को पत्र लिखकर उनसे मांग की थी कि वे मेरे पति की हत्या के मामले की फिर से जांच कराएं। उन्होंने यह भी लिखा था कि जिन आनंदमार्गियों को इस कांड में गिरफ्तार किया गया है, वे निर्दोष हैं। याद रहे कि कामेश्वरी देवी का सन् 2001 में निधन हो गया।
    आश्चर्यजनक ढंग से यह बात सी.बी.आई. की कहानी से मेल नहीं खाती। अब कोर्ट को फैसला करना है कि वह सी.बी.आई की बातों पर भरोसा करती है कि ललित बाबू के परिजनों की गवाही पर। इस केस में फैसला कुछ भी हो, कोई न कोई पक्ष अपील में ऊपरी अदालत में जाएगा ही। क्योंकि मामला न सिर्फ विवादास्पद है बल्कि इसमें राजनीतिक पुट भी है। उनकी हत्या के बाद से ही यह सवाल पूछा जाता रहा है कि क्या उनकी हत्या के पीछे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी ?ं 

   दरअसल इस केस के प्रारंभिक दिनों से ही इस हत्याकांड की जांच प्रक्रिया को लेकर कई तरह की आशंकाएं जाहिर की जाती रही हंै। इस केस की सुनवाई में विलंब होने का यह भी एक कारण रहा। 21 जनवरी 2001 को ही अदालत इस केस में अभियुक्तों के खिलाफ आरोप गठित कर पाई। इस बीच किसी न किसी बहाने सुनवाई टलती रही। 

केस की गति यही थी कि सुनवाई शुरू होने के बाद दस साल में यानी सन् 2001 तक अदालत सात में से सिर्फ दो आरोपितों के बयान ही दर्ज करा पाई थी। ऐसा इस देश के अनेक मुकदमों के सिलसिले में आए दिन होता रहता है। सरकारें अभियोजन पक्ष को चुस्त बनाने की दिशा में काम नहीं करती।

बाद में रोज ब रोज सुनवाई करने का तय हुआ तो केस कुछ तेजी से  आगे बढ़ने लगा। लगा था कि सन् 2009 में किसी समय इस केस का कुछ न कुछ फैसला हो जाएगा। पर ऐसा नहीं हो सका है।

    उत्तर बिहार के समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर 2 जनवरी 1975 को समस्तीपुर-मुजफ्फरपुर बड़ी लाइन का उद्घाटन समारोह था। समारोह चल ही रहा था कि सभा स्थल पर ग्रेनेड से हमला कर दिया गया। इस हमले में रेलमंत्री सहित कई लोग घायल हो गए। 
आरोप है कि इस विस्फोट के बाद से ही इस बात का षड्यंत्र शुरू हो गया कि कैसे ललित नारायण मिश्र का जल्दी से जल्दी और ठीक- ठाक इलाज नहीं होने दिया जाए। ऐसे कुछ नेता लोग भी घटनास्थल पर थे जिनका नाम इस कांड में षड्यंत्रकारी के रूप में बाद में आया था। दरअसल वे ललित बाबू के पहले करीबी ही माने जाते थे, पर वे बाद में भीतर ही भीतर दुश्मन हो चुके थे। षड्यंत्र के तार दिल्ली तक जुड़े बताए गये।

  2 जनवरी 1975 को शाम 5 बज कर 50 मिनट पर हैंड ग्रेनेड से हमला किया गया। घायल ललित बाबू को बगल के शहर दरभंगा के किसी निजी अस्पताल में इलाज के लिए पहुंचाया जा सकता था। पर उन्हें विशेष ट्रेन से समस्तीपुर से काफी दूर दानापुर लाया गया। वह विशेष ट्रेन जिससे घायल को दानापुर लाया गया, वह समस्तीपुर से रात आठ बजे ही खुल सकी। 

बताया गया कि तकनीकी कारणों से ट्रेन जल्दी नहीं खुल सकी। उस ट्रेन को जानबूझ कर बीच में भी रोका गया। उन दिनों बिहार के सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की हड़ताल थी, किंतु निजी चिकित्सकों से ललित बाबू का इलाज करवाया जा सकता था। समस्तीपुर से घंटों यात्रा करके दानापुर के मामूली रेलवे अस्पताल में लाने के पीछे कई लोगों को तब षड्यंत्र ही लगा था। जाहिर है कि इस बीच उनकी हालत बिगड़ गई और अगले दिन उनकी मृत्यु हो गई।

   इस हत्याकांड की कहानी सिर्फ इसलिए ही अजूबी नहीं है कि इसकी जांच और सुनवाई में रिकाॅर्ड समय लग रहा है, बल्कि इसलिए भी अजीब है क्योंकि इसमें काफी गुत्थियां हैं। इस केस को लेकर ललित बाबू के शुभचिंतकों व उनको जानने वाले लोगों में उलझन बरकरार है।
     इस केस के अनुसंधान के दौरान कई मोड़ आए। घटना के बाद की शुरुआती जांच के दौरान अरुण कुमार ठाकुर और अरुण मिश्र के सनसनीखेज बयान सामने आए थे। इन लोगों ने समस्तीपुर के एक न्यायिक दंडाधिकारी के समक्ष सी.आर.पी.सी. की धारा -164 के तहत यह बयान दिया था कि किसी के कहने पर उन लोगों ने ही हत्या की योजना बनाई थी और उस काम को अंजाम दिया था। बिहार पुलिस की सी.आई.डी. ने मिश्र और ठाकुर के बयान दर्ज करवाए थे।

