बुधवार, 6 नवंबर 2024

     4 नवंबर, 1974 की याद में 

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जब बौराई पुलिस के लाठी प्रहार से 

जयप्रकाश नारायण मूर्छित हो गये थे

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सुरेंद्र किशोर

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बौराई पुलिस ने 4 नवंबर, 1974 को जयप्रकाश नारायण पर लाठी प्रकार कर उन्हें मूर्छित कर दिया था।

 वहां मौजूद छायाकार सत्यनारायण दूसरे के अनुसार, मूच्र्छित जेपी को सर्वाेदय नेता बाबूराव चन्दावार और समाजवादी युवा नेता रघुपति ने संभाला।

 उससे पहले जेपी पर हुए एक प्रहार को रोकने के लिए उस जीप पर सवार नानाजी ने अपना हाथ आगे कर दिया और उससे नानाजी घायल हो गये।

 उस दिन पटना के आयकर गोलबंर के पास जुलूस के साथ पहुंची जेपी की जीप को इंगित करके पुलिस ने अश्रुगैस का गोला भी मारा था।

वह गोला उस जीप के पास इकट्ठी महिलाओं में से मेरी पत्नी रीता सिंह के सिर पर गिरा।

 उससे वह बुरी तरह झुलस गई।

 बेहोश हो गयी।

 अर्ध सैनिक बल के जवान बेहोश रीता को पास के नाले में फेंकने का उपक्रम कर ही रहे थे कि बिहारी साव लेन (पटना)की आन्दोलनकारी महिला गिरिजा देवी ने

पुलिस से विनती की।

कहा कि यह मेरी बेटी है,इसे छोड़ दीजिए।

उस कारण रीता की जान बची।

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 कल्पना कीजिए, यदि अश्रुगैस का वह गोला उम्र दराज जेपी के सिर पर गिरा होता तो क्या होता ?

मेरी पत्नी लंबे समय तक पटना मेडिकल काॅलेज अस्पताल में

इलाजरत रही थी।

उस घटना में घायलों में नानाजी देशमुख और अली हैदर तथा कुछ अन्य भी उसी अस्पताल में थे।

पुलिस की निर्मम पिटाई से सबसे अधिक घायल बुजुर्ग अली हैदर (गया निवासी) थे जो बाद में बिहार सरकार के मंत्री बने।

जयप्रकाश नारायण घायलों से मिलने दो बार पटना मेडिकल काॅलेज के राजेंद्र सर्जिकल वार्ड गये थे।दोनों बार मेरी पत्नी के बेड के पास भी गये और चिकित्सकों से कहा कि इसके इलाज में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए।

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 सन 1977 में बिहार विधान सभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों के नामों का चयन होने लगा। जेपी ने पूछा--‘‘क्या उस लड़की का आवेदन पत्र नहीं है जिसके सिर पर अश्रु गैस का गोला गिरा था ?’’

याद रहे कि आवेदन पत्र नहीं था।

    गत 5 जून, 2024 को ‘संपूर्ण क्रांति’ दिवस पर जब रीता पटना के कदम कुआं स्थित जेपी मूत्र्ति पर माला चढ़ाने गयी थी तो माननीया तारा सिन्हा ने उससे कहा कि ‘‘रीता, तुम्हें दादा (जेपी) ही टिकट देना चाहते थे । समझो कि तुम एम.एल.ए.बन गयी।’’

तारा सिन्हा डा.राजेंद्र प्रसाद की पोती हैं।

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दरअसल इमरजेंसी (1975-77) में बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र केस के सिलसिले में सी.बी.आई.बेचैनी से मेरी तलाश कर रही थी।मैं मेघालय के फुलबाड़ी (गारो हिल्स जिला)नामक छोटे स्थान में जाकर छिप गया था।

वहां मेरे बहनोई का व्यापार था। वहां गैर कांग्रेसी सरकार थी। इसलिए वहां इमरजेंसी का अत्याचार नहीं था। 

