शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

देश के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल छोड़ दिया था त्यागी जी ने

चुनावी टिकट के लिए अपनी पार्टी कौन कहे, आज  कुछ नेता तो अपने रिश्तेदारों तक से भी बगावत पर उतारू हैं। राजनीति में गिरावट की इंतिहा वाले इस दौर में पचास साल पहले की एक राजनीतिक घटना को याद कर लेना मौजूं होगा। तब एक नेता ने देशहित में केंद्रीय कैबिनेट तक से इस्तीफा दे दिया था।

ऐसे समय पर उस घटना को याद करना और भी जरुरी है क्योंकि  इन दिनों अपना देश 1965 के युद्ध की स्वर्ण जयंती मना रहा है।

नई पीढ़ी के लिए यह जानना जरुरी है कि हमारे नेताओं ने  50 साल में राजनीति को कहां से कहां पहुंचा दिया है। आज खुलेआम कई बड़े नेताओें पर आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने पैसे लेकर टिकट बेच दिए।

1965 में  भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ था। 1962 में चीन के हाथों पराजय के तीन ही साल बाद 1965 के युद्ध में भारत को भारी कामयाबी मिली थी। पर, ताशकंद समझौते से वह कामयाबी कायम नहीं रह सकी।

तत्कालीन केंद्रीय पुनर्वास मंत्री महावीर त्यागी इस बात के सख्त खिलाफ थे कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ताशकंंद समझौते पर मुहर लगाए।

उस समझौते मंे  पाकिस्तान की जीती हुई जमीन वापस कर देनी थी। मंत्रिमंडल को  अमादा देख त्यागी जी ने मंत्रिमंडल से ही इस्तीफा दे दिया। उन्होंने  कहा था कि ‘मैं ताशकंद समझौते के ध्येय  से सहमत हूं। पर समझौते में कुछ बातें ऐसी हैं जो हमारी सरकार और हमारी पार्टी की ओर से सितंबर, 1965 के बाद की गई घोषणाओं के  विपरीत हंै। 

5 अगस्त, 1965 को जीती हुई हाजी पीर की चैकियों को छोड़ना भयंकर भूल होगी, विशेषकर जबतक पाकिस्तान अपने छापामारों, गुप्तचरों और बिना वर्दी के हथियारबंद सैनिकों को वापस बुलाने और भविष्य में ऐसे आक्रमण न करने को राजी नहीं होता है।

 त्यागी जी ने यह भी कहा था कि हाजी पीर सैनिक दृष्टि से इतना महत्व का स्थान है कि जिस सेना का इस मोर्चे पर कब्जा होगा, उसे किसी भी हालत में हटाना संभव नहीं होगा। बिना इस मोर्चे को अपने हाथ में लिए हमें कश्मीर के उस हिस्से को अपने कब्जे में लेना असंभव है जिसको पाकिस्तान ने हड़प रखा है।

  याद रहे कि युद्ध के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने कई बार यह घोषणा की थी कि कश्मीर की वह भूमि, जिसका पाकिस्तान ने अपहरण कर लिया था और जिसे हमने इस युद्ध में पाकिस्तान से छीन लिया है, उसे हम किसी भी शत्र्त पर नहीं लौटाएंगे।

  यह और बात है कि किसी खास परिस्थिति में उन्हें ताशकंद समझौता करना पड़ा। पर उसके लिए महावीर त्यागी जिम्मेदार नहीं थे। वह मंत्रिमंडल में आराम से बने रह सकते थे। पर उन्होंने जब  महसूस किया कि हाजी पीर लौटाना देश की सुरक्षा के लिए उचित नहीं है तो उन्होंने मंत्री पद को ठोकर मार दी।

    आज बिहार  चुनावी  टिकट के लिए बेशर्मी का नंगा नाच कर रहे अनेक नेतागण महावीर त्यागी के त्याग की कहानी पढ़कर थोड़ा भी  शर्म करेंगे ? पता नहीं ! 

(23 सितंबर, 2015 )
   

महागठबंधन के दलों में सौहार्द से अच्छे संकेत



 
       
चुनाव रिजल्ट के बाद लालू प्रसाद, नीतीश कुमार के गले मिले।उन्होंने मुख्य मंत्री की ललाट पर  टीका लगाया और सौहार्दपूर्ण माहौल में यह घोषणा की कि मैं राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय होऊंगा और नीतीश जी सरकार चलाएंगे।
  मीडिया की उपस्थिति में राजद सुप्रीमो ने कहा कि महा गठबंधन विचारों और कार्यक्रम पर आधारित है।
 यदि हममें कोई मतभेद हुआ तो जनता हमें माफ नहीं करेगी ।
  सरकार चलाने में जदयू और राजद के बीच आने वाली
अड़चनों की आशंकाओं के बीच लालू प्रसाद की उपर्युक्त बातें आश्वस्त करती हैं।
लोगबाग यही उम्मीद कर रहे हैं कि बड़े जनादेश के बाद  नीतीश सरकार पहले से भी अधिक उत्साह से काम करेगी ताकि राज्य की गरीबी कम हो ।सन् 2005 में सत्ता में आने के बाद नीतीश सरकार ने जो समावेशी विकास और सुशासन का रास्ता चुना था,उस पर उनकी सरकार और भी तेज गति से दौड़े।
   2013 में  नीतीश कुमार का भाजपा से अलगाव हुआ और राजद से दोस्ती हुई।लालू और नीतीश की भिन्न राजनीतिक और प्रशासनिक  शैलियों को लेकर अनेक लोगों के दिलो दिमाग में सरकार की स्थिरता को लेकर आशंकाएं  निराधार  भी नहीं हैं।पर यह अच्छा हुआ कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने साझा प्रेस कांफंे्रस में इस आशंका को निराधार बताया।
  इससे उन लोगों को फिलहाल राहत मिलेगी जिसने नीतीश सरकार से सुशासन और विकास की दिशा में नये रिकाॅर्ड कायम करने की उम्मीद लगाई है।
  मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने भी ठीक ही कहा कि बिहार को आगे बढ़ाने के लिए
लोगों के मन जो आशाएं हैं,उनसे मैं अवगत हूं।
 हम उनकी उम्मीद के अनुरुप काम करेंगे।याद रहे कि महा गठबंधन ने साझा कार्यक्रम भी तय किया है।साथ ही मुख्य मंत्री के सात निश्चय भी हैं।
  कुल मिलाकर चुनाव के तुरंत बाद का  माहौल तो सकारात्मक है।रिजल्ट के बाद
भाजपा के नेताओं की  महागठबंधन के नेताओं के साथ फोन पर बातचीत भी हुई है।
अब केंद्र सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह बिहार के पिछड़ापन को देखते हुए बिना राजनीतिक भेदभाव के इस राज्य की विशेष मदद करे।
 पर कतिपय राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार महागठबंधन में शामिल दलों के बीच
और सरकार में उसी तरह का सौहार्द लंबे समय तक बनाये रखना एक बड़ी चुनौती होगी जिस तरह की भावना आज शीर्ष नेताओं के बीच  मीडिया के सामने देखी गई।इस मामले में राजद,जदयू और कांग्रेस के शीर्ष नेताओं की जिम्मेदारी बढ़ गयी है।
  यदि बिहार को बढ़ते रहना है तो यह जिम्मेदारी तो उठानी ही पड़ेगी।
@ 8 नवंबर 2015 @  