  पर, इस बयान के आने के तत्काल बाद सी.बी.आई. के निदेशक डी.सेन ने समस्तीपुर का दौरा किया और कह दिया कि मिश्र और ठाकुर निर्दोष हैं। दरअसल ललित नारायण मिश्र की हत्या में आनंदमार्गियों के हाथ हैं। दरअसल अरुण मिश्र और अरुण ठाकुर के बयानों से यह बात भी सामने आ रही थी कि इस हत्याकांड में बिहार के एक एम.एल.सी., मुजफ्फरपुर के एक कांग्रेसी नेता और दिल्ली के एक चर्चित कांग्रेसी नेता शमिल हैं।

    जो लोग आनंदमार्गियों को निर्दोष मानते हैं, उन्हें इस मिश्र-ठाकुर की कहानी पर भरोसा है। पर पता नहीं असलियत क्या है। अदालत के सामने सारे तथ्य दोनों ंपक्ष रख रहे हैं। अदालती निर्णय से दूध का दूध और पानी का पानी होने की उम्मीद की जानी चाहिए। अदालत देखेगी कि सी.बी.आई. के आरोप पत्र में कितना दम है। वह यह भी देखेगी कि जो लोग आरोपित हैं, उनकी कहानी में कितना दम है।

      इस मुकदमे के अलावा ललितनारायण मिश्र हत्याकांड की जांच के लिए मैथ्यू आयोग भी बना था। मैथ्यू आयोग के समक्ष समस्तीपुर रेल पुलिस के अधीक्षक सरयुग राय और अतिरिक्त कलक्टर आर.वी. शुक्ल ने कहा था कि ललित नारायण मिश्र को घायलावस्था में समस्तीपुर से दानापुर ले जाने वाली गाड़ी को समस्तीपुर स्टेशन पर शंटिंग में ही एक घंटा दस मिनट लग गये। 

दरभंगा के कमिश्नर जे.सी. कुंद्रा ने 16 अप्रैल 1975 को आयोग से  कहा कि मैंने उद्घाटन के अवसर पर दो हजार लोगों को निमंत्रित करने के रेल अधिकारियों के प्रस्ताव पर कभी सहमति नहीं दी थी। पर सुरक्षा व्यवस्था पूरी थी। बम विस्फोट के कारण उत्पन्न विभ्रम के कारण भी घायल को लेकर जा रही रेलगाड़ी के छूटने में देर हुई होगी। साथ ही इसका यह भी कारण था कि स्टीम इंजन को बदल कर रेल अफसर उस ट्रेन में डीजल इंजन लगाना चाहते थे ताकि ट्रेन की गति अधिक हो।

 (22 फरवरी 2014)

बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

जन लोकपाल पर इस्तीफे से बढ़ेगी ‘आप’ की साख

    दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि जन लोकपाल बिल पास नहीं हुआ तो वे अपने पद से इस्तीफा दे देंगे। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार यदि सचमुच उन्होंने इस्तीफा दे दिया तो देश में आम आदमी पार्टी की साख बढ़ सकती है।

    दरअसल इस देश में अब तक समय-समय पर जिन-जिन नेताओं ने भ्रष्टाचार के सवाल पर लड़ते हुए पदत्याग किया या प्रताड़ना सही, उन्हें इस देश की अधिकतर जनता ने हाथों -हाथ लिया। ताजा इतिहास बताता है कि उनका जनसमर्थन समय के साथ बढ़ा ही था।

   हाल के दिनों में ‘आप’ के नेताओं के कतिपय अशालीन बयानों व व्यवहार से कुछ लोगों को निराशा हुई है, उन्हें तो केजरीवाल के इस्तीफे से संतोष ही मिलेगा। दूसरी ओर जिन्हें ‘आप’ के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से अपने निहितस्वार्थों को नुकसान पहुंचता नजर आ रहा है, उन्हें राहत मिलेगी। पर जो लोग एक कारगर जन लोकपाल कानून के पक्षधर हैं, उन्हें एक बार फिर सड़कों जाना होगा। या फिर उन्हें ‘आप’ के अभियान को एक बार फिर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मदद करनी होगी।

‘आप’ के अभियान में चुनाव व आंदोलन दोनों शामिल हैं। हालांकि अभी तो लोकसभा चुनाव सामने होगा। अधिकतर लोग उसमें प्रत्यक्ष, परोक्ष या मानसिक रुप से व्यस्त रहेंगे।


