सोमवार, 11 जनवरी 2016

बदले की भावना का आरोप लगा देने मात्र से ही नहीं मिल जाएगा राजनीतिक लाभ


इंदिरा की बहू सोनिया गांधी, इंदिरा की कहानी भला कैसे दुहरा सकंेगीं ? सी.बी.आई. ने 1977 में जब इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया था तो मजिस्ट्रेट ने पूर्व प्रधानमंत्री को तुरंत रिहा कर दिया
था। क्योंकि उनके खिलाफ सी.बी.आई. तब तक पूरा सबूत जुटा ही नहीं पाई थी।

उसके उलट दिल्ली हाईकोर्ट ने नेशनल हेराल्ड केस में आरोपियों के आचरण को प्रथम दृष्टि में ही संदिग्ध माना है। 1977 में इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के बाद कांग्रेसियों के हंगामे का असर जनता के एक हिस्से पर पड़ा था।वह असर कांग्रेस के पक्ष में गया। क्योंकि उन्हें लगा कि सबूत के बिना ही उन्हें गिरफ्तार किया गया।

पर, ताजा हंगामे का कोई लाभ सोनिया-राहुल और कांग्रेस को मिलेगा, इस बात में अनेक लोगों को अभी संदेह है। यानी नाहक फंसाने की आशंका पर तो आरोपियों को लाभ मिल सकता है, पर ठोस सबूत पर लाभ नहीं मिलता। चारा घोटाले का केस भी इसका एक नमूना है। तब लालू प्रसाद के लोगों ने भी सड़कों पर काफी हंगामा किया था। 

सिर्फ नेशनल हेराल्ड का ही मामला नहीं है जो सोनिया-राबर्ट वाड्रा परिवार पर चल रहा है। इसलिए कांग्रेस हंगामे से कोई खास राजनीतिक लाभ पाने की स्थिति में लगती नहीं है। अब कांग्रेस के इस प्रथम परिवार
पर भ्रष्टाचार के जितने आरोप लग रहे हैं, उतने और इस तरह के आरोप इंदिरा परिवार पर तब नहीं थे। भले अन्य तरह के आरोप अधिक गंभीर थे। उनमें इमरजंसी लगाकर देश में लोकतंत्र समाप्त करने का आरोप
शामिल था।

वैसे कानूनी मामले को राजनीतिक स्वरुप देने की कोशिश अंततः सफल होगी या नहीं, इसका पता तभी चलेगा जब इस केस में अदालत का फाइनल निर्णय आएगा। वैसे भी केंद्र में कांग्रेस की सरकार है नहीं जो बोफर्स जैसे मामले को दफना दिया जाएगा।

याद रहे कि पहले तो बोफर्स मामले को दफना दिया गया। क्वात्रोची को देश से भगा देने का प्रबंध कर दिया गया। स्विस बैंक की लंदन शाखा में स्थित क्वात्रोची के खाते को फिर से चालू करा देने का प्रबंध करा दिया
गया जिसमें बोफर्स की दलाली के पैसे थे। उसके बाद कांग्रेस द्वारा यह प्रचार कर दिया गया कि बोफर्स घोटाले का आरोप ही गलत था।

नेशनल हेराल्ड मामले में अदालत को केस को तार्किक परिणति तक पहुंचा देने का पूरा मौका मिलेगा। क्योंकि अगला लोकसभा चुनाव 2019 में है। यानी कांग्रेस के सत्ता में लौटने की उम्मीद मई, 2019 तक तो बिलकुल ही नहीं है।

यदि इस बीच अदालत हेराल्ड केस में सोनिया-राहुल गांधी को दोषमुक्त कर देती है तब शायद कांग्रेस उसका राजनीतिक लाभ उठाने की स्थिति में हो सकती है। पर इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट की प्रारंम्भिक टिप्पणी से लगता है कि डा. सुब्रहमण्यम स्वामी द्वारा तैयार यह केस काफी मजबूत है।

इससे पहले इस तरह के कम से कम दो मामले हाल के वर्षों में इस देश में सामने आये थे। इंदिरा गांधी का मामला 1977 का है। सन 1996 में चारा घोटाला सामने आया जिसके मुख्य आरोपी लालू प्रसाद हैं।

कभी लालू प्रसाद तथा उनके दल ने चारा घोटाले को लेकर राजनीतिक लाभ उठाने की भरपूर कोशिश की थी।सन 1996 में पटना हाईकोर्ट ने चारा घोटाले की जांच का भार सी.बी.आई. को सौंपा था। तब अदालत ने कह
दिया था कि ‘उच्चस्तरीय साजिश के बगैर इतना बड़ा घोटाला नहीं हो सकता था।’ पटना हाईकोर्ट की निगरानी में जब इस घोटाले की जांच आगे बढ़ी तो लालू प्रसाद और उनके दल ने विधायिका के भीतर और बाहर काफी हंगामा किया। पटना में सी.बी.आई. की जांच के खिलाफ राजद ने
तलवार जुलूस तक निकाला।