रविवार, 22 नवंबर 2015

लोहियावाद की भी जीत है नीतीश की राजनीतिक सफलता

नीतीश कुमार लोहियावाद के अबतक के सबसे बड़े प्रतीक पुरुष के रुप में उभरे हैं।
इससे पहले कर्पूरी ठाकुर प्रतीक पुरुष थे।पर उनके निहितस्वार्थी मंत्रिमंडलीय सहयोगियों ने उन्हें जनहित के कई महत्वपूर्ण काम  करने ही नहीं दिया।

  इधर नीतीश कुमार  किसी दबाव में नहीं आये।उम्मीद  है कि आगे भी  दबाव में नहीं आएंगे।

 डा.राम मनोहर लोहिया का नाम सबसे अधिक जपने वाली मौजूदा  समाजवादी पार्टी के किसी नेता में लोहिया और लोहियावाद   की कोई झलक तक  दिखाई नहीं पडत़ी।
 पर नीतीश ने नयी राजनीतिक परिस्थितियों में लोहिया की मूल धारणाओं के अनुकूल भरसक काम किया है।समाज पर उसका सकारात्मक असर पड़ा।  इस तरह  लोहिया को सिरफिरा कहने वालों का उन्होंने मुंह बंद किया।

  दशकों पहले इस देश के एक प्रधान मंत्री ने चीन  सरकार के प्रमुख को लिखा  था कि ‘हमारे देश में सिरफिरों की एक पार्टी है।’वे  लोहिया की पार्टी का जिक्र कर रहे थे।
 नीतीश  सरकार ने महिलाओं के लिए जितना काम किया,वह एक रिकाॅर्ड है।लोहिया हर जाति की महिलाओं  को पिछड़ा मानते थे।

नीतीश  ने वैसे तो समाज के सभी तबकों के लिए काम किये,पर पिछड़ों और दलितों में जो अधिक पिछड़े हैं ,उनके लिए विशेष तौर से  काम किये।याद रहे कि लोहिया समाज के  ‘अंतिम व्यक्ति’ का भला चाहते थे।

 उनके राजनीतिक विरोधियों ने लोहिया को सवर्ण विरोधी बताया था।इसके विपरीत  यह तथ्य है   कि लोहिया के लगभग  सारे निजी सचिव ब्राह्मण थे।

 नीतीश के अधिकतर  करीबी मित्र सवर्ण ही हैं। लोहिया का न तो कोई बैंक खाता  था और न ही निजी  कार । इधर ऐसी कोई खबर नहीं है कि नीतीश कुमार ने  अवैध तरीके से कोई निजी संपत्ति  बनाई है।इसके अलावा भी कुछ बातें हैं।



पुत्र भी हो तो निशांत जैसा

   मुख्य मंत्री के पुत्र निशांत कुमार ने कहा है कि  राजनीति में मेरी कोई रूचि नहीं है।मैं जहां हूं,संतुष्ट हूं। उधर नीतीश कुमार भी यह नहीं चाहते कि उनके सहारे उनका कोई परिजन कोई पद पाये।निशांत  भी अपने पिता के अनुकूल ही काम कर रहे हैं।पुत्र हो तो ऐसा।

   संभव है कि निशंात को राजनीति मेें सचमुच कोई रूचि नहीं हो।यह भी संभव है कि अपने पिता की इच्छा के अनुकूल वे काम कर रहे हांे। कुछ भी हो, नीतीश कुमार  वंशवाद के आरोप से तो बचे हुए हैं। इस कारण भी नीतीश की एक अलग छवि बन सकी है। राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं में नीतीश  की साख बढ़ी है।

 सारे कार्यकत्र्ताओं को पद नहीं दिया जा सकता।पर जदयू में किसी कर्मठ कार्यकत्र्ता को यह भय तो नहीं है कि उनका हक मारकर नीतीश कुमार अपने किसी परिजन को कोई पद दे देंगे। इस छवि को बनाये रखने में एक पुत्र अपने पिता का सहयोग कर रहा है।
नीतीश कुमार के बड़े भाई सतीश कुमार को मैं 1980 से जानता हूं। शुक्रवार को जितने लोगों ने मंत्री पद की शपथ ली ,उनमें से कई लोगों से अधिक राजनीतिक सूझबूझ सतीश कुमार में है।इसके बावजूद अब तक यह खबर नहीं  है कि उन्होंने किसी पद के लिए अपने अनुज  पर दबाव बनाया।



अनिच्छुुक राजीव आये थे राजनीति में

1980 में संजय गांधी के आकस्मिक निधन के बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने अनिच्छुक राजीव गांधी को राजनीति में ला दिया था।राजीव सेवारत पायलट थे । राजनीति मंे उनकी कोई रूचि नहीं थी।तब तक वे  सरल हृदय के एक भले आदमी के रुप में जाने जाते थे।  पर उन्हें राजनीति में आने के लिए मनाया गया।सवाल वंशवाद को आगे बढ़ाने का जो था !