अबोध शिशु की तरह लड़खड़ा रही आप   

दरअसल दिल्ली प्रदेश की सत्ता मेें आने के बाद ‘आप’ के कुछ नेताओं ने अपने आचरण से ऐसा प्रदशर््िात किया मानो कोई शिशु अपने शैशवास्था में चलने की कोशिश करते समय लड़खड़ा रहा है। लगा कि उन्हें सरकार या राजनीति चलाने के लिए अभी कुछ और जरूरी बातें सीखनी हंै। उन्हें विधिवत प्रशिक्षण की जरूरत है।

  हालांकि अबोध शिशु की तरह लड़खड़ाने के बावजूद ‘आप’ के नेताओं की मंशा पर वैसे लोगों को कभी कोई शंका नहीं हुई जो लोग किसी भी कीमत पर इस देश के शासन में फैले भीषण भ्रष्टाचार की समाप्ति चाहते हैं। और, इस काम के लिए अब भी वे ‘आप’ की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि उम्मीद की कोई बेहतर किरण उन्हें नजर भी नहीं आ रही है। 

, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में ‘आप’ की प्रतिबद्धता का ही नतीजा है कि अरविंद मुख्यमंत्री की गद्दी की अपेक्षा आज भी जन लोकपाल व स्वराज विधेयक को अधिक महत्व दे रहे है। इस देश में अब तक कितने नेता ऐसे हुए हैं जो गद्दी मिल जाने के बावजूद अपने मुद्दों के लिए कभी भी गद्दी छोड़ने को तैयार रहते हैं ?

   एक ऐसे देश में जहां के अधिकतर नेतागण गद्दी पर बने रहने या फिर गद्दी तक पहुंचने के लिए रोज- ब-रोज भ्रष्टाचार और भ्रष्ट लोगों से घृणित समझौते कर रहे हंै, उस देश में अरविंद की ताजा भीष्म प्रतिज्ञा अनेक लोगों को अच्छी लग रही है।

  क्या वे अपनी इस प्रतिज्ञा पर कायम रह सकेंगे ? इस देश के अच्छी मंशा वाले लोग चाहते हैं कि वे अपनी प्रतिज्ञा पर कायम रहें। यदि कायम रहे तो ‘आप’ को पूरे देश में देर- सवेर जमने और अपने जनहितकारी एजेंडे के साथ अधिकाधिक लोगों को जोड़ने में सुविधा होगी। 

अरविंद केजरीवाल जन लोकपाल के साथ -साथ अपने स्वराज विधेयक पर भी उतना ही जोर दे रहे हैं। पर स्वराज बिल के स्वरूप व महत्व को अभी देश के आम लोगों के बीच समझाना बाकी है।

कुछ प्रेक्षकों के अनुसार उसमें कई अव्यावहारिक बातें भी हैं। जो उन्हें अव्यावहारिक नहीं भी मानते, वे भी स्वराज विधेयक को अभी विराम देने की सलाह देते हैं।

  पर, जन लोकपाल विधेयक के प्रावधानों के बारे में तो अधिकतर लोगों की मोटा -मोटी समझदारी बन चुकी है। वे भी उन्हें जरुरी मानते हैं। लोगों के अनुसार जन लोकपाल विधेयक का मतलब है एक ऐसा सख्त व स्वतंत्र लोकपाल कानून जिसकी पकड़ में आ जाने के बाद बड़े से बड़ा भ्रष्टाचारी कानून की गिरफ्त से बच नहीं सकेगा।

    हाल में संसद ने जो लोकपाल विधेयक पास किया है, उसे कतई कारगर नहीं माना जा रहा है। यदि कारगर होता तो मुख्य धारा की राजनीति उसके लिए राजी ही नहीं होती।

  यदि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल के पास जन लोकपाल जैसा कोई कानून नहीं होगा तो वे मुख्यमंत्री के रुप में अपनी कारगर भूमिका ही नहीं निभा पाएंगे। यदि नहीं निभा पाएंगे तो धीरे-धीरे उनकी पार्टी की 
लोकप्रियता भी समाप्त होती चली जाएगी। नतीजतन राष्ट्रीय पैेमाने पर फैलने का ‘आप’ का सपना भी सपना ही बना रह जाएगा।

  दिल्ली की गददी के अनुभव के बाद ‘आप’ को भी लग रहा है कि राज्यों की सरकारें ठीक से नहीं चलाई जा सकती हैं, यदि केंद्र की सरकार से समय -समय पर मदद नहीं मिले। केंद्र में तभी अच्छी सरकार बनाई जा सकती है जब संसद में अधिक से अधिक ईमानदार लोग चुन कर जाएं।

 यह भी तभी हो सकेगा जब ‘आप’ जैसी पार्टी का लोकसभा चुनाव में भी वैसा ही कारगर हस्तक्षेप हो जैसा दिल्ली विधानसभा में हुआ है। आप का अभियान जारी रहा तो 2014 के चुनाव में यदि नहीं तो 2019 तक लोकसभा की सूरत बदल सकती है।

  आज केजरीवाल के जन लोकपाल विधेयक का किसी न किसी बहाने कांग्रेस व भाजपा जितना अधिक विरोध कर रही हैं, वैसी स्थिति में उसके दिल्ली विधानसभा से पास होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है।
कोई भला क्यों अपने ही प्रयास से रस्सी खरीद कर उसे अपने ही गले में फांसी के रूप में पहन लेगा ? 


