रविवार, 29 मार्च 2009

काश, ऐसा पहले हुआ होता

बसपा ने उत्तर प्रदेश में इस बार 80 में से बीस लोस चुनाव क्षेत्रों में ब्राह्मण उम्मीदवार खड़ा कराए हैं। इससे पहले बड़े अफसरों की पोस्टिंग में भी बसपा सरकार ने जितनी संख्या में ब्राह्मणों को जगह दी, उतनी वहां शायद कभी ब्राह्मण मुख्य मंत्रियों के शासन काल में भी नही दी गई थी। याद रहे कि सन् 1931 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की जनसंख्या कुल आबादी का 4.32 प्रतिशत थी। सन् 1931 में अंतिम बार इस देश में जाति के आधार पर जन गणना हुई थी। आजादी के बाद ऐसी गणना पर रोक लगा दी गई। यानी आजादी के बाद कांग्रेस ने ब्राह्मण-दलित गठबंधन जरूर बनाया, पर दलितों को ‘सत्ता’ में वाजिब हिस्सेदारी नहीं दी। इसी कारण उत्तर प्रदेश में कांसीराम - मायावती उभरे। आज जब मायावती ने दलित-ब्राह्मण गठजोड़़ बनाया, तो ब्राह्मणों की बन आई। उन्हें मायावती ने जगह दी। यह काम अच्छा हुआ या बुरा, इस पर विवाद हो सकता है। पर राजनीतिक चतुराई की दृष्टि से देखिए, तो मायावती, आजादी के तत्काल बाद के सत्ताधारी कांग्रेसी नेताओं की अपेक्षा अधिक चतुर-चालाक और दूरदृष्टि वाली निकलीं। अब वह देश के सबसे बड़े प्रदेश में सत्ता की सबसे बड़ी कुर्सी पर हैं।

अब गाड़ी पर नाव
ब्राह्मण कभी कमांडिंग पोजिशन में हुआ करते थे, पर आज वे उत्तर प्रदेश में एक दलित नेत्री की कमांड में हैं। अन्य कुछ प्रदेशों में भी ब्राह्मणों का झुकाव बसपा की ओर है। हालांकि भाजपा द्वारा एक गैर ब्राह्मण को ‘प्रतीक्षारत प्रधान मंत्री’ घोषित कर दिए जाने के बाद अब अन्य राज्यों में ब्राह्मणों का आकर्षण कांग्रेस के प्रति भी बढ़ सकता है, जैसा कि दिल्ली विधान सभा के गत चुनाव में हुआ। काश, कांग्रेस के ब्राह्मण नेतृत्व ने आजादी के तत्काल बाद से ही दलित सहित समाज के अन्य जातीय समूहों को उनके वाजिब राजनीतिक तथा दूसरे हक दिए होते ! यदि कांग्रेस ने तब जातीय उदारता दिखाई होती तो आज मायावती जैसी नेत्री नहीं उभरतीं जिनकी राजनीतिक शैली में शालीनता, नैतिकता, शुचिता और विनम्रता के लिए कोई जगह ही नहीं है। ऐसी नेत्री समय के साथ अधिक ताकतवर बनती जाएं, यह इस देश के लिए कोई शुभ बात नहीं है।दलितों में से ही ऐसे नेता उभरते तो देश और दलितों के लिए भी अच्छा होता जिनमें शालीनता और नैतिकता के तत्व अधिक हांे। कुल मिलाकर आज यही लगता है कि अब भी कांग्रेस में अन्य अधिकतर राजनीतिक दलों की अपेक्षा लोक लाज कुछ अधिक ही बची हुई है। अपने निधन के कुछ समय पहले मधु लिमये जैसे कट्टर लोहियावादी व कांग्रेसविरोधी समाजवादी नेता भी इस नतीजे पर पहुंचे थे कि इस देश को ‘सुधरी हुई कांग्रेस’ ही ठीक से चला सकती है। जो बात यहां उत्तर प्रदेश के लिए कही गई है,उसी तरह की बात बिहार के लिए भी कही जा सकती है।

गरीबी नहीं है चुनावी मुद्दा
भारत के करीब 84 करोड़ लोग औसतन 20 रुपए रोजाना की आय पर किसी तरह अपना गुजारा कर रहे हैं। जिस देश की ऐसी स्थिति हो, वह देश ज्वालामुखी के मुहाने पर ही खड़ा देश माना जाता है। इस देश के करीब 72 प्रतिशत अभागे लोग तो अफ्रीका के निर्धनत्तम देशों जैसी गरीबी झेलने को अभिशप्त हैं। इसके बावजूद क्या ‘गरीबी उन्मूलन’ इस लोक सभा चुनाव का मुद्दा है ? गरीबी मुख्य मुद्दा बनेगी भी तो कैसे ? आज संसदीय राजनीति करने वाले कितने लोग सचमुच गरीब हैं या फिर गरीबों के सच्चे प्रतिनिधि हैं ? लगभग सभी दल हाल के वर्षों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से केंद्र या राज्यों में सत्ता संभाल चुके हैं। संभाल भी रहे हैं। अपने कार्यकाल में कितने दलों और नेताओं ने गरीबी उन्मूलन के लिए वास्तव में कोई काम किया ? यानी कुल मिलाकर स्थिति यह है कि जो लोग आज चुनाव लड़ रहे हैं,उनमें से अधिकतर नेतागण उन 84 करोड़ लोगों के सच्चे प्रतिनिधि तो कत्तई नहीं हैं।

और अंत में
लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया और मनोज कुमार ने उस नारे पर फिल्म बनाई। अब गुलजार -रहमान ने ‘जय हो’ गाया और कांग्रेस ने उसे अपना चुनावी नारा बनाया।

प्रभात खबर (23/03/2009)

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