नेहरू के जन्म दिन (14 नवंबर) पर
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आज इस देश के कितने लोग अपनी सुख-सुविधाएं छोड़कर
सिर्फ जन सेवा के लिए (कुर्सी के लिए नहीं)सक्रिय राजनीति में खुद को झांेक दे रहे हैं ?!!
अत्यंत विरल।
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सुरेंद्र किशोर
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किंतु जवाहरलाल नेहरू ने जालियांवाला बाग नर संहार (1919)की हृदय विदारक घटना से क्षुब्ध होकर उसके तत्काल बाद आजादी की लड़ाई में कूद कर देशहित में खुद के
अनिश्चिंतता के भंवर डाल दिया था।
1919 में कितने लोगों को यह उम्मीद थी कि अंग्रेज कभी भारत छोड़ेंगे और हमें राजपाट करने का
अवसर मिल जाएगा ?
बहुत ही कम लोगों को।
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नेहरू की उसी भूमिका को लेकर उनके आलोचक डा.राम मनोहर लोहिया ने उनके निधन (1964) पर कहा था--
‘‘1947 के पहले के नेहरू को मेरा सलाम !’’
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यह और बात है कि प्रधान मंत्री के रूप में जवाहरलाल नेहरू विफल साबित हुए।यह सिर्फ मेरी नहीं,बल्कि आज की पीढ़ी की भी राय है।
इसीलिए गत साल ‘‘इंडिया टूडे’’ ने लोगों से जब यह पूछा कि अब तक के इस देश के किस प्रधान मंत्री को आप सबसे अच्छा प्रधान मंत्री मानते हैं तो सिर्फ पांच प्रतिशत लोगों ने नेहरू के पक्ष में अपनी राय दी।
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इसके बावजूद नेहरू के बारे में खास कर उनके जीवन के कुछ खास वर्षों के बारे में जो बातें स्मरणीय-प्रेरणादायक हैं ,उनकी चर्चा जरूरी है।शायद उससे आज की (अपवादों को छोड़कर) भौतिकवादी पीढ़ी को कुछ प्रेरणा मिले !
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उस भीषण नर संहार से पहले भी आजादी की लड़ाई में वह शामिल होना चाहते थे।पर,उनके पिता मोतीलाल नेहरू के मना करने पर वे मान गये थे।
तब मोतीलाल नेहरू की राय थी कि
‘‘मुट्ठी भर लोगों के जेल चले जाने से देश गुलामी से मुक्त नहीं हो सकता।’’
जवाहर की बहन कृष्णा हठी सिंह ने लिखा है कि ‘‘जवाहर के आजादी की लड़ाई में शामिल होने से
हमारे परिवार का जीवन प्रवाह ही बदल गया।
जालियां वाला बाग की दर्दनाक घटना के बाद आजादी की लड़ाई में शामिल होने को लेकर परिवार की दुविधा समाप्त हो गई थी।’’
एक नरंसहार के कारण जवाहर लाल नेहरू जैसे शानदार और जानदार नेता आजादी की लड़ाई के लिए मिल गया।
नेहरू ने अपना सुखमय जीवन छोड़कर अनिश्चितता के भंवर में खुद को डाल दिया था।इस देश में त्याग करने वालों कोे सम्मान की नजर से देखा जाता है।
नेहरू तब युवकांे के हृदय सम्राट थे।उनसे प्रेरणा लेकर न जाने कितने नौजवान आजादी की लड़ाई में शामिल हुए होंगे। कोई व्यक्ति अपना सुखमय जीवन छोड़कर सिर्फ देश के भले के लिए (न कि अपना घर भरने के लिए)खुद को राजनीतिक अनिश्चितता के भंवर में डाल दे,यह बात आज विरल है।
आज इस देश के अधिकतर लोग सत्ता-पैसा-धाक के लिए ही राजनीति ज्वाइन कर रहे हैं।
आज तो एक पार्टी से जब उनका स्वार्थ साधन नहीं होता है तो वे तुरंत दूसरी पार्टी में शामिल हो जाते हैं।
हाल के दशकों में उच्च सदनों के कितने निवर्तमान सदस्य रहे हैं जिन्हें यदि अगली बार भी पार्टी ने टिकट नहीं दिया तो भी वे उसी दल में जमे रह गये ?!
वैसे भी आज देश की राजनीति का महत्वपूर्ण स्थान वंशवादियों और परिवारवादियों से भरता जा रहा है।कुछ अयोग्य वंशजों के कारण तो खुद वैसी वंशवादी-परिवारवादी पार्टियां भी बर्बाद होती जा रही हैं।
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लगे हाथ बता दूं कि राजनीति में वंशवाद -परिवारवाद की नींव खुद मोतीलाल नेहरू ने 1928-29 में डाली थी जब उन्होंने महात्मा गांधी पर भारी दबाव बनाकर(मोतीलाल नेहरू पेपर्स इसका गवाह है)
1929 में अपने पुत्र को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवा दिया।
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14 नवंबर 24
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