बहुगुणा सरकार ने कमजोर कर दिया जनलोकपाल कानून

पूरा देश देख रहा है कि ‘आप’ के जन लोक पाल विधेयक का प्रारुप उत्तराखंड के उस लोकपाल विधेयक से ठीक मिलता जुलता है जिसे उत्तराखंड में भाजपा की बी.सी. खंडुरी सरकार ने ही टीम अन्ना की सलाह पर पास कराया था। उस लोकपाल विधेयक को नवंबर 2011 में उत्तराखंड विधानसभा से पास कराया गया था।

  उस विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति भी मिल गई थी। यह और बात है कि बाद की बहुगुणा सरकार ने उसे बदल दिया।

राजनीति का दोहरापन देखिए। भाजपा ने तब खंडुरी के उस विधेयक का तो विरोध नहीं किया, बल्कि बहुगुणा सरकार के लोकायुक्त कानून बदलने के निर्णय का जरूर विरोध किया था। पर वही भाजपा केजरीवाल के जन लोकपाल विधेयक का कड़ा विरोध कर रही है। अरुण जेटली तो कहते हैं कि ‘आप’ शहरी माओवादी है।’


  कांग्रेस की ओर से ऐसे कड़े विधेयक के लिए समर्थन की तो उम्मीद ही नहीं की जा सकती है। हालांकि यह बात भी याद रखने की है कि केजरीवाल के 18 सूत्री कार्यक्रम में जन लोकपाल विधेयक भी है जिसका विरोध कांग्रेस ने गत साल उस समय तो नहीं किया था जब कांग्रेस ने बिना शर्त और बिना मांगे आप सरकार का बाहर से समर्थन किया था। ऐसे दलों और नेताओं के बीच इस देश में ‘आप’ के बढ़ने की काफी गुंजाइश बनी हुई है।

  ऐसे में मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ कर एक बार फिर जनता के बीच जाने के अलावा ‘आप’ के लिए कोई रास्ता बचा भी नहीं है। पर यह सवाल उठाया जा रहा है कि क्या यह अपनी जिम्मेवारियों से भागना नहीं होगा ?

 हालांकि यह सवाल ही गलत है।‘आप’ सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो यही रही है कि वह जन लोकपाल विधेयक पास कराए। यदि नहीं करा सकती और फिर भी वह गद्दी पर बनी रहती है तो शीला दीक्षित सरकार व केजरीवाल सरकार में फर्क ही क्या रहेगा ?

  इसी विधेयक के लिए तीन बार अन्ना हजारे और दो बार केजरीवाल ने अनशन किया था। बुजुर्ग अन्ना हजारे तो केंद्र सरकार के ढीले ढाले लोकपाल विधेयक पर मान गये। यदि जवान केजरीवाल नहीं मान रहे हैं तो क्या उनकी जिद के पीछे उनका कोई निजी स्वार्थ है ? ऐसे आरोप को कोई ईमानदार व्यक्ति तो सच  मानेगा ही नहीं।

(इस लेख का संशोधित अंश जनसत्ता के 11 फरवरी 2014 के अंक में प्रकाशित)  
   

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

बिहार के मतदाताओं को नीतीश सरकार का मास्टर स्ट्रोक

  मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन दिनों अपनी हर जनसभा में एक बात जरूर कह रहे हैं। वे मतदाताओं से अपील कर रहे हैं कि वे लोकसभा चुनाव में हमें ताकत दें वर्ना बिहार सरकार बीच में ही गिर जाएगी। याद रहे कि नीतीश मंत्रिमंडल का मौजूदा कार्यकाल 2015 के नवंबर में समाप्त होने वाला है।

   मुख्यमंत्री इन दिनों बिहार में संकल्प सभाएं कर रहे हैंं। उनकी सभाओं में अच्छी -खासी भीड़ जुट रही है। पर वे उस भीड़ को सावधान भी कर रहे हैं। वे प्रकारांतर से 15 साल के ‘जंगल राज’ की याद दिला रहे हैं। उस कथित जंगल राज से ऊब कर ही बिहार की जनता ने 2005 में राजग को सत्ता सौंपी थी। 

सन् 2005-10 के बीच बेहतर काम करने के कारण नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले गठबंधन को जनता ने 2010 के विधानसभा चुनाव में तीन -चैथाई से भी अधिक बहुमत दिया। पर इस बीच नरेंद्र मोदी के उदय और भाजपा से जदयू के अलग हो जाने के बाद बिहार की राजनीतिक स्थिति में बदलाव आ गया है।

  इस बीच आयोजित ओपिनियन पोल के रिजल्ट बता रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में बिहार में भी भाजपा की बढ़त रहेगी। पर उसी रिजल्ट के अनुसार अब भी राज्य के 55 प्रतिशत लोग यह कहते हैं कि अगले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के दल को ही वे वोट देंगे।