   इस देश में ऐसे भी कई उदाहरण हंै कि  पिता  तो सिद्धांततः वंशवाद के सख्त खिलाफ थे,पर उनके पुत्र ने उनपर भारी दबाव बनाकर उनके इस सिद्धांत का कचूमर निकाल दिया।बेचारे क्या करते ! सोचा कि बुढ़ापे के सहारे को कैसे नाराज करें ।

 पर एक ऐसे राजनेता पिता को भी जानता हूं जिन्होंने अपने पुत्र की ओर से मिलने वाली प्रताड़ना को तो सहा,पर उसे अपने जीवनकाल में अपने पुण्य-प्रताप  के बल पर राजनीति में कभी उसे आगे नहीं बढ़ाया ।तब यह भी चर्चा  थी कि पिता के असमय निधन का कारण पुत्र की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ही बनी।



और अंत में  

राजद सुप्रीमो ने तय किया है कि वह खुद या उनके परिजन पुलिस के कामकाज में दखल नहीं देंगेे।उधर मुख्य मंत्री ने पुलिस अफसरों से कहा है कि वे अपराधियांे को कुचल दें।उपर्युक्त बातें राज्य के शांतिप्रिय लोगों को बड़ी राहत पहुंचाती हैं।  
(दैनिक भास्कर, पटना : 22 नवंबर 2015)

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

सुशासन और विकास को लेकर नीतीश पर भरोसा कायम

     तीव्र शाब्दिक प्रहार प्रति प्रहार के बीच पांच चरणों में चुनाव संपन्न हुए हंै। इससे तरह -तरह के तनाव पैदा हुए। लालू प्रसाद के बारे में शुभ संकेत मिल रहे हैं। वे अब विकास पर जोर दे रहे हैं। नीतीश कुमार तो पहले से ही ‘विकास पुरुष’ रहे हैं। हालांकि कुछ आशंकाएं भी हैं। इसके बावजूद हर तबके के विवेकशील लोगों का यह मानना है कि नीतीश कुमार  के हाथों  में राज्य के लोगों के हित सुरक्षित रहने की ही अधिक उम्मीद है।अनेक लोगों से बातचीत के बाद यह आम राय सामने आई है।

  सामाजिक और राजनीतिक तनातनी के बावजूद चुनाव के दौरान कोई बड़ी हिंसा नहीं हुई। भीषण चुनावी हिंसा के लिए कभी चर्चित रहे इस राज्य के पिछले ़कई चुनाव शांतिपूर्ण ही हुए हैं।इस बार भी ऐसा ही रहा जबकि  भीतर-भीतर तनातनी की खबरें आ रही थीं।इसका श्रेय चुनाव आयोग को तो है ही। साथ ही नीतीश  शासन को भी जाता है जिसने 2005 से ही भरसक कानून का शासन कायम रखा है।

  याद रहे कि पिछले दस साल से नीतीश सरकार ने न्याय के साथ विकास और सुशासन की राह पर बिहार को चलाया है।उसके अच्छे नतीजे भी सामने आये हैं।

  यदि लालू प्रसाद का साथ और तनावपूर्ण माहौल में हुए इस चुनाव के बाद अधिकतर लोगों का नीतीश शासन पर भरोसा कायम नजर आ रहा है तो इसका मुख्य कारण नीतीश कुमार का अपना पिछला रिकार्ड ही है।वह भरसक स्वच्छ शासन,विकास  और बेहतर कानून -व्यवस्था का रिकार्ड है।

  बिहार विधान सभा के इस खास तरह के चुनाव में एक साथ कई मुददों ने अपनी भूमिका निभाई है।पर यह बात विशेष तौर पर महत्वपूर्ण है कि नीतीश कुमार के खिलाफ एन्टी इन्कम्बेंसी यानी सत्ता के खिलाफ रोष की कोई भावना आम तौर पर नहीं देखी गई।जो  लोग महा गठबंधन को वोट नहीं दे रहे थे,उनका भी कहना था कि नीतीश कुमार ने अपने शासन काल में अच्छा काम किया है।

 गत लोक सभा चुनाव के समय भी अनेक मतदाताओं ने नीतीश कुमार से कहा था कि इस बार तो हम  नरेंद्र मोदी को वोट देंगे,पर विधान सभा के चुनाव में हम आपको ही  मदद करेंगे।तब देश में विशेष परिस्थिति थी।मन मोहन सरकार से लोगों को मुक्ति चाहिए थी।उन दिनों नरेंद्र मोदी ही मुक्तिदाता लग रहे थे। उन  मतदाताओं ने अपना वायदा निभाया और नीतीश को इस बार वोट दिये।

     यह उम्मीद की जा रही है कि अगले पांच साल में बिहार में और भी अच्छे काम होंगे।खुद नीतीश कुमार की यही इच्छा है।और बिहार की अधिकतर जनता भी चाहती है कि कानून -व्यवस्था बेहतर हो । विकास की गति तेज हो।लगता है कि  राज्य को विकसित देखने  की लोगों की  इच्छा काफी हद तक पूरी हो जाएगी ।

  बिजली और सड़क के मामले में पिछले दस साल में बिहार ने  तरक्की की है।उम्मीद की जा रही है कि अगले दो तीन साल में राज्य के घर -घर में बिजली पहुंच जाएगी।सड़कों के मामले में बिहार और भी बेहतर  स्थिति में होगा।इससे काफी फर्क पड़ेगा।बिजली और सड़क विकास के इंजन हैं।सरकार की मदद कम भी रहेगी तो आम लोग बिजली-सड़क के बूते अपने उद्यम बढ़ा सकते हैं।

पर खेतों की सिंचाई पर अधिक जोर देना होगा।उससे किसानों की आय बढ़ेगी।आय बढ़ने से उनकी क्रय शक्ति बढे़गी।क्रय शक्ति बढ़ने से वे कारखनिया माल खरीदने की स्थिति में होंगे।उससे कारखानों की संख्या बढ़ेगी।उद्योग बढ़ने से रोजगार के अवसर बढ़ेंगे।
 पर इसके लिए यह भी जरुरी है कि सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार कम हो।
रिश्वतखोर बाबुओं के खिलाफ स्टिंग आपरेशन चलाना होगा।   इस बीच नीतीश कुमार के सात संकल्पों पर भी काम चल रहा होगा।

चुनाव नतीजे आने के तत्काल बाद राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद का यह कहना भी महत्वपूर्ण है कि  ‘महा गठबंधन विचारों और कार्यक्रम पर आधारित है।सरकार चलाने में मेरा कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।’यह खबर भी उत्साहबर्धक और महत्वपूर्ण है कि  लालू प्रसाद अब विकास पर जोर दे रहे हैं।पर विकास के लिए जरुरी है कि राजद के लोग कानून -व्यवस्था बेहतर बनाने में नीतीश कुमार की पूरी मदद करें।

मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने कहा है कि हमारा कार्यक्रम पूर्व निर्धारित है।सबको साथ लेकर चलना है।सभी तबकों के वोट हमें मिले हैं।लोगों की उम्मीदों के अनुरुप ही हम काम करेंगे। केंद्र सरकार ने भी बिहार को मदद जारी रखने का वायदा किया है।
ये बातें बेहतर बिहार के लिए उम्मीदें जगाती हैं।
  (10 नवंबर 2015 )
   
   


गुरुवार, 12 नवंबर 2015

कड़े सरकारी कदमों से रुकेगा ‘अभिमन्यु बध’