इस बीच हम पति-पत्नी ने तय किया था कि हम दोनों में से कोई एक ही राजनीति में रहेगा,दूसरा घर चलाने के लिए नौकरी करेगा। (क्योंकि उससे पहले एक समाजवादी कार्यकर्ता के रूप में 1966-67 से बाद तक भारी आर्थिक परेशानी और अपमान झेलने पड़े थे।)

सन 1977 के चुनाव से पहले ही बिहार सरकार ने प्राप्तांकों के आधार पर शिक्षकों की बहाली शुरू की।

 रीता उसके तहत सरकारी शिक्षिका बन गयी।

वैसे भी 1977 में उसकी उम्र चुनाव लड़ने लायक यानी 25 साल नहीं हुई थी।

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हालांकि बाद में भी हमने कभी किसी राजनीतिक पद के लिए कभी कोई कोशिश नहीं की।

मैं भी इमरजेंसी हटने के बाद मुख्य धारा की पत्रकारिता जैसे सम्मानजनक तथा प्रभावशाली पेशे से जुड़ गया।

  हालांकि मैं समाजवादी आंदोलन के सिलसिले में 1968 में तिहाड़ जेल मंे रह चुका था। उससे पहले भी गिरफ्तार होता रहा।

डा.लोहिया से प्रभावित होकर में राजनीति में आया था।मुझे लिखी लोहिया की चिट्ठी अब भी मेरे पास है।

तिहाड़ जेल में मेरे साथ के विचाराधीन कैदियों में राजनीति प्रसाद भी थे जो बाद में राज्य सभा के सदस्य बने थे।

  बिहार समाजवादी युवजन सभा का सन 1969 में मैं संयुक्त सचिव चुना गया था।

अन्य दो संयुक्त सचिव थे--लालू प्रसाद और बेगूसराय की शांति देवी।सचिव बने थे शिवानन्द तिवारी।

यह सब मैंने इसलिए लिखा क्योंकि राजनीति और राजनीतिक पद का मोह छोड़ना कठिन तो है,किंतु असंभव नहीं। जहां सम्मान और सच्चाई के साथ जीना संभव न लगे तो उस जगह को छोड़ ही देना चाहिए। 

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एक बात, एक बार फिर

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तब घायल नानाजी देशमुख को देखने अटल बिहारी वाजपेयी पटना आये थे।

उन दिनों मैं दिन में वहीं रहता था और नानाजी के पास जाकर अक्सर बैठा करता था।

अटल जी ने आते ही अस्पताल के रसोई घर में जाकर नाना जी के लिए आॅमलेट बनाया।

यह कोई बड़ी खबर नहीं है।

बड़ी खबर यह है कि उस समय मेरे सहित नानाजी के पास जितने लोग बैठे थे,अटल जी ने सबके लिए बारी- बारी से आॅमलेट बनाया ।और, ला-लाकर हमें हमारे हाथों में दिया।

हमने लाख मना किया।

पर अटल जी हमें आॅमलेट खिला कर ही संतुष्ट हुए।

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4 नवंबर 24

  

 


 अब हम लौट चलें जैविक 

खेती की ओर !!

अन्यथा, हमारे प्राण नहीं बचेंगे।

भ्रष्ट नेता तो विदेशों में जा बसेंगे ! 

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सुरेंद्र किशोर

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कोविड से भारत में 5 लाख 33 

हजार लोग मरे 

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सन 2022 में भारत में कैंसर से करीब 

नौ लाख से भी अधिक लोग मरे।

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कैंसर से मृतकों की संख्या हर साल बढ़ती 

ही जा रही है।

इसके कई कारण हैं।

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पर,सबसे बड़ा कारण हमारे खेतों में खास कर 

