शनिवार, 11 अप्रैल 2009

कारण भले जूता हो, पर कांग्रेस में कुछ लोकलाज तो है!

दिल्ली के एक पत्रकार ने गृह मंत्री पी.चिदम्बरम की ओर जूता उछाला और कांग्रेस ने विवादास्पद जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार के चुनावी टिकट एक ही झटके से काट दिये। दूसरी ओर, एक जूता कौन कहे, इस देश में कुछ दल ऐसे भी हैं कि उनके नेताओं पर चार जूते भी उछाले जायें, तो भी वे अपने माफिया और बाहुबली उम्मीदवारों के टिकट नहीं काटेंगे।

ऐसे राजनीतिक माहौल में इस बात की सराहना की जानी चाहिए कि कांग्रेस में अब भी कुछ लोकलाज कायम है। हालांकि इसी कांग्रेस ने बिहार में कुछ सीटों पर अपने टिकट तय करते समय उस लोकलाज का ख्याल नहीं रखा है। कांग्रेस इसे अपवाद मान कर इसकी पुनरावृत्ति न करे, तो देश और कांग्रेस के लिए ठीक रहेगा। एक संतोषजनक बात यह है कि कांग्रेस में अन्य कई दलों की अपेक्षा सुधरने की गुंजाइश भी अभी बाकी है।

कांग्रेस राजनीति के अपराधीकरण, भ्रष्टीकरण और देशद्रोहीकरण के मामले में अन्य कुछ दलों की तरह नंगई पर नहीं उतरती। भले पर्दे के पीछे जो कुछ होता हो। कुछ दलों ने तो इस बार भी नरसंहार, भ्रष्टाचार तथा देशद्रोह के आरोपितों या फिर उनके रिश्तेदारों को संसद मंे भेजने के लिए उन्हें चुनावी टिकट दे दिये हैं। कांग्रेस की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह पूरे देश में फैली हुई हैै। अपने निधन से कुछ ही समय पहले समाजवादी नेता मधु लिमये ने कहा था कि इस देश को ‘सुधरी हुई कांग्रेस’ ही चला सकती है।

आज देश के सामने उपस्थित कठिन समय में कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों के और भी मजबूत होने की सख्त जरूरत है, क्योंकि न जाने कुछ क्षेत्रीय दल निजी स्वार्थवश इस देश को एक दिन कहां ले जाकर पटक देंगे.। सीमित स्वार्थ वाले कुछ क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय दल तभी मुकाबला कर पाएंगे जब वे खुद को इन क्षेत्रीय दलों की अपेक्षा बेहतर साबित कर दें।टाइटलर और सज्जन के टिकट काटना उस दिशा में एक छोटा कदम माना जा सकता है। पर क्या कांग्रेस और भाजपा खुद को कुछ और सुधारने को अब भी तैयार है ? हाल के वर्षों में कांग्रेस और भाजपा का विकास इसलिए रुका, क्योंकि इन दलों ने अपने ही घोषित सिद्धांतों, रणनीतियों और लोकलाज को सत्ता के लिए त्याग दिया।

चुनाव और उसके बाद सरकार का गठन एक ऐसा मौका है, जब कोई दल अपना बेहतर चरित्र देश के सामने पेश कर सकता है। साथ ही, सरकार में आने के बाद वह दल अपने जनपक्षी कामों के जरिए अपनी पिछली गलतियों का परिमार्जन भी कर सकता है । क्या कम-से-कम इन राष्ट्रीय दलों से इस बार यह उम्मीद की जाये कि वे सुधरेंगे और खुद को क्षेत्रीय दलों से बेहतर साबित करेंगे ? यदि बेहतर साबित करेंगे, तो आगे भी मतदाता उनकी ओर आकर्षित होंगे। इससे यह होगा कि किसी एक दल को बहुमत मिलेगा और देश की राजनीति ‘झारखंडीकरण’ से बच जाएगी। सबने देखा कि क्षेत्रीय दलों और निर्दलीयों ने झारखंड की राजनीति, प्रशासन और जनता के साथ कितना घोर अनर्थ किया ! झारखंडीकरण की पुनरावृति राष्ट्रीय स्तर पर भी हो सकती है, यदि लोकसभा के इस मौजूदा चुनाव में किसी एक दल को सरकार चलाने के लिए पर्याप्त सीटें नहीं मिलीं।

एक समय था जब केंद्र और राज्यों में सरकार चलाने के लिए कांग्रेस को आम तौर पर किसी अन्य दल से मदद लेने की जरूरत नहीं थी। क्योंकि जनता के सभी समुदायों और हिस्सों का समर्थन उसे हासिल था। वह समर्थन समय बीतने के साथ क्यों घटता गया ? क्यों कांग्रेस आज सत्ता के लिए पूरी तरह क्षेत्रीय दलों पर निर्भर हो गई ? क्यों वह क्षेत्रीय दलों के भयादोहन को झेलती रही ? क्यों इससे देश को पहुंच रहे नुकसान की वह मूकदर्शक भी बनी रही ? इसका जवाब जान कर उसे हल करने का यह चुनाव शायद आखिरी मौका है।

