बुधवार, 1 अप्रैल 2009

सुप्रीम कोर्ट उम्मीद की आखिरी किरण


सुप्रीम कोर्ट ने संजय दत्त के मामले में जो फैसला किया है,उससे इस देश के लोकतंत्र के प्रति शांतिप्रिय लोगों की उम्मीद बंधती है। अन्यथा,तो बुद्ध और गांधी के इस देश की सबसे बड़ी पंचायत को बाहुबलियों और उनके परिजनों का अड्डा बनाने पर इस देश के अधिकतर नेता व दल अमादा हो ही चुके हैं।

वैसे तो सबसे बड़ी अदालत का यह निर्णय एक संकेतक है। साथ ही, ‘बाहुबलवादी’ नेताओं के गाल पर करारा तमाचा भी है। पर, यह उम्मीद करना फिजूल है कि ‘बाहुबलवादी’ नेतागण इससे कोई शिक्षा ग्रहण करेंगे। पर, इससे आम मतदाता जरूर मनोबल उंचा करके चाहें तो अपराधियों और उनके परिजनों को इस चुनाव में धूल चटा सकते हैं।अन्यथा,ये बाहुबलवादी एक दिन लोकतंत्र की ऐसी दुर्गत कर देंगे कि आम जनता का इस सिस्टम पर से ही भरोसा उठ जाएगा और या तो माओवादी छा जाएंगे या फिर सेना। इन दोनों में से कोई भी लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं रहेगा।

पहले गांधीवादी होते थे। थोड़े लोग अब भी हैं। पहले समाजवादी और संघवादी होते थे।थोड़े अब भी हैं। पहले लोहियावादी और साम्यवादी हुआ करते थे। थोड़े लोग अब भी है।पर, वे सब हाशिए पर ही हैं।राजनीति की मुख्य धारा पर तो अब दूसरे ही तरह के लोगों का ही कब्जा होता और बढ़ता जा रहा है।अब परिवारवादी होते हैं। जातीय समीकरणवादी हैं। पैसावादी होते हैं।अपहरणवादी होते हैं।हत्यावादी होते हैं।संविधानविरोधवादी होते हैं।कानूनविरोधवादी और बाहुबलवादी होते हैं।और न जाने क्या क्या वादी होते हैं।

क्या यह देश के लोकतंत्र के लिए कोई मामूली घटना है कि जिसे देशद्रोह के आरोप में अदालत सजा सुना चुकी है,उसे एक राजनीतिक दल लोक सभा में भेजने पर अमादा हो ? क्या यह कोई सराहनीय बात है कि कोई अन्य दल यह कहे कि उसके खिलाफ हम उम्मीदवार ही खड़ा नहीं करेगे क्योंकि उस सजायाफ्ता के परिवार का बड़ा योगदान रहा है ?

भला हो,सुप्रीम कोर्ट का जिसने संजय दत्त को इस लायक नहीं समझा कि वे चुनाव लड़ सके। उन दूसरे सजायाफ्ताओं के बारे में क्या फैसला होगा,इससे यह भी साफ हो गया। पर बिहार के नेतागण कुछ अधिक ही चतुर निकले।उन्होंने उन बाहुबलियों के परिजनों को टिकट दे दिया जिन्हें अदालत ने सजा सुना रखी है।यानी बिहार के कुछ नेताओं ने प्रकारांतर से अदालत के फैसले और मंशा को पराजित करने की चतुर कोशिश की है।हालांकि बाहुबलियों के परिजनों के भी ताकतवर होने पर कुल मिलाकर समाज व सरकार पर नतीजा वही होगा जो खुद बाहुबलियों के चुनाव लड़ने और जीतने से होता रहा है।आखिर ऐसे बाहुबलवादी नेतागण अपने क्षणिक स्वार्थ में इस देश और लोकतंत्र के साथ और खास कर आने वाली अपनी ही पीढ़ियों के साथ क्या करना चाहते हैं ?