पंजाब के खेतों में

रासायनिक खाद और रासायनिक कीटनाशक दवाओं 

का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल है।

दूसरा कारण है लगभग हर खाद्य-भोज्य पदार्थ में भारी मिलावट।

(भटिण्डा से बिकानेर के बीच जो एक ट्रेन चलती है उसे ‘‘कैंसर मेल ’’ कहते हैं।

क्योंकि उसमें बड़ी संख्या में कैंसर मरीज होते हैं।

बिकानेर में जैनियों का कैंसर अस्पताल है जहां कैंसर का मुफ्त इलाज होता है।जबकि, पंजाब में भी कई कैंसर अस्पताल खोलने पड़े हैं।)

पंजाब में मंडी के दलाल और अढ़तिया किसानों को भारी एडवांस दे -देकर बड़ी मात्रा में खेतों में रासायनिक खाद-कीटनाशक डलवाते हैं ताकि उपज अधिक हो और उनका मुनाफा बढ़े। 

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आजादी के बाद की ‘हरित क्रांति’ का इस विपत्ति में  

बड़ा योगदान है।

अधिक उपज लेने के चक्कर में खेतों में केमिकल जहर फैलाने का काम सरकारी प्रोत्साहन से तभी शुरू हो गया था।अधिक उपज के लिए इसके बदले देश में सिंचाई का व्यापक प्रबंध करना चाहिए था।

 बिहार के एक बड़े कांगे्रसी नेता जगलाल चैधरी, जो देसी सोच वाले थे,साठ के दशक में हमारे गांव में भी आकर किसानों से विनम्र निवेदन कर रहे थे कि आप लोग रासायनिक खाद का इस्तेमाल न करें।

यह जानलेवा है।आपकी मिट्टी बर्बाद हो जाएगी।मैंने भी उन्हें ऐसा कहते हुए सुना और देखा था।

(नतीजा सामने है-इन दिनों दक्षिण भारतीय सद्गुरु मिट्टी बचाओ अभियान चला रहे हैं।जिस तरह आॅक्सीटोसिन इंजेक्सन का बुरा असर दुधारू पशु के स्वास्थ्य और उस दूध के उपभोक्ताओं के शरीर पर पड़ता है,उसी तरह रासायनिक खाद का कुप्रभाव खेत की मिट्टी और उस फसल के उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है।)

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 आजादी के तत्काल बाद की हमारी सरकार तो अपनी अदूरदर्शिता के कारण 

हमारे देश के खेतों में क्षणिक लाभ के लिए जहर बोने पर अमादा थी।उन नेताओं का ‘‘मिट्टी’’ से कोई लगाव नहीं था।

याद रहे कि जगलाल चैधरी सन 1937 के बिहार मंत्रिमंडल के कुल चार कैबिनेट मंत्रियों में से एक थे।उस सरकार में जगजीवन राम संसदीय सचिव थे।

जगलाल चैधरी ने जब गांधी जी के प्रभाव में आकर अपनी पढ़ाई छोड़ी थी, तब वे कलकत्ता मेडिकल काॅलेज के चैथे वर्ष के छात्र थे।यानी वे पढ़े-लिखे गांधीवादी थे।

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दूसरी ओर,उन्हीं दिनांे अमेरिका में क्या हो रहा था ?

 वहां के लोग रासायनिक खाद 

के कटु अनुभव भुगतने के बाद जैविक खेती की ओर लौट रहे थे।

साठ दशक में मैंने आचार्य रजनीश (तब तक वे ओशो नहीं बने थे।)का भाषण सुना था।

वे कह रहे थे कि अमेरिका की दुकानों पर जो अनाज बिकता है,उसमें से कुछ पर यह लिखा रहता है -‘‘यह जैविक खाद के जरिए उपजाया गया है।’’

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आजादी के तत्काल बाद हमारी सरकार ने टाटा कंपनी की हवाई जहाज सेवा का अधिग्रहण कर लिया था।

पर,जब ‘‘भ्रष्टों की मेहरबानी’’ से सरकारी हवाई सेवा का घाटा बेशुमार बढ़ने लगा तो फिर वह सेवा, टाटा को सौंप दी गयी है।