   
   आरक्षण पर संघ प्रमुख मोहन भागवत का बयान बिहार में राजग की हार का निर्णायक कारण बना। उस बयान से पहले राजग और महागठबंधन के बीच बराबरी का मुकाबला  लग रहा था। चुनाव परिणाम कुछ भी हो सकता था। बयान के बाद आरक्षण के दायरे में आने वाले लोग डर गये। जो राजग की ओर जा रहे थे, उन्होंने  महा गठबंधन का दामन थाम लिया। डरने वालों की यह साफ समझ है कि संघ एक ऐसा संगठन है जो भाजपा नेताओं को आदेश देता है।

   जानकार लोगों की राय है कि हार के लिए नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं है। इस मामले में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी निर्दोष हैं। पर उन्हें भाजपा के भीतर और बाहर के निहितस्वार्थी तत्व घेर कर अभिमन्यु की तरह उनका राजनीतिक बध करना चाहते हैं।अभिमन्यु शब्द सोशल मीडिया से आया है। भाजपा के उन तत्वों के अपने-अपने कारण हैं। अमित शाह पर कार्रवाई भी मोदी  पर ही कार्रवाई मानी जाएगी।

यदि मोदी का कोई कसूर है तो वह इतना ही कि उन्होंने अपने भाषण के स्तर को गिरा दिया था। शायद वे लालू प्रसाद से  मुकाबले के लिए ऐसा जरुरी मानते होंगे। जो भी हो,यह उनकी गलती थी। देश के प्रधान मंत्री को उस स्तर पर नहीं उतरना चाहिए था।

 याद रहे कि चुनाव प्रचार के दौरान मोहन भागवत ने एक से अधिक बार यह बात कह दी कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए।

   जिस कांग्रेसी को पार्टी में बने रहना है वह नेहरु परिवार पर  अंगुली नहीं उठा सकता। उसी तरह संघ परिवार में उसके  मुखिया पर तो परिवार के किसी सदस्य द्वारा  अंगुली  उठाये जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इसलिए भाजपा के कुछ लोग बिहार में हार का कारण ‘अन्यत्र’ देख रहे हैं। क्योंकि वे भागवत के बयान की ओर  देख ही नहीं सकते। एक बात और है। उन्हें मोदी से बदला लेना ्र्र्र्र्र्र्र है। मोदी ने ्र्र्र  इन नेताओं को बेरोजगार बना दिया है।संभव है कि अपवादस्वरूप इन में से कुछ नेता सचमुच यह समझ रहे हों कि दलहित और देशहित में मोदी का विरोध जरुरी है।पर ऐसे नेता या तो भोले हैं या फिर बिहार की जमीनी राजनीति के जानकार नहीं हैं।

 यदि यही स्थिति जारी रही तो  जो हश्र कांग्रेस का हुआ, देर -सवेर भाजपा की वही हालत होगी।

 वह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होगी।क्योंकि भाजपा पर  कांग्रेस की अपेक्षा भ्रष्टाचार के काफी कम आरोप लगते रहे हैं।आज देश की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार है।उसी से अन्य अनेक समस्याएं निकलती जा रही हैं।

 नरेंद्र मोदी को 2014 में देश ने इसीलिए चुना क्योंकि यू.पी.ए.सरकार ने  घोटालों की बाढ़ ला दी थी और कांग्रेस एकतरफा ढोंगी धर्म निरपेक्षता चला रही थी।

 नरेंद्र मोदी पिछड़ी जाति से आते हैं। उन पर निजी संपत्ति बटोरने का कोई आरोप नहीं है।वे देशद्रोही तत्वों के खिलाफ सख्त रहे हैं। पिछड़ों के एक वर्ग ने गत लोक सभा चुनाव में इसलिए भी मोदी का समर्थन किया क्योंकि उन्हें लगा कि एक पिछड़ा नेता के कारण उनके हितों को नुकसान नहीं पहुंचेगा।खास कर आरक्षण से संबंधित हितों का।

  संघ परिवार खास कर भाजपा के अधिकतर बड़े नेताओं ने आरक्षण को बेमन से ही स्वीकार किया है। उनमें  आरक्षण के खिलाफ दबी-छिपी भावना है।वह भावना मोहन भागवत के बयान के रुप में  सामने आ गयी।नरेंद्र मोदी के खिलाफ गुस्सा करने के बदले उन्हें उस भावना को त्याग करना होगा।तभी  बिहार जैसे राज्य में भाजपा  विजय हासिल कर पाएगी।