   पर जदयू को आशंका है कि यदि अब से कुछ ही सप्ताह बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में बिहार में भाजपा को अन्य दलों से अधिक सीटें मिल गईं तो जदयू के कई विधायक जदयू छोड़ सकते हैं। इन दिनों नीतीश कुमार की अल्पमत सरकार कुछ निर्दलीय और कांग्रेस के चार विधायकों के बाहरी समर्थन के बल पर टिकी हुई है।

  जदयू सूत्रों के अनुसार भाजपा को चुनावी बढ़त मिलते ही जदयू के कुछ विधायकों को यह लगेगा कि वे जदयू के साथ रह कर अगला विधानसभा चुनाव नहीं जीत सकते। इसलिए वे दल बदल कर सकते हैं चाहे उनकी मौजूदा सदस्यता ही क्यों न चली जाए। वे इस बात का इंतजार नहीं करेंगे कि ओपियन पोल के अनुसार अगले बिहार विधानसभा चुनाव में 55 प्रतिशत लोग नीतीश कुमार के दल को ही वोट देने वाले हैं।

  राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार जब एक बार नीतीश कुमार की सरकार गिर जाएगी तो अगले विधानसभा चुनाव से पहले तक राज्य का राजनीतिक दृश्य व समीकरण कैसा बनेगा, यह कहा नहीं जा सकता है। लालू प्रसाद का राजद भी बिहार की राजनीति में एक बड़ा फैक्टर है।

  उधर बिहार भाजपा के नेता सुशील कुमार मोदी सार्वजनिक तौर पर यह कह चुके हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार से बेहतर लालू प्रसाद साबित हो चुके हैं। प्रेक्षकों के अनुसार लोकसभा चुनाव में भले बिहार में भाजपा को बढ़त मिल जाए, पर बिहार विधानसभा चुनाव में उसी अनुपात में भाजपा को चुनावी जीत नहीं मिलेगी।

 कुछ प्रेक्षक यह भी संभावना व्यक्त कर रहे हैं कि फिर वैसी राजनीतिक स्थिति में भाजपा का राजद से किसी न किसी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष चुनावी तालमेल भी हो सकता है। लालू प्रसाद और भाजपा समान रूप से इन दिनों नीतीश कुमार से खार खाए हुए हंै। यानी सख्त नाराज है। उन्हें सत्ता से हटाना चाहते हैं।

   राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार फिर यदि अगले चुनाव के बाद केंद्र में भाजपानीत सरकार बन गई तो लालू प्रसाद उन्हीं कारणों से केंद्र की उस सरकार के समर्थन में भी उतर सकते हैं जिन कारणों से इन दिनों वे मनमोहन सरकार का अंध  समर्थन कर रहे हैं। फिर बिहार विधानसभा चुनाव में कैसा राजनीतिक दृश्य बनेगा ?

इन सब संभावित राजनीतिक हलचलों के बीच नीतीश कुमार की आशंका व चेतावनी को देखा जा सकता है। जदयू का दावा है कि नीतीश कुमार के अलावा कोई भी दूसरा मुख्यमंत्री बिहार में न तो शांति -व्यवस्था कायम रखकर ‘जंगल राज’ की आशंका को निर्मूल कर सकता है और न ही विकास की मौजूदा रफ्तार को कायम रख सकता है। फिर तो बिहार उन्हीं दिनों में वापस जा सकता है।

    पता नहीं, जदयू की यह आशंका कितनी सही है। यह भी नहीं पता कि नीतीश कुमार की चेतावनी का कितना असर मतदाताओं पर पड़ेगा। पर जदयू का दावा है कि चेतावनी का असर पड़ रहा है। नीतीश कुमार की इस चैंकाने वाली आशंका के बीच बिहार के उन सामाजिक समीकरणों पर एक बार फिर गौर कर लेना मौजूं होगा जो समीकरण विभिन्न दलों को ताकत देते हैं।

   लालू प्रसाद के राजद के साथ यादव मतदाताओं की मजबूत गोलबंदी देखी जा रही है। यह गोलबंदी इसलिए भी है क्योंकि उन्हें लगता है कि कुछ करोड़ रुपये के घोटाले के आरोप में तो लालू प्रसाद को बार -बार जेल जाना पड़ता है, उन्हें निचली अदालत से सजा भी हो गई। पर दूसरी ओर अरबों रुपये के घोटाले करके इस देश के बड़े -बड़े नेता लोग चैन की वंशी बजा रहे हैं।

  यदि लालू प्रसाद का कांग्रेस व लोजपा से चुनावी तालमेल हो गया तो अल्पसंख्यक मतों का एक हिस्सा उन्हें मिल जाएगा। भाजपा के साथ सवर्णों व वैश्य समुदाय की गोलबंदी है। इसके अलावा हिंदुत्व से प्रभावित कुछ वोट हर जाति से मोदी को मिलेंगे।

