रविवार, 29 मार्च 2009

बेहतर उम्मीदवारों को जिताने की जिम्मेदारी अब मतदाताओं पर

अब गेंद एक बार फिर मतदाताओं के ही पाले में है। इस देश के नेताओं और दलों ने एक बार फिर अपना ही सर्वदलीय वादा भुला दिया है। आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर सन् 1997 में संसद के भीतर देश से यह सर्वदलीय वादा किया गया था कि ‘राजनीति का अपराधीकरण और भ्रष्टाचार का खात्मा किया जाएगा।’ पर अब जब विभिन्न दलों ने अपने भंाति- भांति के उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारने शुरू कर दिए हंै तो उन उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि से यह साफ हो गया है कि राजनीतिक दलों ने अपना वादा एक बार फिर तोड़ दिया है। पर अभी जनता का फैसला बाकी है। सन् 1997 की अपेक्षा आज देश के सामने राजनीति के अपराधीकरण और भष्टीकरण की समस्या और भी गंभीर हुई है। सन् 1997 में लोक सभा में बाहुबलियों की संख्या मात्र 40 थी। निवर्तमान लोक सभा में उनकी संख्या बढ़कर सौ से अधिक हो चुकी थी। शासन में भ्रष्टाचार बढ़ा है।इस बार जिस तरह विभिन्न राजनीतिक दल उदारतापूर्वक बाहुबलियों और माफिया तत्वों को उम्मीदवार बनाते जा रहे हैं, उससे साफ है कि अगली लोक सभा पिछली लोक सभा की अपेक्षा बेहतर नहीं होगी। लोक सभा में किस तरह के सदस्य पहुंचते हैं, इसका असर सिर्फ सदन की बहस के स्तर पर ही नहीं पड़ता बल्कि देश के शासन व सभ्य नागरिक समाज पर भी पड़ता है। उसका प्रभाव सरकार की नीतियों पर पड़ता है । लोक सभा देश की करोड़ों जनता की तकदीर भी तय करती है। आज जब कि देश ‘सामान्य जनता बनाम करोड़पति माफियाओं’ के बीच के संघर्ष में जूझ रहा है,यह जरूरी हो गया है कि आम जनता इस बार तो एक ऐसी लोक सभा चुने जो सदन में आए दिन हो रहे हंगामे और मारपीट की जगह 84 करोड़ वैसे गरीबों की आवाज बने जिनकी रोज की औसत आय सिर्फ 20 रुपए है। कोई माफिया या फिर घनघोर बाहुबली संसद में जाकर आम जनता का कौन सा भला करेगा,यह जनता वर्षों से देख रही है। बिहार के एक वरिष्ठ आई.पी.एस. अफसर ने अपने ब्लाॅग के जरिए मतदाताओं से अपील की है कि वे अपराधियों को वोट नहीं दें। उस सेवारत कत्र्तव्यनिष्ठ अफसर ने बड़ी पीड़ा के साथ यह लिखा है कि हत्या, बलात्कार और अन्य जघन्य अपराधों के आरोपितों को विभिन्न दल उम्मीदवार बनाने की तैयारी कर रहे हैं।मतदाता इन अवांछित तत्वों को लोक सभा में जाने से रोक सकते हैं। उस अफसर ने अपने कत्र्तव्य पालन के सिलसिले में ऐसे अवांछित तत्वों की जन विरोधी हरकतों को करीब से देखा है। वे चाहते हैं कि अब भी तो ऐसे लोगों को हमारे भाग्य विधाता की कुर्सियों पर बैठने से रोका जा सके।उस अफसर की बात से भी यह निराशा झलकती है कि राजनीतिक दल बाहुबलियों और माफिया तत्वों से अपना संबंध तोड़ने को कत्तई तैयार नहीं हैं। पर आखिर ये राजनीतिक दल और नेतागण मतदाताओं के पास ही तो जाएंगे ! हाल के महीनों में बिहार में कई ऐसे बाहुबलियों को निचली अदालतों ने उनके कृत्यों के लिए सजाएं सुनाई हैं। इनमें से कई सांसद और पूर्व सांसद हैं। ये लोग ऊंची अदालतों से यह गुजारिश कर रहे हैं कि उनकी सजाएं स्थगित की जाएं ताकि वे एक बार फिर चुनाव लड़ सकें। यदि अदालत ने उन्हें राहत नहीं दी तो उनके परिजनों को राजनीतिक दल टिकट देने का मन बना रहे हैं। कोई बाहुबली लड़े या उसका परिजन, सभ्य समाज को समान रूप से नुकसान होता है। पर इसकी चिंता राजनीतिक दलों को कतई नहीं है। उन्हें तो किसी न किसी तरह सीटें चाहिए। पर यदि मतदाता नहीं चाहें तो उन्हें भला विजयी कौन बनाएगा ? कभी बिहार के अनेक मतदाताओं के सामने भी यह मजबूरी थी जिसका लाभ उठा कर ये बाहुबली चुनाव जीत जाते थे। एक तो कानून के शासन का अभाव था और मतदान में धांधली का बोलबाला था। पर पिछले कुछ चुनावों से बिहार में स्वच्छ और निष्पक्ष मतदान होने लगे हैं। क्योंकि कानून और व्यवस्था इधर सुधरी है।गत तीन वर्षों में करीब तीस हजार अपराधियों को निचली अदालतें सजा सुना चुकी हैं। इससे अपराधी सहम गए हैं।यानी मतदाताओं को अब इन बाहुबलियों से डरने की जरूरत नहीं रह गई है।मतदाता जब भयमुक्त माहौल में मतदान कर सकते हैं तो फिर बाहुबलियों के पक्ष में उनसे डर कर मतदान करने की जरूरत ही कहां रह गई है ? बिहार में बाहुबलियों के उभरने और उनके द्वारा कुछ खास जातियों और समुदायों का समर्थन हासिल कर लेने का एक कारण यह भी था कि पहले पुलिस थाने और राजस्व कार्यालय किसी को न्याय नहीं देते थे। कम से कम बाहुबली अपने -अपने समुदाय के लिए तो मसीहा बन जाते थेे।अब जब कानून अपना काम करने की दिशा में अग्रसर है तो किसी समुदाय या फिर जातीय समूह को किसी बाहुबली को वोट देकर उसे अपनी रक्षा के लिए ताकतवर बनाने की भला क्या जरूरत है ? हाल के वर्षों में जिन तीस हजार लोगों को त्वरित अदालतों ने जुर्म के अनुपात में कड़ी सजाएं सुनाई हैं ,वे करीब -करीब सभी समुदायों व जातियों से आते हैं। बिहार में कुछ साल पहले जंगल राज था।वह जंगल राज भी अकारण नहीं था। वह पिछड़े समुदाय के नेतृत्व में चलने वाला ‘खुला जंगल राज’ था। वह उससे पहले अगड़े समुदाय के नेतृत्व में चलने वाले ‘छिपे जंगल राज’ का जवाब था। कई सवर्ण बाहुबली दबंग पिछड़ों के अत्याचार की प्रतिक्रिया में उभरे तो कुछ पिछड़े बाहुबली, अगड़ांे के दमन की प्रतिक्रियास्वरूप ताकतवर बने। वे राजनीतिक प्रयोग ही थे जो विफल रहे। आजादी के बाद के वर्षों में सवर्ण सामंती धाक की आड़ में भ्रष्टाचार चलता था।उसकी प्रतिक्रिया में मंडलेत्तर काल में पिछड़ा उभार के डंके तले खुला भ्रष्टाचार और अपराध चलने लगा।मतदाताओं ने बारी -बारी से उपर्युक्त दोनों राजनीतिक भटकावों को अपने वोटों की चोट से पराजित कर दियां।अब बिहार में एक ऐसा शासन कार्यरत है जो स्वच्छ और निष्पक्ष मतदान का आधार तैयार करने के प्रति ईमानदारी से लगा हुआ है। राज्य शासन भरसक सभी समुदायों व जातियों के भले के लिए काम करने की कोशिश कर रहा है। हालांकि अब भी कोई आदर्श स्थिति नहीं है, पर मतदाता चाहें तो इस बदली हुई स्थिति का लाभ उठा सकते हैं।मतदाता अगले चुनाव मे ं किसी भी दल के बाहुबली और माफिया तत्वों को मतदान के जरिए उनकी औकात बता सकते हैं।संभवतः इस नई स्थिति से ही उत्साहित होकर उस वरिष्ठ आई.पी.एस.अफसर ने मतदाताओं से इस बार यह उम्मीद की है कि वे अपराधियों को वोट न देंगे। कुछ साल पहले तो बिहार में ऐसी स्थिति थी कि अधिकतर मतदाता अपने ही मतों का मालिक नहीं रह गए थे। अनेक लोगों को मतदान केंदों तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता था। कई दूसरे लोग हिंसा की आशंका के कारण मतदान के दिन भी अपने घरों में ही रह जाते थे। पर पिछले विधान सभा चुनाव में चुनाव आयोग के कत्र्तव्यनिष्ठ व साहसी पर्यवेक्षक के.जे. राव की सक्रियता के कारण मतदान की लगभग सबको छूट मिली तो कई बाहुबली और उनके लगुए भगुए चुनाव में खेत रहे। ऐसे -ऐसे वीर- बांकुड़े भी हार गए जिनकी हार की कोई उम्मीद ही नहीं कर रहा था। पिछले चुनाव के तौर तरीके अगले लोक सभा चुनाव के लिए यह संदेश दे रहे हैं कि मतदाता चाहें तो दोनों राजनीतिक गठबंधनों के बचे -खुचे बाहुबली भी इस बार लोक सभा का मुंह नहीं देख पाएंगे। मतदाताओं के समक्ष ही अब यह भी जिम्मेदारी बन गई है कि उम्मीदवारों में से ऐसे लोगों को चुनें जो संसद में बहस के स्तर को उपर उठा सकें। लोक सभा के पिछले सत्र में परमाणु करार और सत्यम घोटाले पर साधिकारपूर्वक बोलने वाले संसदों की काफी कमी महसूस की गई।पर सदन में गलाफाड़ कर चिल्लाने और जबरन बैठकें नहीं होने देने वाले सांसदों की कोई कमी नहीं रही। इस बार मतदाता अपने लिए कैसी लोक सभा बनाना चाहते हैं ? यदि मतदाता चाहें तो राजनीतिक दलों और नेताओं की गलती को अपने वोट के जरिए सुधार सकते हैं।

दैनिक हिन्दुस्तान से साभार

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