 याद रहे कि 1990 में वी.पी.सिंह  सरकार ने केंद्रीय सेवाओं में पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू किया तो भाजपा ने उससे समर्थन वापस करके वी.पी.सरकार को गिरा दिया।भाजपा का तर्क था कि मंडल के जरिए वी.पी.सिंह ने हिंदू समाज को विभाजित करने का प्रयास किया जिसे एकजुट करने के लिए हमने राम मंदिर का आंदोलन तेज किया।
  भाजपा का राम मंदिर का मुददा थोड़े समय के लिए काम भी कर गया।
पर पिछड़ों के मन यह बात बैठ गई कि कांग्रेस की तरह भाजपा ने भी  दिल से आरक्षण को स्वीकार नहीं किया है।
 यह भी कि जब केंद्र में अकेले भाजपा को बहुमत मिल गया है तो वह आरक्षण में छेड़छाड़ भी कर सकती है।
 मोहन भागवत का बयान इस कारण बहुत महत्वपूर्ण बन गया।पिछड़ों ने इस बात पर भी गौर किया कि  भाजपा के किसी बड़े नेता ने मोहन भागवत को ऐसा बयान देने से  नहीं रोका जबकि भागवत ने इस बयान को दोहराया भी।
  भाजपा के जो वरिष्ठत्तम नेतागण आज नरेंद्र मोदी पर पिल पड़े हैं,उन्हंांेने  भी मोहन भागवत पर अंगुली नहीं उठाई।
    दरअसल मोहन भागवत का बयान पिछड़ों को इसलिए भी खतरनाक लगा क्योंकि उन्होंने यह भी कह दिया था कि इस बात पर भी विचार होना चाहिए कि आरक्षण की व्यवस्था आखिर कब तक जारी रहेगी ?
 उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि जातीय आधार पर भेदभाव करने वाले समाज से भेदभाव खत्म होने तक  आरक्षण जरुरी है।भागवत ने इस तथ्य पर भी ध्यान नहीं दिया कि सरकारी सेवाओं में पिछड़ों के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत आरक्षण का कोटा आखिर भरता क्यों नहीं है ?
   थोड़ी देर के लिए मान भी लिया कि वर्ग एक और दो की सेवाओं के लिए पिछड़ों में से प्रतिभाशाली उम्मीदवार नहीं मिल पाते,पर वर्ग तीन  और चार  की सीटें भी क्यों नहीं भर पाती ? क्या संघ परिवार ने नरेंद्र मोदी सरकार से पूछा कि  इसके पीछे जातीय भेदभाव तो नहीं है ?यदि है तो उसे कैसे दूर किया जाए ?
इसके बदले भागवत ने कहा कि कितने दिनों तक आरक्षण चलेगा ?
  इसके बावजूद राजग यदि उम्मीद कर रहा था कि उसे बिहार में बहुमत मिलेगा तो वह दिवास्वप्न ही देख रहा था।
 बिहार में हार के कारणों को नरेंद्र मोदी-अमित शाह की विफलता में खोजने वाले नेतागण अवसर की तलाश में थे।उनमें से अधिकतर लोग अपनी व्यक्तिगत कुंठाओं को स्वर दे रहे हैं।कुछ पदांकाक्षी हैं ।कुछ अन्य लोग मोदी से ईष्र्यालु हैं।
   बिहार की हार के कारणों की असली समझ हुक्मदेव नारायण यादव,जीतनराम मांझी और डा.सी.पी.ठाकुर को भी है।
  ये तीनों बिहार के बड़े नेता हैं।इन तीनों के बेटे उम्मीदवार थे।वे सरजमीन पर थे।
  हुक्मदेव नारायण यादव मुखिया से सांसाद बने हैं।वे विधायक भी थे।वे अपने बेटे के लिए उन लोगों से वोट मांगने गये  होंगे जिन लोगों ने उन्हें दशकों से वोट दिये हंै।उन मतदाताओं ने भागवत के बयान की याद दिला दी होगी।हुक्मदेव के पुत्र अशोक यादव चुनाव हार गये।
  जीतनराम मांझी  को भी दलितों ने ऐसा ही जवाब दिया होगा।डा.सी.पी.ठाकुर को उम्मीद रही होगी  कि पिछड़ों के जिस हिस्से ने लोक सभा चुनाव में राजग को वोट दिया था,वे एक बार फिर उनके पुत्र विवेक ठाकुर को दे देंगे।
पर ,ऐसा नहीं हुआ।पुत्र पराजय शोक में विह्वल  इन तीन नेताओं ने मोहन भागवत के उच्च पद का भी ध्यान रखे बिना सही बात बोल दी।
  दरअसल ये नेता संघ के हार्डकोर भी तो नहीं रहे हैं।हुक्मदेव लोहियावादी पार्टी से भाजपा में गये।डा.ठाकुर पहले कांग्रेसी  सांसद थे।
जीतन राम ने कई दल देखे।इन नेताओं के पास विकल्प खुले हैं।पर हार्ड कोर संघी मोहन भागवत से सहमे हुए है।शायद वे जानकर भी अनजान बन रहे हैं।
 आरक्षण की समीक्षा की मांग करने वाले  संघी  के खिलाफ अब भी भाजपा के हार्ड कोर कार्यकत्र्ता और नेतागण  तन कर खड़ा नहीं होंगे तो भाजपा की तकदीर झुक जाएगी।नतीजतन एक बार फिर कांग्रेस सरकार बन जाएगी।

 
   याद रहे कि भाजपा का मंदिर आंदोलन फीका पड़ा था तो कांग्रेस सत्ता में आ गई थी।आरोप लगा कि कांग्रेसनीत यू.पी.ए.सरकार ने जब भ्रष्टाचार और मुस्लिम तुष्टिकरण को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया तो उसकी काट के लिए नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय पटल पर अवतरण हुआ।
 बिहार के चुनाव ने नरेंद्र मोदी की सरकार की आभा  मद्धिम कर दी है।
जबकि इसके लिए मोदी जिम्मेदार नहीं हैं।मोदी उदास नजर आ रहे हैं।
 संघ प्रमुख ने गत सितंबर में जब आरक्षण की समीक्षा की जरुरत बता दी तो आरक्षण समर्थकों के कान खड़े हो गये।
उन्हें संघ परिवार के सदस्य भाजपा की राम रथ यात्रा याद आ गई जो मंडल आरक्षण के अघोषित विरोधस्वरुप शुरु की गई थी।
 उन दिनों भाजपा के एक नेता का तर्क था कि जब वी.पी.सिंह ने आरक्षण लागू करके हिंदू समाज का तोड़ने की कोशिश की तो हमने राम मंदिर अभियान के जरिए उसे जोड़ने का प्रयास किया।हमारे सामने कोई अन्य रास्ता ही नहीं था।
   अब नरेंद्र मोदी  के सामने क्या रास्ते हैं ?रास्ते हैं यदि मोदी अपनाना चाहें।
 अपनाइए या बलि का बकरा बनिए।पार्टी के भीतर बलि का  बकरा ढूंढ़ा जा रहा है।
 कांग्रेस यही काम करती रही है।उसने पार्टी या सरकार की विफलताओं के लिए
कभी नेहरु-इंदिरा  परिवार को जिम्मेदार नहीं माना।
आज कांग्रेस की जो दुर्दशा है,उसके पीछे इस दास प्रवृति का सबसे बड़ा योगदान है।
 जो स्थिति यू.पी.ए.सरकार में मनमोहन सिंह की थी,वही स्थिति नरेंद्र मोदी की है।
मन मोहन सिंह तो राजनीतिक प्राणी नहीं हंै।उनके रहने या नहीं रहने से कांग्रेस को कोई फर्क नहीं पड़ता।
पर नरेंद्र मोदी न सिर्फ राजनीतिक व्यक्ति हैं बल्कि भाजपा के सबसे लोकप्रिय नेता हैं।देश भी उन पर भरोसा कर रहा है।वे भरसक ईमानदारी से अपने काम कर रहे हैं।उनकी कतिपय ओछी शब्दावलियों को नजरअंदाज कर दें तो उन्होंने बिहार के चुनाव प्रचार में बहुत अच्छा काम किया।यदि वे नहीं होते तो राजग की स्थिति संभवतः और भी खराब होती।
 पर बेचारे नरेंद्र मोदी भी चूंकि साफ-साफ यह नहीं कह सकते कि मोहन भागवत
के बयान के कारण सारा खेल बिगड़ गया,इसलिए उन्हें चुपके से जहर पीना पड़ेगा।पर अपने कुछ कड़े कदमों के जरिए अपने विरोधियों को मोदी मुंहतोड़ जवाब दे सकते हैं।यह देश के भले के लिए भी जरुरी है।
 बिहार चुनाव के बहाने भाजपा के अंदर के दिलजले और सत्ताकांक्षी नेताओंं को मोदी को कठघरे  में खड़ा करने का मौका मिल गया है। वे लोग ऐसे ही किसी समय का इंतजार कर रहे थे।अब देखना है कि आगे क्या-क्या होता है।क्या वैसे लोग अभिमन्यु बध कर पाएंगे ?
 पौराणिक  अभिमन्यु ने चक्रव्यूह से निकलना नहीं सीखा था।
इंदिरा गांधी और नीतीश कुमार जैसे कुछ नेताओें ने राजनीतिक चक्रव्यूह से निकलने का इंतजाम कर लिया था।मोदी उनकी राह पर चल सकते हैं।
 इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के सिंडिकेट की गिरफ्त से निकलने के लिए 1969 में 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया।उन्होंने पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स समाप्त कर दिये।कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया।गरीबी हटाओ का नारा दे दिया।
 यह और बात है कि जनता को यह इंदिरा गांधी का झांसा ही था।पर वह 1971 के चुनाव में काम कर गया।
  नीतीश कुमार ने अति पिछड़ों और महिलाओं के लिए पंचायत चुनाव  और शिक्षकों की बहाली में आरक्षण लागू कर दिया।
 महा दलितों के लिए विशेष प्रावधान किये।स्कूली छात्र-छात्राओं के लिए साइकिल और स्कूली पोशाक के प्रावधान किये।इस तरह के कुछ अन्य ऐसे काम किये जिसने स्थायी प्रभाव छोड़े।वोट बैंक बना।
 नरेंद्र मोदी ने अब तक ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे उनका अपना वोट बैंक तैयार हो सके।
 इसलिए चक्रव्यूह तोड़ना उनके लिए अभी कठिन होगा।वे अभी संघ और भाजपा की कृपा पर हैं।
जनता में उनका जलवा कम होने लगा है।जनता तो चैंकाने वाले नतीजे चाहती है।क्योंकि वह भ्रष्टाचार व महंगाई से पीडि़त है।
 मोदी का जलवा न सिर्फ  फिर से कायम हो सकता है,बल्कि बढ़ भी सकता है,यदि वे निम्नलिखित उपाय तुरंत करें।
1.- केंद्र सरकार पिछड़ों के लिए आरक्षित 27 प्रतिशत के कोटे में अति पिछड़ों के लिए अलग से कोटा निधारित कर दे।
नेशनल कमीशन फाॅर बैकवर्ड क्लासेस की ऐसी सिफारिश भी है।
1978 में बिहार के तत्कालीन मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर ने ऐसा प्रावधान किया था।
यदि मोदी ऐसी हिम्मत दिखाएंगे तो उनका एक वोट बैंक बन जाएगा।
2.-केंद्र सरकार शिक्षकों और सरकारी कर्मचारियों की नौकरियों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करा दे।
साथ ही विधायिकाओं में महिलाओं के लिए मोदी 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए संसद में विधेयक लाएं।
 कांग्रेस से मिलकर वे इसे पास कराने की कोशिश करें।
जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक के आधार पर राजनीति करने वाली पार्टियां
कांग्रेस पर दबाव डालकर उसे पास नहीं करने देगी।हालांकि कांग्रेस महिला आरक्षण के पक्ष में रही है।यदि इस मामले में राजग सरकार की कोशिश विफल भी होगी तौभी मोदी के लिए महिलाओं का वोट बैंक बन जाएगा।
इस तरह से कुछ और उपेक्षित समुदायों के वोट बैंक बनाये जा सकते हैं।
इस वोट की ताकत के बल पर  आगे व्यापक जनहित में अन्य कई निर्णय किये जा सकते हैं।
 3. - नरेंद्र मोदी को 2014 मंे इस देश ने दो मुख्य बातों के कारण पसंद किया।मोदी ने गुजरात से  माफिया तत्वों का सफाया किया था।
खुद मोदी पर आर्थिक भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं था।आज भी नहीं है।
 देश के लोग मोदी से यह चाहते हैं कि उनकी सरकार राष्ट्रद्रोही तत्वों के खिलाफ सख्ती करे।
केंद्र सरकार को  हिंदू ,मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई जिस किसी तबके का आतंकवादी या देशद्रोही तत्व मिलें उनके खिलाफ समान रुप से सख्त कार्रवाई करनी चाहिए।उन्हें फिर से पोटा कानून पास कराने की कोशिश करनी चाहिए।उससे अधिक  से अधिक आतंकवादियों को सजा दिलाने में सुविधा होगी।
4.-भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ और साक्षी महाराज जैसे नेताओं को भाजपा से
तत्काल निकाल देना चाहिए।
साथ ही सभी धर्मों के विवेकशील प्रतिनिधियों को मिलाकर केंद्रीय गृह मंत्रालय
