तब और अब में
फर्क राजतंत्र की कई कमजोरियां थीं। पर, एक बात अच्छी थी। राजा अपने पुत्र को राज चलाने की उचित ट्रेनिंग दिलवाता था। साथ ही वह अपने ही राज की संपत्ति को निजी फायदे के लिए ऐसे नहीं लूटता था, जिस तरह इन दिनों इस देश के कई नेता लूट रहे हैं। वह आम तौर पर अच्छा- भला राज, अपने वंशज को सौंपकर मरता था। वह राज की जन- धन की, अपनी निजी संपत्ति की तरह ही, रक्षा करता था। यहां तक कि वह पशु, पक्षी, वृक्ष व वनस्पतियों की भी रक्षा की शपथ लेता था। वह अपनी जान देकर भी अपनी सीमाओं की रक्षा करता था। क्योंकि उसे भरोसा था कि उसी के खानदान को तो बाद में इसे चलाना है। पर, लोकतंत्र में तो सरकार का अधिकतर मुखिया न सिर्फ बाहरी हमलों के प्रति लापारवाह हैं, बल्कि जनता के पैसे को लूट कर अपने घर भर ले रहे हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि अगले चुनाव में तो जनता पता नहीं उन्हें हराएगी कि जिताएगी।हालांकि वह यह भी जानता है कि अगली जो सरकार बनेगी, वह भी पांच साल में अलोकप्रिय हो जाएगी। फिर तो सत्ता हमारे पास ही लौटकर आएगी। जनता के पास कोई तीसरा विकल्प है भी नहीं। तब तक यानी पांच साल में मतदाता हमारे पुराने कुकर्मों को भूल जाएंगे। या मौजूदा शासक का कुकर्म जनता के दिलो दिमाग पर हमारे कुकर्मों की अपेक्षा भारी पड़ जाएगा। यही बारी -बारी से अनंतकाल तक चलता रहेगा। और जनता की संपत्ति नेताओं के घरों में जमा होती रहती है। राज तंत्र में ऐसा नहीं था। अपवाद की बात और है। राजतंत्र की कई बुराइयां थीं। इसीलिए उसका अंत भी हुआ। अंत जरूरी भी था। पर उन बुराइयों की अपेक्षा मौजूदा लोकतंत्र-सह-राजतंत्र की बुराइयां भारी पड़ने लगेंगीं, तब यह व्यवस्था भी पूरी तरह फेल कर जाएगी। तब क्या होगा, उसके बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। हां, उस स्थिति की कल्पना खानदानवादियों को आज नहीं है। और अंत में
सेंट्रल काॅपरेटिव बैंक और स्टेट काॅपरेटिव बैंक जैसे सभी शीर्ष सहकारी संस्थानों के कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की उम्र अनठावन से बढ़ा कर सरकारी नियमानुसार साठ कर दी गई। पर, बिहार भूमि विकास बैंक के कर्मचारी अब भी 58 साल की उम्र में ही रिटायर कर दिए जा रहे हैं।प्रभात खबर (09 फरवरी, 2009)
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