  नीतीश कुमार के साथ अति पिछड़ा, महा दलित, कुर्मी, महिलाओं का एक हिस्सा तथा सुशासन व विकास के पक्षधर कुछ लोग हैं। ताजा ओपिनियन पोल के नतीजे के अनुसार लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखा जाए तो बिहार के 39 प्रतिशत लोग नरेंद्र मोदी, 20 प्रतिशत लोग नीतीश कुमार और 15 प्रतिशत लोग लालू प्रसाद को पसंद करते हैं।

   ओपिनियन पोल के नतीजे पूरी तरह तो सही नहीं होते, पर वे इस बात की ओर इशारा जरूर कर देते हैं कि हवा का रुख किधर है। कथित जंगल राज के विरोधी व विकास के पक्षधर लोगों ने सरकार गिरने की नीतीश कुमार की चेतावनी की गंभीरता को समझा तो बिहार के राजनीतिक समीकरण नरेंद्र मोदी के थोड़-बहुत खिलाफ भी जा सकते हैं।

पर, क्या ऐसा हो पाएगा? इसका जवाब आने वाले दिनों में ही मिल पाएगा।


 (इस लेख का संपादित अंश 8 फरवरी 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)


    

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

‘आप’ की कमीज ज्यादा सफेद

आम आदमी पार्टी की सरकार सफल हो पाएगी या नहीं? चूंकि इसे कांग्रेस के समर्थन से चलना है, इसलिए इसकी सफलता व स्थायित्व को लेकर तरह -तरह के अपशकुन हो रहे हैं।

   याद रहे कि ऐसे मामलों में कांग्रेस का रिकाॅर्ड बहुत खराब है। वह अधिक दिनों तक किसी सरकार का समर्थन नहीं किया करती।

चरण सिंह, चंद्रशेखर, एच.डी. देवगौड़ा और आइ.के. गुजराल की सरकारों से कांग्रेस ने अकारण समर्थन वापस ले लिया था। दूसरी बात यह भी है कि जितने बड़े- बड़े वायदे ‘आप’ ने दिल्ली की जनता से किये हैं, उन्हें पूरा करने में भी काफी दिक्कतें आने की आशंका जाहिर की जा रही है। ऐसी आशंका खुद ‘आप’ नेतागण भी जाहिर कर रहे हैं। उन्हें पूरा करने के क्रम में ‘आप’ का कांग्रेस से टकराव हो सकता है।

   इसलिए इसकी सफलता को लेकर तरह -तरह के विचार सामने आ रहे हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि ‘आप’ की सरकार सफल नहीं होगी। खुद प्रशांत भूषण ने भी ‘आप’ सरकार के स्थायित्व पर सवाल खड़ा किया है। लेकिन कुछ अन्य लोग कह रहे हैं कि ‘आप’ सरकार भले अधिक दिनों तक नहीं चले, पर वह सफल जरूर होगी, क्योंकि ‘आप’ के नेताओं की ईमानदारी व कर्मठता उनकी सफलता की सबसे बड़ी गारंटी है।
 
खुद अरविंद केजरीवाल सहित आम आदमी पार्टी के कुछ नेता आम तौर पर यह कहते हुए सुने जा रहे हैं कि ‘लोगांंे की उम्मीदें बहुत ज्यादा हैं और हमें कभी-कभी डर लगता है कि सत्ता में जाने के बाद हम सफल होंगे या नहीं।’

   अब तक के संकेतों के अनुसार अरविंद केजरीवाल की आशंका निराधार लगती है। दरअसल इस देश का राजनीतिक इतिहास बताता है कि आम जनता उस राजनीतिक जमात का तहे दिल से स्वागत करने को तैयार बैठी रहती है जो सिर्फ यह साबित कर दे कि उसने ईमानदारी से जनता की सेवा करने की कोशिश की। उस कोशिश में अंततः उसे कितनी सफलता मिलती है, जनता के लिए वह अधिक महत्वपूर्ण बात नहीं है। हालांकि बाधाओं के बावजूद ईमानदार कोशिश काफी हद तक सफल होती ही रही है। यदि नेतागण सत्ता में आने के बाद खुद को ईमानदार बनाये रखें तो उनकी थोड़ी बहुत प्रशासनिक विफलताओं को भी आम लोग नजरअंदाज कर देते हैं।

  ‘आप’ के नेताओं से तो सत्ता में आने के बावजूद ऐसी व्यक्तिगत ईमानदारी बरतने की उम्मीद की ही जा सकती है। अरविंद केजरीवाल ने जेड प्लस सुरक्षा व बंगला ठुकरा कर इसकी शुरुआत भी कर दी है।

   अच्छी मंशा वाली सरकार के कुछ उदाहरण देश में समय -समय पर सामने आये हैं। लोगों ने ऐसी सरकारों की सराहना भी की है। अब भी कुछ लोग करते हैं।

बंगाल की 1977 में बनी वाम मोर्चा की सरकार और बिहार में 1967 में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में बनी ऐसी ही गैरकांग्रेसी सरकार के अच्छे कामों की आज भी लोगबाग चर्चा करते हैं।