एक राष्ट्रीय सद्भावना सलाहकार समिति बनाये जो सांप्रदायिक शांति बनाये रखने के लिए समय-समय पर सरकार को सुझाव दे।साथ ही वह समिति अशांति की स्थिति मंे शीघ्र शांति कायम  करने के लिए घटनास्थल का दौरा करे और उपाय सुझाए।
5.-घोटालों -महा घोटालों से ऊबकर जनता ने मोदी को सत्तासीन किया था।
पर घोटालेबाज और घूसखोर आज भी सक्रिय हैं।हालांकि केंद्रीय मंत्रिमंडल स्तर पर
ऐसा कुछ होने की खबर अभी नहीं आ रही है।
 यू.पी.ए.सरकार का एक मंत्री अरबों का घोटाला करता था और दूसरा मंत्री कहता था कि इससे जीरो लाॅस हुआ है।
 नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में सतह पर आए केंद्रीय सचिवालय दस्तावेज  लीकगेट कांड के अपराधियों के खिलाफ अब तक क्या कार्रवाई हुई ,यह देश को पता नहीं चला।
जिस बड़े पैमाने पर सरकारी दफ्तरों में अब भी घूसखोरी और कमीशनखोरी चल रही है,उस अनुपात में मोदी सरकार कार्रवाई नहीं कर रही है।
दूसरी ओर भ्रष्टाचार के घोर दुश्मन अशोक खेमका और संजीव चतुर्वेदी जैसे अफसर,राम जेठमलानी,सुब्रहमण्यम स्वामी और अरुण शौरी जैसे नेताओंं की सेवाओं का इस्तेमाल नहीं हो रहा है।लगता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी सरकार होमियोपैथी विधि से  इलाज कर रही है जबकि बड़ी सर्जरी की तत्काल जरुरत है।
  मोदी सरकार अशोक खेमका और संजीव चतुर्वेदी  जैसे दस-बीस अफसरों को पूरे देश से बुलाकर सेंट्रल सचिवालय मेें तैनात करे और उन्हें संरक्षण दे।
 पक्की उम्मीद है कि वैसे अफसर  भ्रष्टाचारियों  और घोटालेबाजों को छठी का दूध याद दिला देंगे।यदि ऐसा एक जगह हुआ तो बाद में पूरे देश में होगा।ईमानदार अफसरों की कोई कमी नहीं है।
उधर सरकारी भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए जेठमलानी,स्वामी,पूर्व गृह सचिव आर.के.सिंह  या शौरी के नेतृत्व में अधिकारप्राप्त निगरानी दस्ता गठित करे।इस दस्ते के पास  स्टिंग आॅपरेशन की भी व्यवस्था हो।
दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल से दुश्मनी का रुख त्याग करके उनकी सरकार को भ्रष्टाचार मिटाने में केंद्र सरकार उन्हें सहयोग करे।
 मोदी सरकार की नैतिक धाक में एक खास बात से काफी  बट्टा  लगा है ।निष्पक्ष और भ्रष्टाचारपीडि़त लोगों में यह धारणा बनी है कि केजरीवाल सरकार भ्रष्टों के खिलाफ कार्रवाई कर रही है और केंद्र सरकार इसी कारण केजरीवाल को तंग कर रही है।उप राज्यपाल और दिल्ली पुलिस प्रधान इस मामले में केंद्र के हथियार बने हुए हैं।
   आज केजरीवाल केंद्र की मदद से दिल्ली में सरकारी भ्रष्टाचार हटाने में सफल हो रहे होते तो बिहार में नरेंद्र मोदी की नाक ऊंची रहती।
केंद्र सरकार आखिर यह बात क्यों नहीं समझ पा रही है कि पूरे देश के लोग सरकारी भ्रष्टाचारों से बुरी तरह पीडि़त हैं।
  भ्रष्टाचार के कीटाणु , आक्सीजन की तरह यत्र तत्र सर्वत्र उपलब्ध हैं।
सत्ता संभालने के तत्काल बाद प्रधान मंत्री मोदी ने कहा था कि न खाएंगे और न खाने देंगे।खुद तो नहीं खा रहे हैं,किंतु दूसरों को खाने से रोक नहीं पा रहे हैं।
यदि यह जारी रहा तो इस मामले में उनमें और मन मोहन सिंह के बीच फर्क मिट जाएगा। दरअसल खाने से रोकने लगेंगे तो अन्य अनेक लोगों के साथ- साथ  भाजपा के  नेताओं-कार्यकत्र्ताओं का एक बड़ा वर्ग भी विरोध में उठ खड़ा हो सकता है।
उससे लगेगा कि राजनीति और शासन में भूकम्प आ गया।इसके बावजूद यदि नरेंद्र मोदी नहीं झुकेंगे तो इस देश के हीरो बन जाएंगे।फिर संघ और भाजपा के किसी नेता या नेता समूह पर से उनकी निर्भरता समाप्त हो जाएगी।
 फिर जनहित में जो काम करना चाहेंगे,मोदी  कर पाएंगे।अभी यह धारणा है कि मोदी तो अच्छा काम करना चाहते हैं,पर सरकार के ही कुछ भ्रष्ट लोग उन्हें करने नहीं दे रहे हैं।
6.-भ्रष्टाचार के अपराधियों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान कराना चाहिए।ऐसा विधेयक आते ही कई पार्टियां और खुद राजग के कुछ नेता मानवीय पक्ष उठाकर परोक्ष रुप से भ्रष्टों को बचाने की कोशिश में लग जाएंगे।राज्य सभा में बहुमत नहीं होने के कारण मोदी ऐसा  कर भी नहीं पाएंगे।कोई हर्ज नहीं।पर,इससे कम से कम भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य सहनशीलता की उनकी छवि तो बनेगी जो बहुत काम आएगी।जनता उस नेता या सरकार पर मोहित हो जाती है जो भ्रष्ट,देशद्रोही  और अपराधी लोगों कड़ी कार्रवाई करते हंै।
 7 .-मोदी सरकार को चाहिए कि वह  किसानों के लिए पेंशन की तत्काल व्यवस्था  करे।दो या चार  हजार रुपए प्रति माह किसानों को तुरंत मिलना चाहिए।खेती बारी आज घाटे का सौदा हो चुका है।
कृषि आधारित उद्योगों पर अधिक जोर देना चाहिए।
सभी खेतों के लिए सिंचाई का प्रबंध हो।चैधरी चरण सिंह कहा करते  थे कि जब तक किसानों की क्रय शक्ति नहीं बढ़ेगी तब तक कारखानों में तैयार माल खरीदने वाले लोगों की संख्या ही कम ही रहेगी।
ऐसा ही रहा तो उद्योगों का अधिक विकास नहीं हो पाएगा।क्योंकि इस देश के करीब 60 प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर हैं।दो तिहाई खेती वर्षा जल पर निर्भर है।
  लोगबाग सवाल उठा सकते हैं कि पेंशन के लिए पैसे कहां से आएंगे ?          
 इस देश में  पैसों की क्या कमी है ?
 1985 में ही तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से जो सौ पैसे चलते हैं,उसमें से 15 पैसे ही लोगों तक पहुंच पाते हैं।
 बाद में भी उस स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है।हालांकि मोदी सरकार  इस लूट को बंद करने की कोशिश कर रही है।
अब जरा गिनती कर लीजिए कि बिचैलिये कितने पैसे मार ले रहे हैं।उसे लुटने से बचा कर आसानी से किसानों को पेंशन दी जा सकती है।
 इसे अशोक खेमका और संजीव चतुर्वेदी जैसे अफसरों और डा.स्वामी-शौरी-जेठमलानी-आर.के.सिंह  जैसे नेताओं की मदद से बचाया जा सकता है।
  बिहार चुनाव में हार के बाद मोदी उदास हो गए हैं।लगता है कि हार से अधिक अपने ही लोगों द्वारा बयानी हमले से वे परेशान हो उठे हैं।
अभी मोदी इस देश के लिए  जरुरी हंै जिस तरह बिहार जैसे बिहड़ प्रदेश को नीतीश कुमार की जरुरत है।दोनों में किसी का अभी विकल्प नहीं है।
नीतीश कुमार ने अपना सात सूत्री संकल्प पेश किया है।मोदी सरकार के लिए मेरा
सात सूत्री कार्यक्रम ऊपर लिखा गया है।
 यदि आधुनिक  अभिमन्यु को चक्रव्यूह से निकलना है तो उन्हें कुछ कड़े कदम उठाने ही होंगे।
   हां, कुछ सांसद चाहते हैं कि उन्हें भाजपा दल से निकाल दे ताकि वे किसी अन्य सुविधाजनक दल में जा सकें।उन्हें मुक्त कर देना चाहिए।क्योंकि अधिक दिनों तक उनकी आत्मा शरीर से मुक्ति के लिए छटपटाती रहे, यह ठीक भी नहीं है।
@ 12 नवंबर 2015 @

