आए दिन यह शिकायत मिलती रहती है कि तरह -तरह की सरकारी सब्सिडी के नाम पर हजारों-हजार करोड़ रुपए की बंदरबांट कर ली जाती है। उन पैसों का लाभ उनको बहुत ही कम मिलता है, जिनके लिए सब्सिडी का प्रावधान केंद्र सरकार ने कभी किया था।
कई साल पहले योजना आयोग के सचिव एन.सी. सक्सेना ने कहा कि गरीबी उन्मूलन के नाम पर भारत सरकार जो 35 हजार करोड़ रुपए हर साल खर्च करती है, उस पैसों को सचमुच के गरीबों तक नहीं पहुंचने दिया जाता । यदि उन पैसों को देश के 25 करोड़ गरीबों को सीधे मनिआर्डर से भेज दिया जाता, तो गरीबों की गरीबी कम होती। अब तो अधिक-से-अधिक लोगों के बैंक खाते खोलने की कोशिश सरकार कर रही है। अच्छा हो कि सब्सिडी के पैसे उन्हीं खातों में जाएं।
सन् 1967 तक तो लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक ही साथ हुआ करते थे। इससे सरकारों, दलों और उम्मीदवारों को कम खर्चे करने पड़ते थे। चुनाव अब अलग- अलग होते हैं और पंचायतों के चुनाव भी अलग से ही होते हैं। सारे चुनाव एक साथ होने लगे, तो जनता के टैक्स के पैसे नाहक जाया नहीं होंगे और चुनावों में कम काला धन लगाना पड़ेगा। सब्सिडी और एक साथ चुनाव के सुझाव पर तो अन्य दलों और नेताओं को भी विचार करना चाहिए। पर उपराष्ट्रीयता की जदयू की बात समझ से परे है। हिंदी प्रदेशों में किसी तरह की उपराष्ट्रीयता की न तो जरूरत है और न ही गुंजाइश। इन प्रदेशों में सुशासन और विकास की जरूरत है जिस ओर नीतीश कुमार ने मजबूती से कदम बढ़ा दिया है।
सी.बी.आई. या काठ का घोड़ा !
जगदीश टाइटलर के मामले में सी.बी.आई. के ताजा कदम ने इस एजेंसी की रही -सही साख को भी मिट्टी में मिला दिया है। अधिक दिन नहीं हुए जब उत्तर प्रदेश के कुछ प्रमुख नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के बारे में सी.बी.आई. कछुए की तरह कभी मुंह बाहर, तो कभी भीतर करती रही थी। इससे पहले भी कई बार यह बात साबित हो गई कि बड़े राजनीतिक मामले सी.बी.आई. के वश में नहीं।
अब अच्छा यही होगा कि केंद्र की अगली सरकार सी.बी.आई. को भंग ही कर दे। सुप्रीम कोर्ट, मुख्य सतर्कता आयुक्त और प्रतिपक्ष के नेता से राय करके सी.बी.आई. की तरह ही कोई ऐसा निष्पक्ष जांच एजेंसी बनायी जाए, जो निष्पक्ष और निर्भीक होकर अपना काम कर सके। यदि ऐसा नहीं होगा, तो इस सिस्टम पर से आम लोगों का विश्वास और जल्दी उठने लगेगा। वह देश के लोकतंत्र के लिए खतरनाक स्थिति होगी।
जरूरी है जातीय गणना
सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर सरकार को कोई निदेश देने से इनकार कर दिया है कि वह अगली जनगणना जाति के आधार पर कराए या नहीं कराए। कोर्ट ने कहा कि यह नीति संबंधी मामला है। इस पर सरकार ही कोई फैसला कर सकती है।
याद रहे कि अंग्रेजों के जमाने में भारत में जाति के आधार पर जनगणना होती थी। सन् 1931 तक इस आधार पर जनगणना हुई थी। आजादी के बाद कांग्रेस सरकार ने जातीय जनगणना की नीति को ही समाप्त कर दिया।
पर बाद के वर्षों में पिछड़ों की स्थिति की जांच के लिए जितने भी आयोग बने उन्हें इस बात को लेकर कठिनाई हुई कि जातीय आधार पर जनगणना का कोई ताजा आंकड़ा उनके पास उपलब्ध ही नहीं था। मालूम हो कि इस देश की कई जातियां अब भी विभिन्न पेशों से मजबूती से जुड़ी हुई हैं। उन कमजोर वर्ग के पेशेवर लोगों के लिए कोई कल्याण या विकास योजना शुरू करने से पहले सरकार के पास कोई सही आंकड़ा नहीं होता। सरकार अपना पुराना निर्णय बदल कर जातियों के आधार पर अगली जनगणना तो करा ही सकती है।
और अंत में
इस देश में प्रधानमंत्री के करीब एक दर्जन उम्मीदवार हो गए हैं । क्या प्रधानमंत्री की कुर्सी हटा कर वहां एक बंेच लगा दिया जाना चाहिए ? !
प्रभात खबर से साभार
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