मंगलवार, 3 नवंबर 2015

चुनाव में और भी मुद्दे हैं आरक्षण के सिवा

इन दिनों

 बिहार  चुनाव में आरक्षण एक बड़ा मुददा बना है।
पर यही एक मुददा नहीं है जो चुनाव को प्रभावित कर रहा है।
विकास और सुशासन भी बड़े मुद्दे हैं।जंगल राज की वापसी का खतरा
कई लोगों को उद्वेलित कर रहा है।
   धार्मिक आधार पर धु्रवीकरण की कोशिश भी  मुददा है।
कई मतदाताओं के दिलो-दिमाग में  सवाल गोमांस का है तो देश की एकता-अखंडता का भी ।जहां-तहां जातीय पहचान और जातीय वर्चस्व भी मुददे हैं तो कुछ नेताओं के भाषण के गिरते स्तर भी।उम्मीदवारों के चाल,चरित्र और चेहरे भी मुद्दे बन रहे हैं।धन बल और बाहुबल के साथ-साथ कुछ और भी मुददे  हंै।नतीजों पर सबका मिलाजुला असर पड़ेगा।
  पटना के एक अस्सी वर्षीय बुजुर्ग मतदाता ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन  कुछ प्रमुख नेतागण भी वोट के लिए इतने बदजुबान हो जाएंगे।हालांकि उन्होंने नीतीश कुमार  और अरुण जेटली की बोली में  संयम की तारीफ भी की।
    बड़ी देर से नींद खुली बुद्धिजीवियों की
‘मूडीज’ ने भारत की आर्थिक नीति के भटक जाने के खतरे की ओर प्रधान मंत्री श्री मोदी का ध्यान खींचा है।मूडीज का एतराज कुछ अतिवादी भाजपा नेताओं के विवादास्पद बयानों से है ।मूडीज के अनुसार इससे भारत के घरेलू और विश्व स्तर पर विश्वसनीयता खोने का खतरा है।
  मूडीज की इस टिप्पणी के बाद संभवतः इस देश के उन लेखकों , इतिहासकारों,फिल्मकारों और वैज्ञानिकों का हौसला बढ़ा होगा जिन लोगों ने हाल में
 अपने पुरस्कार लौटा दिए।उन बुद्धिजीवियों के अनुसार देश का लोकतंत्र दांव पर लग गया है और देश में धार्मिक तानाशाही का खतरा पैदा हो गया है।
  निष्पक्ष लोगों की राय है कि इन बुद्धिजीवियों ने समस्या को काफी बढ़ा- चढ़ाकर पेश किया है।
 कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि कुछ खास विवादास्पद कारणों से उन लोगों ने पुरस्कार लौटाए हैं।
  वैसे यदि यह मान भी लिया जाए कि भाजपा के अतिवादी नेताओं ने भारी असहिष्णुता का माहौल पैदा कर दिया हैं तोभी उन लेखकों से कुछ सवाल तो पूछे ही जा सकते हैं।
 नरेंद्र मोदी से खार खाए बुद्धिजीवियों को  पिछली यू.पी.ए.सरकार के कारनामों के नतीजों का पूर्वाभास क्यों नहीं हुआ ?
उन दिनों जिस तरह एकतरफा और ढांेगी धर्म निरपेक्षता का राजनीतिक खेल खेला जा रहा था,उसके नतीजे के तहत यही तो होना था।नरेंद्र मोदी को सत्ता में आना ही था।क्योंकि भाजपा के सिवा कोई दूसरा मजबूत विकल्प था भी नहीं।
 इन बुद्धिजीवियों को इस बात का पूर्वाभास होना चाहिए था कि पिछली सरकार के कार्यकाल में हो रहे महा घोटालों से जनता ऊब चुकी है।अधिकतर जनता इस बात से भी परेशान थी कि यू.पी.ए.सरकार देश की सीमाओं की रक्षा को लेकर भी गंभीर नहीं थी।
  इसलिए जिन मतदाताओं ने 2014 में नरेंद्र मोदी को सत्तासीन किया,उनमें से कितने लोगों ने संघ नेता के ‘बंच और थॅाट्स’ पढ़कर ऐसा किया ?
  दरअसल इन बुद्धिजीवियों को तभी एक काम कर देना चाहिए था।वे  यू.पी.ए.के कर्णधारों से कहते कि नरेंद्र मोदी को सत्ता में आने से रोकना है तो  आप
महा घाटालों पर शीघ्र काबू  पाएं ।  दोनों समुदायों के सांप्रदायिक और आंतकवादी  लोगों पर समान रुप से कड़ी कार्रवाई करें ।
  पर तब बुद्धिजीवी तब चूक गए।अब पुरस्कार लौटाने से क्या होगा ? साहित्य अकादमी ने अब तक  एक हजार लोगों को पुरस्कृत किया है।इन में
से 25-30 लोगों के लौटा देने से कोई भूकंप नहीं  होने वाला है।
     भ्रष्टाचार का समर्थन और विरोध
  दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग, ओम प्रकाश चैटाला को पेरोल देने के पक्ष में हैं जबकि केजरीवाल सरकार विरोध में है।
पेरोल की शत्र्तें तोड़ने के आरोप में गत साल अदालत ने सजायाफ्ता चैटाला को दुबारा जेल भिजवा दिया था।
  केजरीवाल पूछ रहे  हैंं कि आखिर  नसीब जंग, चैटाला में क्यों इतनी रुचि दिखा रहे हैं ?
       और अंत में
 एक उम्मीदवार  ने मतदाताओं से वायदा किया कि यदि आप मुझे जिता देंगे तो हम आपके इलाके की गरीबी हटा देंगे।
मतदाताओं ने उन्हें जिता  दिया।उसके बाद वे अपनी  और अपने रिश्तेदारों की गरीबी हटाने में व्यस्त हो गये।
अगले चुनाव में एक बार फिर वे मतदाताओं के सामने थे।गरीबी हटाने के वायदे की याद दिलाने पर  उनका जवाब था, ‘कहां है गरीबी ? मेरे आसपास तो कहीं नजर  नहीं आ रही है।’यह कहानी इस देश में  सिर्फ एक नेता की नहीं है।
           

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