उनके न रहने पर इंदिरा जी को
ऐसे याद किया था खुशवंत सिंह ने -----------------------
‘‘सत्ता की राजनीति के खेल में श्रीमती (इंदिरा)गांधी कोई मर्यादा का पालन करने में विश्वास नहीं करती थीं’’
---- खुशवंत सिंह
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सन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद लेखक सह
पत्रकार खुशवंत सिंह ने लंबा लेख लिखा था।
साप्ताहिक ‘रविवार’ (11 नवंबर 1984 ) में प्रकाशित उस लेख
का एक अंश यहां प्रस्तुत है।
‘‘एक बार मैं बाबू जगजीवन राम के एक समर्थक के दूत के रूप में इंदिरा गांधी (पूर्व प्रधान मंत्री) के पास गया था।
मेरा उद्देश्य मेनका पर इस बात के लिए दबाव डालना था कि वह (मेनका गांधी के संपादकत्व में प्रकाशित मासिक पत्रिका )‘सूर्या’ में एक कालेज की लड़की के साथ सुरेश राम (जगजीवन राम के पुत्र)के नग्न चित्र न छापें।मैं नहीं जानता था कि इन गंदे चित्रों की बात कैसे शुरू करूं।मैं उन्हें अपने आने का उद्देश्य बताना शुरू ही किया था (यह 12 ,विलिंगटन क्रीसेंट की बात है)कि उन्होंने कहा,‘यहां नहीं बाहर आइए।’जाहिर है कि उन्हें यह लग रहा था कि उनके कमरे में बातचीत सुनने की मशीनें बिठाई गई थीं।(तब मोरारजी देसाई की केंद्र में सरकार थी)
हम बाहर बगीचे में चले आये और हमने सुरेश राम के लघु पापों की चर्चा की।
श्रीमती गांधी ने सारे चित्र देख रहे थे,मुझे उम्मीद थी कि शालीन महिला के रूप में वे इन चित्रों को छापना घृणित मानेंगी,लेकिन उन्होंने तस्वीरों को छापने के लिए मेनका को अपनी अनुमति दे दी थी।
उन्होंने मुझे कहा कि ‘‘इस आदमी जगजीवन राम ने मेरे परिवार और संजय का जितना नुकसान किया है,उतना किसी और ने नहीं।
उसे इसकी सजा मिलती है तो मिले।’’
कुल मिलाकर सत्ता की राजनीति के खेल में श्रीमती गांधी कोई मर्यादा का पालन करने में विश्वास नहीं करती थीं।
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(सरदार खुशवंत सिंह अपने ढंग के प्रभावशाली व्यक्ति थे।
उन्हें जो ठीक लगता था,वे लिखते थे।मैंने अपने निजी लाइब्रेरी में सूर्या की फाइल आज एक बार फिर देखी।पता चला कि मेनका गांधी की पत्रिका सूर्या के प्रिंटलाइन में सलाहकार संपादक के रूप में खुशवंत सिंह का नाम पहले छपता था।
बाद में उनका नाम छपना बंद हो गया।
प्रधान मंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी ने सरदार जी को राज्य सभा का सदस्य मनोनीत कराया।संजय गांधी ने उन्हें एक बहुत बड़े अखबार का संपादक बनवाया।पर,सी.पी.आई.के राज्य सभा सदस्य भूपेश गुप्त ने खुशवंत सिंह को इंदिरा गांधी का चमचा कहा।
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सरदार जी ने ठीक ही लिखा है कि इंदिरा जी सत्ता की राजनीति में मर्यादा का ख्याल नहीं रखती थीं।
उसका सबसे बड़ा उदाहरण था--आपातकाल(1975-77)।
इंदिरा जी ने सिर्फ अपनी लोक सभा सीट बचाने के लिए पूरे देश को एक बड़े जेलखाने में बदल दिया था।
जेपी सहित सारे पतिपक्षी नेताओें सहित एक लाख से भी अधिक लोगों को जेलों में बंद कर दिया।
लोगों के जीने का अधिकार भी छीन लिया।
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एक बात और
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इंदिरा जी का जगजीवन बाबू पर अति गुस्सा अकारण था।
शायद इंदिरा जी को लगता था कि 1977 में लोस चुनाव की घोषणा के बाद जगजीवन राम ने अचानक कांग्रेस छोड़
दी,इसीलिए जनता पार्टी के पक्ष में चुनावी
हवा बन गई।मोरारजी की सरकार बन गयी।उस सरकार में इंदिरा और संजय को कानूनी परेशानियों का सामना करना पड़ा था।
यदि उनकी यह धारणा थी तो वह गलत थी।
सरजमीन की हकीकत यह थी कि 1977 में जगजीवन बाबू की समधिन सुमित्रा देवी बिहार में लोक सभा चुनाव हार गयी।
वह बलिया से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़ी थीं और जगजीवन बाबू ने बेगूसराय की चुनाव सभा में उनकी उम्मीदवारी की भी चर्चा की थी।हालांकि चर्चा करते ही सभा में हंगामा हो गया था।
मैं उन दिनों संवाददाता था।बिहार में कार्यरत था।मेरा मानना है कि जगजीवन बाबू कांग्रेस में रह गये होते तो वे भी चुनाव हार जाते।
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1 नवंबर 24
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