 इस तरह के कुछ अन्य उदाहरण भी इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों ने देखे हंै। उन दलों को सिर्फ अपनी अच्छी मंशा साबित करके जनता की वाहवाही लूटने का अवसर मिल चुका है। उन दलों में से अधिकतर की अपेक्षा आम आदमी पार्टी का अब तक का रिकार्ड बेहतर है। आगे सत्ता में आकर ‘आप’ को जनहित में और कुछ ठोस करने का अवसर मिल सकता है। दिल्ली में कुछ अच्छा हुआ तो पूरे देश में इस दल की सुगंध फैलेगी।

   इसलिए अरविंद केजरीवाल की इस आशंका के विपरीत आम आदमी पार्टी के लिए जितना अधिक सफल होने की आज गुंजाइश बन गई है, इस देश में किसी अन्य दल के लिए इससे पहले कभी नहीं थी। क्योंकि राजनीति इतनी अधिक पहले गिरी हुई भी नहीं थी। काले कपड़ों के बीच सफेद कपड़ा और भी अधिक सफेद लगता है। साथ ही ‘आप’ जैसी एक अपेक्षाकृत साफ -सुथरी पार्टी बहुत वर्षों के बाद लोगों के सामने नजर आई है।

पर आम आदमी पार्टी की सफलता की कुछ शर्तें भी हैं। कुछ शर्तें तो खुद आम आदमी पार्टी पहले से ही पूरी करती है।

‘आप’ ने अपने गठन के साथ ही अपनी शुरुआत जिस पारदर्शिता से की, उससे उसकी साख जम गई है। काफी हद तक दिल्ली में और कुछ- कुछ देश के बाकी हिस्सों में भी।

  राजनीति के इस कलियुग में ‘आप’ जैसी ईमानदार व बेहतर मंशा वाली पार्टी के लिए सफल होना आज जितना आसान है, उतना पहले कभी नहीं था।

   क्या यह झूठ है कि आज के लोकतंत्र के अधिकतर ‘राजा’ ऐयाशीपूर्ण जीवन बिता रहे हैं और इस गरीब देश की जनता से वसूले गये टैक्स के पैसे लूट कर खुद को अमीर बना रहे हैं ? साथ ही वे अपने परिजन को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी भी बना रहे हैं। पहली नजर में आम आदमी पार्टी उन दलों से साफ अलग दिखाई पड़ती है।

  आम आदमी पार्टी के अब तक के चाल, चरित्र व चेहरे को देख कर लगता है कि वह दिल्ली की सत्ता में आने पर थोड़े ही दिनों में अपने बेहतर कामों के जरिए वैसे दलों को वह और भी अधिक बेनकाब कर देगी। लोगों को मालूम हो जाएगा कि इसी व्यवस्था में भी सत्ता में आकर जनता की बेहतर सेवा की जा सकती है। याद रहे कि यदि कोई मुख्यमंत्री और उसके मंत्रिमंडल के सदस्य ईमानदारी से सरकार चलाना शुरु कर दें तो उसका संदेश अफसरों को भी मिल जाता है। अफसरों में भी कम ही लोग बेईमानी करते रहने की जिदद करना चाहेंगे, यदि वे जान जाएं कि राजनीतिक कार्यपालिका का उद्देश्य रिश्वतखोरी और कमीशनखोरी नहीं है।

  हालांकि इसके विपरीत दिल्ली कांग्रेस के एक प्रमुख नेता ने हाल में कहा कि ‘आप’ की पोल खोलने के लिए ही उसे सरकार बनाने के लिए कांग्रेस समर्थन दे रही है।

   इस देश के अन्य अनेक दलों की तरह कांग्रेस के उस नेता की भी सोच यही है कि भ्रष्टाचार व समझौते के बिना सत्ता की राजनीति आज चल ही नहीं सकती। उनका मानना है कि ‘आप’ को भी सत्ता में आने के बाद वही सब करना पड़ेगा जो सब गलत काम और समझौते अन्य दल कर रहे हैं।

 कांग्रेसी नेता के अनुसार ‘आप’ की सरकार को भी देर- सवेर उन्हीं धंधांे में लग जाना पड़ेगा। इससे उसकी ईमानदारी व पारदर्शिता की पोल खुल जाएगी और कांग्रेस की तरह ही वह एक दूसरी पार्टी बन जाएगी।

  पर  ‘आप’ के अब तक के काम ऐसे संकेत नहीं दे रहे हैं।

‘आप’ ने कहा है कि यदि वे सरकार में आए तो वे बड़े सरकारी बंगलों में नहीं रहेंगे। साथ ही, सुरक्षा घेरों में नहीं रहेंगे। वे कई और भी बेहतर कामों के लिए हौसला बांध रहे हैं।ऐसे कदमों का आम जनता पर बड़ा सकरात्मक असर पड़ता हे।इससे किसी दल को लोकप्रिय होने में काफी मदद मिलती है।