लगता यह है कि एक चुनावी लड़ाई तो जनता के बीच लड़ी जा रही है जिसमें विभिन्न दल आमने -सामने हैं। पर दूसरी लड़ाई अदालतों में लड़ी जा रही है जहां कई दलों के लोग यह लड़ाई लड़ रहे हैं कि उन्हें बाहुबलियों और देशद्रोहियों ंसे लोक सभा को भर लेने दिया जाए। इस देश के लिए सौभाग्य की बात है कि काफी हद तक न्यापालिका और एक हद तक मीडिया ऐसे बाहुबलवादियों के खिलाफ देशहित में चट्टान की तरह खड़ी हंै। इस लड़ाई में इस बार मतदाताओं की अधिक मदद की जरूरत है।मतदाताओं ने यदि जातपांत से उपर उठकर अपराधी, जातिवादी व भ्रष्ट तत्वों को लोक सभा में जाने से नहीं रोका तो ये गर्हित तत्व देश के लिए बहुत बुरा दिन ला देंगे।फिर बाद में पछतावा ही रह जाएगा। हमारा देश जब गुलाम हुआ था,तब शायद उन दिनों इसी तरह की परिस्थितियां बन गई होंगी।

संजय दत्त को चुनाव लड़ाने का निर्णय इतना गलत था कि गत एक फरवरी 2009 को ही एक अखबार में लेख लिख कर राम जेठमलानी ने कहा था कि संजय दत्त का लोक सभा में जाना देशहित में नहीं है।यह वही राम जेठमलानी हैं जिन्होंने संजय दत्त को पहली बार ं जमानत दिला देने जैसा असंभव काम किया था। उन्होंने अपने मित्र और एक अति शालीन हस्ती सुनील दत्त के कहने पर संजय का वकील बनना मंजूर किया था।सुनील दत्त ऐसे भले व शालीन अभिनेता थे जो अपनी फिल्म की हीरोइन के हाथ पकड़ने में भी संकोच करते थे।यह उनके अभिनय के शुरूआती दौर की बात है।पर उसी देशभक्त का पुत्र ऐसा निकला कि राम जेठमलानी को लेख लिख कर यह कहना पड़ा कि उसे लोक सभा में नहीं जाना चाहिए। पर इस देश के पक्ष-विपक्ष की पतनशील राजनीति को तो देखिए कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद ऐसे लोगों को और उनके परिजनों को टिकट देने वाला थोड़ा भी शरमा नहीं रहा है।

इस संदर्भ में सन् 2002 के एक प्रकरण को एक बार फिर याद कर लेना मौजूं होगा।इससे पक्ष- विपक्ष के बाहुबलवादी चेहरे का पता चलता है। जून 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि जन प्रतिनिधि बनने की इच्छा रखने वालों को अपने धन-संपत्ति,शिक्षा और केस वगैरह के बारे में सूचनाएं सार्वजनिक करनी होंगी।इसके बाद लगभग सारे राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ एकजुट हो गए।तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी।सरकार ने इस फैसले को पराजित करने के लिए तत्काल राष्ट्रपति से एक अध्यादेश भी जारी करवा दिया। बाद में उसे कानून का रूप भी दे दिया।पर जब मामला फिर सुप्रीम कोर्ट में गया तो सर्वोच्च अदालत ने इस नए कानून को रद कर दिया। आखिर हार कर यह व्यवस्था करनी पड़ी कि उम्मीदवार अपने धन संपत्ति, शिक्षा और आपराधिक मुकदमों का विवरण नामांकन के समय ही जााहिर कर देंगे जो सार्वजनिक कर दिया जाएगा।

यानी राजनीतिक दल अदालत के दबाव के कारण ही इस बात पर राजी हुए।ऐसे नहीं। ऐसे तो उनमें से अधिकतर लोगों ंके पास छिपाने के लिए अब भी बहुत कुछ है। क्या हो रहा है इस सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्य श्यामलम् देश के साथ ?

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