वैसे तो कांग्रेस ने पिछले दशकों में अनेक गलतियां कीं जिससे जनता उससे दूर हुई। पर कांग्रेस के सिमटने का मूल कारण यह रहा कि उसने गांधी के ‘अंतिम व्यक्ति’ के सिद्धांत को भुला दिया और अपने ही अन्य दिवंगत नेताओं की सलाहों को भी अमल में नहीं लाया। साथ ही आजादी के बाद कांग्रेस ने सत्ता व राजनीति में समाज के सभी समुदायों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया।

उसे इसे सुधारना होगा अन्यथा संकुचित स्वार्थों वाले क्षेत्रीय दलों से देश का वह बचा नहीं पाएगी। अब भी देर नहीं हुई है। कम समय में भी किस तरह उपलब्धि हासिल की जा सकती है, यह बात बिहार में नीतीश सरकार ने साबित कर दी है।

भ्रष्टाचार के कारण भारत में बढ़ी गरीबी से जनता में असंतोष फैला। फिर कुछ समुदायों, जातियों और उनके नेताओं ने देखा कि मंत्रिमंडल और ब्यूरोक्रेसी में तो उनकी जाति का प्रतिनिधित्व ही नगण्य है। सत्ता की मलाई कुछ खास लोग ही खा रहे हैं। फिर जातीय आधार पर गोलबंदी करने का कुछ गैर कांग्रेसी नेताओं को मौका मिल गया। यदि आजादी के तत्काल बाद की केंद्र और राज्य सरकारों ने सत्ता में लगभग सभी जातीय समूहों को संभव भागीदारी दी होती, तो क्षेत्रीय दलों को मजबूत होने का अवसर नहीं मिलता। अधिकतर क्षेत्रीय दलों के समर्थन का मुख्य आधार जातीय ही है।

कांग्रेस की इन गलतियों और कमियों का लाभ क्षेत्रीय दलों ने कैसे उठाया ? दरअसल कांग्रेस की सरकारों के कार्यकाल में जनता का जो हिस्सा लाभन्वित नहीं हुआ या अपेक्षाकृत काफी कम लाभान्वित हुआ,उसने देखा कि जब कांग्रेस को भी सत्ता में आने के बाद वही सब काम करना है, जो काम भ्रष्ट क्षेत्रीय व जातीय नेता करते रहे हैं, तो क्षेत्रीय दलों को सत्ता में लाने पर कम से कम इस बात में उन्हें मनोवैज्ञानिक संतुष्टि मिलती है कि कम-से-कम हमारी जाति के व्यक्ति के हाथों में सत्ता तो है, जो मध्यकालीन राजा की तरह उसका उपभोग कर रहा है ! कांग्रेस खुद को सन् 1952 या कम से कम सन् 57 के चरित्र वाली कांग्रेस बना कर क्षेत्रीय दलों के विकास को रोक सकती है। इससे जनता के हर हिस्से को यह संतोष मिलेगा कि वह एक बेहतर विकल्प यानी कांगेस को वोट देकर सत्ता में उसे पहुंचा रहा है जो व्यापक देशहित का ख्याल रखेगी। इससे देश के सामने उपस्थित गरीबी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और नक्सलवाद की समस्याओं से लड़ने में सुविधा होगी।

इसी तरह के सुधार यदि भाजपा भीं अपने -आप में करे तो क्षेत्रीय दल उसे नहीं पछाड़ पाएंगे। याद रहे कि भाजपा सरकार की कई गलतियां उस समय प्रकट हुई जब वह सन् 1998 से 2004 तक केंद्र में सत्ता में थी। चुनाव सुधार, नेताओं के भ्रष्टाचार और कुछ अन्य मामलों में भाजपानीत एन.डी.ए. सरकार का रिकार्ड कांग्रेस जैसा ही खराब रहा। अच्छा होगा कि ये दल खुद को सुधार कर जनता के आकर्षण का केंद्र बनें, ताकि देश को राजनीति में घुसे ऐसे तत्वों को नुकसान पहुंचाने का मौका नहीं मिले जिनके लिए निजी व पारिवाारिक स्वार्थ, भ्रष्टाचार, देशद्रोह और अपराध और माफियागिरी कोई समस्या ही नहीं है। इसके लिए कई बड़े मुद्दों पर कांग्रेस और भाजपा को अपने अपने क्षेत्रों में उसी तरह झटके से फैसला करना पड़ेगा, जिस जूते पड़ने पर जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार के मामले में किया गया।

प्रभात खबर से साभार

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