सार्वजनिक उद्योगों के कभी प्रबल समर्थक व निजी उद्योगों के दुश्मन सी.पी.एम. सरकार को भी बंगाल में अपने रुख से पलटना पड़ा था।

  सी.पी.एम.सरकार ने कलकत्ता के विशाल ग्रेट ईस्टर्न होटल को निजी कंपनी के हाथों बेच दिया।

नन्दीग्राम में उद्योग लगाने के लिए टाटा को जमीन देने का उपक्रम सी.पी.एम.सरकार ने ही किया था।

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टाटा की ओर तो हम लौट गये,पर पूर्ण जैविक खेती की ओर कब लौटेंगे ?

साबित हो चुका है कि भ्रष्ट सरकारी तंत्र से सार्वजनिक उद्योग चलना संभव नहीं है।

सौ सरकारी पैसों में से 85 पैसे तो बिचैलियों को ही चाहिए थे ! यह जरूर है कि अब रेट थोड़ा कम हुआ है।

मानवता को बचाने के लिए न सिर्फ जैविक खेती की ओर लौटना ही पड़ेगा,बल्कि अलग से ‘‘मिलावट निरोधक मंत्रालय’’ भी बनाना पड़ेगा जो हर दिन सिर्फ मिलावट के राक्षसों से जनता के प्राण बचाने का काम करे।

अभी तो सिर्फ पर्व-त्योहारों के समय ही दिखावटी छापामारियां होती हैं।

 आम लोगों को कैंसर तथा अन्य मर्जों से बचाने के लिए मिलावटखोरों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान जल्द से जल्द करना ही पड़ेगा।

क्योंकि आज बाजार में शायद ही कोई खाद्य या भोज्य पदार्थ ऐसा है जो मिलावट खोर दानवों 

 की गिरफ्त में नहीं है।

अधिकतर घूसखोर खाद्य निरीक्षक गण पैसे के सामने अपनी भी अगली पीढ़ियों के स्वास्थ्य व जानमाल को रोज -रोज दांव पर लगा रहे हैं।

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 पुनश्चः

इस अभागे देश में हद तो यह हो चुकी है कि 

आज के वोट लोलुप राजनीतिक राक्षस गण, यह 

भी नहीं चाहते कि थूक -पेशाब मिश्रित भोज्य पदार्थों के खिलाफ भी कोई नेता या सामाजिक कार्यकर्ता 

आवाज उठाये या कदम उठाये !

वे चाहते हैं कि आम जनता जीवन काल में ही नरक भोगती  रहे और उन्हें थोक में वोट मिलते रहे। 

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6 नवंबर 24


शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

 उनके न रहने पर इंदिरा जी को 

ऐसे याद किया था खुशवंत सिंह ने -----------------------

‘‘सत्ता की राजनीति के खेल में श्रीमती (इंदिरा)गांधी कोई मर्यादा का पालन करने में विश्वास नहीं करती थीं’’

           ----  खुशवंत सिंह

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सन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद लेखक सह 

 पत्रकार खुशवंत सिंह ने लंबा लेख लिखा था।

साप्ताहिक ‘रविवार’ (11 नवंबर 1984 ) में प्रकाशित उस लेख

का एक अंश यहां प्रस्तुत है।

‘‘एक बार मैं बाबू जगजीवन राम के एक समर्थक के दूत के रूप में इंदिरा गांधी (पूर्व प्रधान मंत्री) के पास गया था।

मेरा उद्देश्य मेनका पर इस बात के लिए दबाव डालना था कि वह (मेनका गांधी के संपादकत्व में प्रकाशित मासिक पत्रिका )‘सूर्या’ में एक कालेज की लड़की के साथ सुरेश राम (जगजीवन राम के पुत्र)के नग्न चित्र न छापें।मैं नहीं जानता था कि इन गंदे चित्रों की बात कैसे शुरू करूं।मैं उन्हें अपने आने का उद्देश्य बताना शुरू ही किया था (यह 12 ,विलिंगटन क्रीसेंट की बात है)कि उन्होंने कहा,‘यहां नहीं बाहर आइए।’जाहिर है कि उन्हें यह लग रहा था कि उनके कमरे में बातचीत सुनने की मशीनें बिठाई गई थीं।(तब मोरारजी देसाई की केंद्र में सरकार थी)