मुख्य जांचकत्र्ता और सी.बी.आई.के तत्कालीन संयुक्त निदेशक डा. यू.एन विश्वास को जान से मारने की धमकी तक दी गई। डा.विश्वास को पटना में विशेष सुरक्षा देनी पड़ी थी। डा.विश्वास ने पटना आने से पहले कोलकाता में अपनी पत्नी से कह रखा था कि इस जांच के सिलसिले में उनकी जान भी जा सकती है।

राजद ने सी.बी.आई., अदालत और अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ अपने लोगों की भावना भड़काने की काफी कोशिश की। इसके बावजूद न सिर्फ लालू प्रसाद जेल गये बल्कि सन 2000 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद की सीटें काफी घट गयीं। यानी उस सी.बीआई. विरोधी राजनीतिक अभियान का राजद को कोई चुनावी लाभ नहीं मिला।

इस घोटाले के सामने आने के बाद लालू प्रसाद की राजनीतिक ताकत इतनी घट गई कि सन 2000 में बिहार में सरकार के गठन के लिए राजद को कांग्रेस की मदद लेनी पड़ी थी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि चारा घोटाला केस मजबूत था। इस केस के कारण जनता के बीच के लालू प्रसाद के पुराने समर्थकों के एक बड़े हिस्से
का उन पर विश्वास नहीं रहा। आखिरकार निचली अदालत ने लालू प्रसाद को सजा दे दी है। उनकी अपील हाईकोर्ट में विचाराधीन है।

अब भी लालू प्रसाद का कहना है कि उन पर कोई केस नहीं बनता है। आज भी लालू की पार्टी सत्ता में है तो अकेले नहीं बल्कि साझी सरकार के जरिए है। हालांकि लगता है कि कटु अनुभवों के बाद लालू प्रसाद और
उनका परिवार बदला- बदला नजर आ रहा है। वे कहते हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी शून्य सहनशीलता रहेगी और बिहार में विकास होगा। लालू प्रसाद अपने लोगों से लगातार यह अपील कर रहे हैं कि वे कानून को
अपने हाथों में नहीं लें।

देश के लिए यह अच्छा होगा यदि नेशनल हेराल्ड केस के जरिए इसी तरह सोनिया परिवार में भी बदलाव आ जाये। याद रहे कि 1977 में जब इंदिरा गांधी को सी.बी.आई. ने गिरफ्तार किया तो वह गिरफ्तारी केंद्र की तत्कालीन मोरारजी देसाई सरकार को उल्टा पड़ी।

हालांकि देसाई सरकार के पतन के पीछे सिर्फ यही एक कारण नहीं था। बल्कि जनता पार्टी का अंतरिक कलह मुख्य कारण था। तब के तीन बड़े नेताओं के बीच प्रारंभ से ही नहीं बन रही थी। हालांकि उस सरकार ने जनता के हक में अनेक अच्छे काम किये थे। 

दरअसल तत्कालीन गृहमंत्री चरण सिंह बदले की भावना से ओतप्रोत थे। वे जल्द से जल्द इंदिरा गांधी को जेल के भीतर देखना चाहते थे। इमरजंसी के अत्याचारों को लेकर चरण सिंह खास तौर से खफा थे।
परिणामस्वरुप 1977 में सी.बी.आई. ने इंदिरा गांधी के खिलाफ सबूत एकत्र करने से पहले ही इंदिरा गांधी को जल्दीबाजी में गिरफ्तार कर लिया था। सी.बी.आई. के अफसर जब इंदिरा गांधी के आवास पर गये तो इंदिरा
गांधी ने गुस्से में ऊंची आवाज में कहा कि ‘आपकी हथकडि़यां कहां हैं ? आप मुझे हथकड़ी लगाने ही आए होंगे।क्या गृहमंत्री ने आपको ऐसा करने का निदेश नहीं दिया है ?’

काफी हीला हवाला, शोरगुल और ड्रामे के बाद इंदिरा गांधी को अदालत मं पेश किया गया। अदालत में इंदिरा गांधी की ओर से बड़े -बड़े वकील खड़े थे जबकि अभियोजन पक्ष की तरफ से मामूली वकील थे। सरकारी वकील ने बार-बार अदालत का ध्यान एफ. आई. आर. की ओर खींचा जिसमें श्रीमती गांधी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों का जिक्र था।

जब मजिस्ट्रेट ने सबूत के बारे में पूछा तो सरकारी वकील ने कहा कि मामला एक ही दिन पहले दर्ज हुआ था लिहाजा और सबूत इकट्ठा करने का समय नहीं था। मजिस्ट्रेट ने इंदिरा गांधी को तत्काल मुक्त कर दिया।
इससे अनेक लोगों में यह धारणा बनी कि उन्हें नाहक फंसाया जा रहा था जिस कोशिश को अदालत ने विफल कर दिया।