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

चुनाव में और भी मुद्दे हैं आरक्षण के सिवा

इन दिनों

 बिहार  चुनाव में आरक्षण एक बड़ा मुददा बना है।
पर यही एक मुददा नहीं है जो चुनाव को प्रभावित कर रहा है।
विकास और सुशासन भी बड़े मुद्दे हैं।जंगल राज की वापसी का खतरा
कई लोगों को उद्वेलित कर रहा है।
   धार्मिक आधार पर धु्रवीकरण की कोशिश भी  मुददा है।
कई मतदाताओं के दिलो-दिमाग में  सवाल गोमांस का है तो देश की एकता-अखंडता का भी ।जहां-तहां जातीय पहचान और जातीय वर्चस्व भी मुददे हैं तो कुछ नेताओं के भाषण के गिरते स्तर भी।उम्मीदवारों के चाल,चरित्र और चेहरे भी मुद्दे बन रहे हैं।धन बल और बाहुबल के साथ-साथ कुछ और भी मुददे  हंै।नतीजों पर सबका मिलाजुला असर पड़ेगा।
  पटना के एक अस्सी वर्षीय बुजुर्ग मतदाता ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन  कुछ प्रमुख नेतागण भी वोट के लिए इतने बदजुबान हो जाएंगे।हालांकि उन्होंने नीतीश कुमार  और अरुण जेटली की बोली में  संयम की तारीफ भी की।
    बड़ी देर से नींद खुली बुद्धिजीवियों की
‘मूडीज’ ने भारत की आर्थिक नीति के भटक जाने के खतरे की ओर प्रधान मंत्री श्री मोदी का ध्यान खींचा है।मूडीज का एतराज कुछ अतिवादी भाजपा नेताओं के विवादास्पद बयानों से है ।मूडीज के अनुसार इससे भारत के घरेलू और विश्व स्तर पर विश्वसनीयता खोने का खतरा है।
  मूडीज की इस टिप्पणी के बाद संभवतः इस देश के उन लेखकों , इतिहासकारों,फिल्मकारों और वैज्ञानिकों का हौसला बढ़ा होगा जिन लोगों ने हाल में
 अपने पुरस्कार लौटा दिए।उन बुद्धिजीवियों के अनुसार देश का लोकतंत्र दांव पर लग गया है और देश में धार्मिक तानाशाही का खतरा पैदा हो गया है।
  निष्पक्ष लोगों की राय है कि इन बुद्धिजीवियों ने समस्या को काफी बढ़ा- चढ़ाकर पेश किया है।
 कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि कुछ खास विवादास्पद कारणों से उन लोगों ने पुरस्कार लौटाए हैं।
  वैसे यदि यह मान भी लिया जाए कि भाजपा के अतिवादी नेताओं ने भारी असहिष्णुता का माहौल पैदा कर दिया हैं तोभी उन लेखकों से कुछ सवाल तो पूछे ही जा सकते हैं।
 नरेंद्र मोदी से खार खाए बुद्धिजीवियों को  पिछली यू.पी.ए.सरकार के कारनामों के नतीजों का पूर्वाभास क्यों नहीं हुआ ?
उन दिनों जिस तरह एकतरफा और ढांेगी धर्म निरपेक्षता का राजनीतिक खेल खेला जा रहा था,उसके नतीजे के तहत यही तो होना था।नरेंद्र मोदी को सत्ता में आना ही था।क्योंकि भाजपा के सिवा कोई दूसरा मजबूत विकल्प था भी नहीं।
 इन बुद्धिजीवियों को इस बात का पूर्वाभास होना चाहिए था कि पिछली सरकार के कार्यकाल में हो रहे महा घोटालों से जनता ऊब चुकी है।अधिकतर जनता इस बात से भी परेशान थी कि यू.पी.ए.सरकार देश की सीमाओं की रक्षा को लेकर भी गंभीर नहीं थी।
  इसलिए जिन मतदाताओं ने 2014 में नरेंद्र मोदी को सत्तासीन किया,उनमें से कितने लोगों ने संघ नेता के ‘बंच और थॅाट्स’ पढ़कर ऐसा किया ?
  दरअसल इन बुद्धिजीवियों को तभी एक काम कर देना चाहिए था।वे  यू.पी.ए.के कर्णधारों से कहते कि नरेंद्र मोदी को सत्ता में आने से रोकना है तो  आप
महा घाटालों पर शीघ्र काबू  पाएं ।  दोनों समुदायों के सांप्रदायिक और आंतकवादी  लोगों पर समान रुप से कड़ी कार्रवाई करें ।
  पर तब बुद्धिजीवी तब चूक गए।अब पुरस्कार लौटाने से क्या होगा ? साहित्य अकादमी ने अब तक  एक हजार लोगों को पुरस्कृत किया है।इन में
से 25-30 लोगों के लौटा देने से कोई भूकंप नहीं  होने वाला है।
     भ्रष्टाचार का समर्थन और विरोध
  दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग, ओम प्रकाश चैटाला को पेरोल देने के पक्ष में हैं जबकि केजरीवाल सरकार विरोध में है।
पेरोल की शत्र्तें तोड़ने के आरोप में गत साल अदालत ने सजायाफ्ता चैटाला को दुबारा जेल भिजवा दिया था।
  केजरीवाल पूछ रहे  हैंं कि आखिर  नसीब जंग, चैटाला में क्यों इतनी रुचि दिखा रहे हैं ?
       और अंत में
 एक उम्मीदवार  ने मतदाताओं से वायदा किया कि यदि आप मुझे जिता देंगे तो हम आपके इलाके की गरीबी हटा देंगे।
मतदाताओं ने उन्हें जिता  दिया।उसके बाद वे अपनी  और अपने रिश्तेदारों की गरीबी हटाने में व्यस्त हो गये।
अगले चुनाव में एक बार फिर वे मतदाताओं के सामने थे।गरीबी हटाने के वायदे की याद दिलाने पर  उनका जवाब था, ‘कहां है गरीबी ? मेरे आसपास तो कहीं नजर  नहीं आ रही है।’यह कहानी इस देश में  सिर्फ एक नेता की नहीं है।