 हम बाहर बगीचे में चले आये और हमने सुरेश राम के लघु पापों की चर्चा की।

 श्रीमती गांधी ने सारे चित्र देख रहे थे,मुझे उम्मीद थी कि शालीन महिला के रूप में वे इन चित्रों को छापना घृणित मानेंगी,लेकिन उन्होंने तस्वीरों को छापने के लिए मेनका को अपनी अनुमति दे दी थी।

  उन्होंने मुझे कहा कि ‘‘इस आदमी जगजीवन राम ने मेरे परिवार और संजय का जितना नुकसान किया है,उतना किसी और ने नहीं।

 उसे इसकी सजा मिलती है तो मिले।’’

कुल मिलाकर सत्ता की राजनीति के खेल में श्रीमती गांधी कोई मर्यादा का पालन करने में विश्वास नहीं करती थीं।

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(सरदार खुशवंत सिंह अपने ढंग के प्रभावशाली व्यक्ति थे।

उन्हें जो ठीक लगता था,वे लिखते थे।मैंने अपने निजी लाइब्रेरी में सूर्या की फाइल आज एक बार फिर देखी।पता चला कि  मेनका गांधी की पत्रिका सूर्या के प्रिंटलाइन में सलाहकार संपादक के रूप में खुशवंत सिंह का नाम पहले छपता था।

बाद में उनका नाम छपना बंद हो गया।

प्रधान मंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी ने सरदार जी को राज्य सभा का सदस्य मनोनीत कराया।संजय गांधी ने उन्हें एक बहुत बड़े अखबार का संपादक बनवाया।पर,सी.पी.आई.के राज्य सभा सदस्य भूपेश गुप्त ने खुशवंत सिंह को इंदिरा गांधी का चमचा कहा।

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सरदार जी ने ठीक ही लिखा है कि इंदिरा जी सत्ता की राजनीति में मर्यादा का ख्याल नहीं रखती थीं।

उसका सबसे बड़ा उदाहरण था--आपातकाल(1975-77)।

इंदिरा जी ने सिर्फ अपनी लोक सभा सीट बचाने के लिए पूरे देश को एक बड़े जेलखाने में बदल दिया था।

जेपी सहित सारे पतिपक्षी नेताओें सहित एक लाख से भी अधिक लोगों को जेलों में बंद कर दिया।

लोगों के जीने का अधिकार भी छीन लिया।

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एक बात और

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इंदिरा जी का जगजीवन बाबू पर अति गुस्सा अकारण था।

  शायद इंदिरा जी को लगता था कि 1977 में लोस चुनाव की घोषणा के बाद जगजीवन राम ने अचानक कांग्रेस छोड़

दी,इसीलिए जनता पार्टी के पक्ष में चुनावी

 हवा बन गई।मोरारजी की सरकार बन गयी।उस सरकार में इंदिरा और संजय को कानूनी परेशानियों का सामना करना पड़ा था।

यदि उनकी यह धारणा थी तो वह गलत थी।

सरजमीन की हकीकत यह थी कि 1977 में जगजीवन बाबू की समधिन सुमित्रा देवी बिहार में लोक सभा चुनाव हार गयी। 

वह बलिया से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़ी थीं और जगजीवन बाबू ने बेगूसराय की चुनाव सभा में उनकी उम्मीदवारी की भी चर्चा की थी।हालांकि चर्चा करते ही सभा में हंगामा हो गया था।

मैं उन दिनों संवाददाता था।बिहार में कार्यरत था।मेरा मानना है कि जगजीवन बाबू कांग्रेस में रह गये होते तो वे भी चुनाव हार जाते।

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1 नवंबर 24