याद रहे कि आरोप यह था कि चुनाव कार्यों के लिए एक फर्म से बड़ी संख्या में जीपें हासिल की गयी थीं। उस सिलसिले में इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री के रुप में अपने पद का दुरुपयोग किया था। ऐसा नहीं कि सबूत नहीं
थे। पर उन्हें हड़बड़ी में जुटाए नहीं जा सके थे। हड़बड़ी में इस बात का भी ध्यान नहीं रखा गया था कि अभियोजन की ओर से बड़े वकील अदालत में रहने चाहिए थे।

कुल मिलाकर अनेक लोगों की यह धारणा बनी कि बदले की भावना से ही इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया गया था। इसका लाभ 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिला। इंदिरा गांधी दुबारा सत्ता में आ गयी।लगता है कि कांगेस नेशनल हेराल्ड केस के जरिए 1980 दुहराना चाहती है। शायद इसीलिए सोनिया गांधी ने कहा कि मैं इंदिरा गांधी की बहू हूं। पर डा. स्वामी जल्दीबाजी में नहीं रहे। उन्होंने नेशनल हेराल्ड की संपत्ति
को कथित तौर पर हड़पने को लेकर मजबूत केस तैयार किया है। सुब्रह्मण्यम स्वामी के जो आरोप हैं,वे पहली नजर में ही मजिस्ट्रेट को भी मजबूत लगे।

इसको लेकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी तथा कुछ अन्य लोगों पर जो मामले बन रहे हैं, उस पर अनेक लोग विश्वास कर लेंगे, ऐसा संभव है। इसलिए बदले की भावना से नरेंद्र मोदी सरकार पर काम करने का
सिर्फ आरोप लगा देने से कांग्रेसी नेताओं का इस बार काम ंनहीं चलेगा।

केंद्र सरकार ने राहुल गांधी से उस आरोप का सबूत मांगा है जिसके तहत उन्होंने इसके लिए पी.एम.ओ. को दोषी ठहराया है। याद रहे कि सोनिया गांधी ने कहा है कि ‘मैं इंदिरा गांधी की बहू हूं। मैं किसी से नहीं डरती।’ उन्हें किसी से डरने की जरुरत ही नहीं है। उन्हें सिर्फ कोर्ट में जवाब देना है। कोर्ट के प्रति निरादर का भाव कांग्रेस का खास कर नेहरु-गांधी परिवार का पुराना है। 

हाल में भी जब सुप्रीम कोर्ट ने आर.एस.एस.से माफी मांगने का निदेश राहुल गांधी को दिया तो ऐसा करने से राहुल ने मना कर दिया। इससे पहले इमरजंसी में उन चुनाव कानूनों को ही इंदिरा गांधी ने बदलवा दिया था जिसके तहत 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनका चुनाव रद किया था। इतना ही नहीं आपातकाल में इंदिरा गांधी ने संविधान में 39 वें संशोधन के जरिए राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, स्पीकर और प्रधानमंत्री के चुनाव को
अदालती जांच के दायरे से बाहर कर दिया था। पर अब तो आपातकाल नहीं है। अदालतें स्वतंत्र हैं। बदली हुई स्थिति में नेशनल हेराल्ड केस में ट्रायल कोर्ट द्वारा जारी समन को जायज ठहराते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने गत 7 दिसंबर, 2015 को कहा कि ‘सभी आरोपी एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल से जुड़े हैं। उन पर लगे अपराध के आरोप
की गंभीरता को देखते हुए उनके संदिग्ध आचरण की सच्चाई का पता लगाने के लिए जांच जरुरी है।’

याद रहे कि जब सी.बी.आई. ने इंदिरा गांधी को 1977 में गिरफ्तार करके अदालत में हाजिर किया था तो अदालत ने ऐसी कोई बात नहीं कही थी। बल्कि सी.बी.आई. से सबूत मांगा था जिसे जांच एजेंसी तत्काल पेश नहीं कर सकी थी । हालांकि यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि इंदिरा गांधी के खिलाफ सबूत थे ही नहीं। दरअसल तब की राजनीतिक कार्यपालिका को इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करवाने की जल्दीबाजी थी। इसलिए उसे जुटाने से पहले ही इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के लिए सी.बी.आई. को उनके आवास पर भेज दिया गया।

इस पृष्ठभूमि में सोनिया गांधी के यह कहने का कोई अर्थ नहीं है कि ‘मैं इंदिरा गांधी की बहू हैं।’ क्या आज इंदिरा गांधी की कहानी दुहराना संभव है? शायद नहीं। सोनिया गांधी को सी.बी.आई. द्वारा गिरफ्तारी और कोर्ट द्वारा समन भेजे जाने के बीच के फर्क को समझना होगा। कोर्ट के किसी कार्रवाई या आदेश के प्रति आम तौर पर लोगों में सम्मान का भाव रहता है।

बिहार में हाल के वर्षों में कई मामलों में यह देखा गया है कि किसी नेता के खिलाफ जब किसी कोर्ट का आदेश सामने आता है तो उस नेता के प्रभाव क्षेत्र के मतों में से कुछ वोट उनके हाथ से बाहर हो जाते
हैं। कई बार वे चुनाव हार भी जाते हैं।

(09 दिसंबर 2015 )

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