रविवार, 1 मार्च 2009

लोकतंत्र -सह -राजतंत्र

मिश्रित अर्थव्यवस्था के साथ- साथ इन दिनों भारत में ‘मिश्रित शासन- व्यवस्था’ भी चल रही है। यानी लोकतंत्र -सह -राज तंंत्र के यहां एक साथ दर्शन हो रहे हैं। अगले लोकसभा चुनाव में एक बार फिर इस ‘डाइनेस्टिक डेमोक्रेसी’ का और भी नंगा स्वरूप सामने आनेवाला है। यानी लोकतंत्र पर खानदान-तंत्र हावी होता जा रहा है। इसके अनेक नुकसान भी सामने आ रहे हैं। भले हर पांच साल पर जनता वोट डालती हैं, पर इस देश के कई राजनीतिक दलों में पहले से ही यह तय हो चुका होता है कि सत्ता मिलने पर उन दलों से प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के पद पर उन खास खानदानों के ही व्यक्ति बैठेंगे, चाहे उनमें शासन चलाने की कोई भी योग्यता हो या नहीं। किसी नेता के परिवार के कोई सदस्य राजनीति में आएं, इसमें किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए। पर, क्या उस नेता के परिवार का सदस्य उसी ऊंची कुर्सी पर बैठे, जिस कुर्सी पर उनके पूर्वज बैठ चुके हैं ? अनुभव हासिल करने के लिए उससे नीचे की कुर्सी पर क्यों नहीं ? पर इतना भी खानदानवादियों को मंजूर नहीं है। आजादी के बाद यहां मिश्रित अर्थव्यवस्था शुरू की गई थी। इस मिश्रित अर्थव्यवस्था ने भी इस गरीब देश का भला नहीं किया। क्या मिश्रित शासन व्यवस्था इस देश का भला कर पाएगी ? लगता तो नहीं है। इस मिश्रित शासन व्यवस्था की अपनी खामियां हैं। हाल के वर्षों में वे खामियां खुल कर सामने आ चुकी हैं। इसलिए यह मिश्रित राजनीतिक व्यवस्था भी इस देश में फेल करने ही वाली हैे। वैसे फेल कर भी रही है।इससे देश को भारी नुकसान हो रहा है तथा भविष्य में और अधिक नुकसान होनेवाला है। क्योंकि वंशज को किसी महत्वपूर्ण पद पर बैठाने के लिए उसकी योग्यता, क्षमता, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठता या राष्ट्रनिष्ठा पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इस देश की राजनीति में कुछ दलों के नेताओं के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे न तो गांधीवाद में विश्वास रखते हैं और न समाजवाद में। उनका विश्वास न लोहियावाद में है और न ही आंबेडकरवाद में, बल्कि उनका विश्वास सिर्फ खानदानवाद में है।

तब और अब में
फर्क राजतंत्र की कई कमजोरियां थीं। पर, एक बात अच्छी थी। राजा अपने पुत्र को राज चलाने की उचित ट्रेनिंग दिलवाता था। साथ ही वह अपने ही राज की संपत्ति को निजी फायदे के लिए ऐसे नहीं लूटता था, जिस तरह इन दिनों इस देश के कई नेता लूट रहे हैं। वह आम तौर पर अच्छा- भला राज, अपने वंशज को सौंपकर मरता था। वह राज की जन- धन की, अपनी निजी संपत्ति की तरह ही, रक्षा करता था। यहां तक कि वह पशु, पक्षी, वृक्ष व वनस्पतियों की भी रक्षा की शपथ लेता था। वह अपनी जान देकर भी अपनी सीमाओं की रक्षा करता था। क्योंकि उसे भरोसा था कि उसी के खानदान को तो बाद में इसे चलाना है। पर, लोकतंत्र में तो सरकार का अधिकतर मुखिया न सिर्फ बाहरी हमलों के प्रति लापारवाह हैं, बल्कि जनता के पैसे को लूट कर अपने घर भर ले रहे हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि अगले चुनाव में तो जनता पता नहीं उन्हें हराएगी कि जिताएगी।हालांकि वह यह भी जानता है कि अगली जो सरकार बनेगी, वह भी पांच साल में अलोकप्रिय हो जाएगी। फिर तो सत्ता हमारे पास ही लौटकर आएगी। जनता के पास कोई तीसरा विकल्प है भी नहीं। तब तक यानी पांच साल में मतदाता हमारे पुराने कुकर्मों को भूल जाएंगे। या मौजूदा शासक का कुकर्म जनता के दिलो दिमाग पर हमारे कुकर्मों की अपेक्षा भारी पड़ जाएगा। यही बारी -बारी से अनंतकाल तक चलता रहेगा। और जनता की संपत्ति नेताओं के घरों में जमा होती रहती है। राज तंत्र में ऐसा नहीं था। अपवाद की बात और है। राजतंत्र की कई बुराइयां थीं। इसीलिए उसका अंत भी हुआ। अंत जरूरी भी था। पर उन बुराइयों की अपेक्षा मौजूदा लोकतंत्र-सह-राजतंत्र की बुराइयां भारी पड़ने लगेंगीं, तब यह व्यवस्था भी पूरी तरह फेल कर जाएगी। तब क्या होगा, उसके बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। हां, उस स्थिति की कल्पना खानदानवादियों को आज नहीं है।

और अंत में
सेंट्रल काॅपरेटिव बैंक और स्टेट काॅपरेटिव बैंक जैसे सभी शीर्ष सहकारी संस्थानों के कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की उम्र अनठावन से बढ़ा कर सरकारी नियमानुसार साठ कर दी गई। पर, बिहार भूमि विकास बैंक के कर्मचारी अब भी 58 साल की उम्र में ही रिटायर कर दिए जा रहे हैं।
प्रभात खबर (09 फरवरी, 2009)

कोई टिप्पणी नहीं: