शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

संभव नहीं है आपातकाल का इतिहास मिटाना

   
   इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली आपातकालीन सरकार ने कई मामलों में जेपी आंदोलनकारियों और देश के साथ ऐसा सलूक किया, जैसा व्यवहार सचमुच स्वतंत्रता सेनानियों के साथ अंग्रेजों ने भी नहीं किया था।

   गठबंधन धर्म निभाने के लिए बिहार सरकार ने अपने वेबसाइट से भले तत्संबंधी प्रकरण हटा दिया है, पर वह तो समकालीन इतिहास का अंग बन चुका है। आपातकाल के इतिहास को भला कैसे मिटाया जा सकता है ?

  25 और 26 जून 1975 के बीच की रात में आपातकाल लगाकर नई दिल्ली में जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर लिया गया था।

   उन्हें जब नजरबंदी में चंडीगढ़ में रखा गया तो जेपी ने सरकार से एक मांग की थी। वे चाहते थे कि साथी के रूप में उनके साथ किसी राजनीतिक कैदी को रखा जाये। पर सरकार ने उनकी बात नहीं मानी। जबकि जब जेपी 1942 में जेल में थे तो अंग्रेज सरकार ने उनकी ऐसी ही मांग मान ली थी।

डाॅ. राम मनोहर लोहिया को जेपी के साथ रहने की अनुमति दे दी गयी थी। जेपी की नजरबंदी के समय बंसीलाल हरियाणा के मुख्यमंत्री थे। जानकार लोगों के अनुसार जेपी के साथ बंसीलाल का व्यवहार दुश्मनों जैसा था।

 आपातकाल में देशभर में मीडिया पर कठोर सेंसरशीप लगा दिया गया था। सरकारी विभाग के प्रेस सूचना ब्यूरो से पास कराये बिना कोई भी अखबार छप नहीं सकता था। ऐसा अंग्रेजों के राज में नहीं था। स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा संचालित अखबारों को सिर्फ जमानत देनी पड़ती थी। आपत्तिजनक चीजें छापने पर सरकार जमानत जब्त कर लेती थी।

  अंगेजों के जमाने में अहिंसक राजनीतिक अभियान चलाने की एक सीमा तक छूट थी। पर आपातकाल में सरकार विरोधी दलों की ओर से कोई अहिंसक अभियान भी नहीं चलने दिया जाता था। पहली ही किस्त में करीब सवा लाख नेता और कार्यकर्ता जेलों में ठूंस दिये गये थे। अन्य राजनीतिक लोग बाद में जैसे ही सड़कों पर उतरते थे, उन्हें पकड़कर जेल भेज दिया जाता था।

  आपातकाल में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं की सुनवाई के दौरान एटाॅर्नी जनरल नीरेन डे ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि ‘आपातकाल में संविधान के कई अनुच्छेद स्थगित कर दिये गये हैं। उनमें  अनुच्छेद-21 और 39 ए शामिल हैं। परिणामस्वरूप नागरिकों को अब न्याय के लिए अदालत जाने का कोई अधिकार ही नहीं है। साथ ही लोगों को न तो अब व्यक्तिगत स्वतंत्रता हासिल है और न ही जीने का अधिकार।’ जानकार लोग बताते हैं कि ऐसी क्रूरता अंग्रेजों ने भी नहीं दिखाई थी। इसके अलावा भी आपातकाल की कई बातें थीं।

 इसलिए जहां-जहां आपातकाल का दमन अधिक था, वहां तो 1977 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस लगभग साफ हो गयी। दक्षिण भारत में दमन कम था, इसलिए वहां उसे चुनावी सफलता मिली। पूरे हिंदी भारत से  सिर्फ छिंदवारा सीट से कांग्रेस के कमलनाथ जीत सके थे।

 यह थी आपातकाल के प्रति मतदाताओं की राय। यह और बात थी कि जनता पार्टी के सत्तालोलुप नेताओं ने अपने कार्यकाल के बीच में ही ऐसी स्थिति पैदा कर दी थी कि 1980 में कांग्रेस दुबारा सत्ता में आ गयी।   


 (12 जनवरी, 2016 के दैनिक भास्कर, पटना संस्करण में प्रकाशित)

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