पर, ‘आप’ को इसके साथ यह भी कहना चाहिए कि वे विधायकों व मंत्रियों के वेतन कम करेंगे। इसी देश में आखिर ऐसा क्यों है कि एक राज्य के मुख्यमंत्री का काम आठ-नौ हजार रुपये मासिक में चल जाता है तो दूसरे राज्य के मुख्यमंत्री के लिए एक लाख रुपये भी कम पड़ते हैं ? विभिन्न राज्यों के विधायकों की तनख्वाह और सुविधाओं में भी भारी अंतर है जबकि देश के विभिन्न हिस्सों की महंगाई में कोई खास अंतर नहीं है।

  यदि सत्ता में आने के बाद ‘आप’ की सरकार  सचमुच दिल्ली में बिजली-पानी की व्यवस्था ठीक कर पाई तो वह दिल्लीवासियों के दिल तत्काल जीत लेगी। उसने कहा है कि वह साढ़े सात सौ लीटर पानी मुफ्त देगी। यदि इतना नहीं दे सके, साढ़े तीन सौ लीटर भी दे दे तो आम आदमी पार्टी को और भी लोकप्रिय होने से भला कौन रोक सकता है ?

पूरे देश पर भी उस कदम का ‘आप’ के पक्ष में अनुकूल असर पड़ेगा ।

 किसी राज्य में यदि मंत्रिमंडल खासकर मुख्यमंत्री की मंशा साफ, पारदर्शी व ईमानदार हो तो अधिकतर ईमानदार सरकारी अफसर भी उसे सहयोग देते हैं। अच्छी मंशा के साथ बिहार में नीतीश कुमार सन 2005 में सत्ता मंे आये थे।उन्होंने एक ऐसी ब्यूरोक्रेसी से बेहतर काम करा कर दिखा दिया जिसकी उसके पहले के पंद्रह साल तक काम करने की आदत ही छूट गई थी। क्योंकि लालू -राबड़ी सरकार की घोषित नीति थी कि विकास से नहीं बल्कि जातीय समीकरण से वोट मिलते हैं।

  ऐसा करके नीतीश कुमार ने राज्य की जनता को खुश कर दिया। नतीजतन उन्होंनंे दो बड़े चुनाव जीत लिये। एक चुनाव 2009 में लोकसभा के हुए जिसमें राज्य में 40 में से 32 सीटें राजग को मिली। दूसरा चुनाव 2010 में बिहार विधान सभा का हुआ जिसमें 243 में से 206 सीटें राजग को मिली। इस भारी समर्थन के बल पर नीतीश कुमार की सरकार ने कई अच्छे काम किये और देश-दुनिया में नाम कमाया।

   भाजपा से संबंध टूटने के बाद नीतीश कुमार की सरकार व राजनीति अब जरूर थोड़ी कमजोर हुई है, पर खुद नीतीश कुमार की मंशा पर अब भी कोई शक नहीं कर रहा है। हालांकि उनके मंत्रिमंडल व उनकी ब्यूरोक्रेसी के बारे में भी ऐसी ही बातें नहीं कही जा सकती है।

 यदि नीतीश कुमार के दल जदयू के पास ईमानदार राजनीतिक नेताओं व कार्यकर्ताओं की फौज होती तो नीतीश की सरकार  और भी बेहतर काम कर सकती थी। अन्य दलों की तरह उस दल में भी ईमानदार कार्यकर्ताआंे की भारी कमी है।

पर ‘आप’ इस मामले में बेहतर स्थिति में है। उसके पास ईमानदार व उत्साही नेताओं व कार्यकर्ताओं की फौज है जो ‘आप’ सरकार को बाहर से मदद कर सकती है। उसके अच्छे नतीजे सामने आ सकते हैं।

  याद रहे कि बिहार में सरकारी भ्रष्टाचार से दुःखी नीतीश कुमार ने अपने दल के कार्यकर्ताओं से बार -बार अपील की थी कि वे राज्य सरकार के रिश्वतखोर अफसरों को निगरानी ब्यूरो से गिरफ्तार करवाएंगे तो उन्हें इनाम दिये जाएंगे। पर कोई कार्यकर्ता इस काम के लिए सामने भी  आया, ऐसी खबर नहीं मिली। ‘आप’ इस मामले मंें सौभाग्यशाली संगठन है।

इसलिए सरकार बना कर वह पार्टी व सरकार विफल होगी, ऐसी आशंका काफी कम है। जो जिस पार्टी की सरकार उसूलों के लिए सत्ता से किसी भी क्षण अलग होने के लिए तैयार रहती है,वह पार्टी कभी अलोकप्रिय नहीं हो सकती। संकेत बता रहे हैं कि ‘आप’ के नेता सत्ता में आने के बाद किसी भी क्षण जनहित में गददी छोड़ने के लिए तैयार मिलेंगे। इसलिए उन्हें इस बात को लेकर डरने की कोई जरुरत ही नहीं है कि वे सफल होंगे या नहीं।

(इस लेख का संपादित अंश हिंदी पाक्षिक पत्रिका ‘द पब्लिक एजेंडा’ के 31 जनवरी 2014 के अंक में प्रकाशित)




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