गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

भारतीय खातेदारों के नाम बताने को तैयार है विदेशी बैंक का बर्खास्त कर्मचारी

उस बैंक का एक बर्खास्त कर्मचारी एक विदेशी बैंक के गुप्त खातेदारों के नाम -पते बताने को तैयार है।फिर भारत सरकार क्यों उस कर्मचारी से मदद लेने को तैयार नहीं है ? हालांकि मदद लेने की शर्त यही है कि भारत सरकार को उसके बदले में कुछ धन खर्च करने पड़ेंगे। खबर है कि उस बैंक में अनेक भारतीयों के भारी मात्रा में काला धन जमा हैं।

वैसे भी विदेशों में सक्रिय खुफिया एजेंसियां तरह -तरह की गुप्त सूचनाएं एकत्र करने के लिए धन खर्च करती ही हैं। खबर मिली है कि अपने- अपने देशों के भ्रष्ट लोगों के काले धन के गुप्त खातों के विवरण कई देशों ने पहले ही प्राप्त कर लिए हैं।इसी सिलसिले में जर्मनी सरकार की खुफिया एजेंसी ने 40 लाख पाउंड और ब्रिटेन सरकार ने एक लाख पाउंड में उस पूर्व बैंक कर्मचारी से खरीद लिए हंै। यही काम भारत सरकार क्यों नहीं कर सकती ? 16 मई 2008 को ही भारत के वित्त मंत्री पी.चिदम्बरम ने एल.के. आडवाणी को पत्र लिखा था कि ‘भारत सरकार ने जर्मनी सरकार से गत फरवरी में ही उन खातों का विवरण मांगा था। पर जर्मनी सरकार ने कह दिया कि कुछ कारणवश वह तत्काल ऐसा करने की स्थिति मेें नहीं है।’ बाद में यह खबर आई कि एक जर्मन वकील ने कानूनी बाधा खड़ी करके भारत सरकार को जर्मन सरकार से गुप्त खातों का विवरण नहीं लेने दिया। पर इसके बावजूद उस बर्खास्त बैंक कर्मचारी से तो खातों ंका विवरण प्राप्त किया ही जा सकता है। याद रहे कि श्री आडवाणी के पत्र के जवाब में चिदम्बरम ने उन्हें गत साल भाजपा नेता को लिखा था। पूरी दुनिया की मीडिया में यह खबर कई महीनों से आ रही है कि कई देशों ने बारी -बारी से उस कर्मचारी से अपने -अपने देश के काला धन वालों के विवरण प्राप्त कर लिए।

पहले यह खबर आई थी कि जर्मनी सरकार, भारत के लोगों के गुप्त खातों के उस विवरण को भारत सरकार को मुफ्त देने को तैयार है। पर, पता नहीं किस षड्यंत्र के तहत एक जर्मन वकील से इस काम में बाधा खड़ी करवा दी गई ? जर्मनी सरकार बाद में क्यों पलट गई ? या फिर चिदम्बरम साहब ने देश को गुमराह किया ? खैर जो हो, फिलहाल यह मान भी लिया जाए कि जर्मनी सरकार ने खाते का विवरण देने से फिलहाल मना कर दिया, पर खुद जर्मनी सरकार ने जिस तरीके से गुप्त खातों के विवरण प्राप्त किए, उसी तरीके से भारत सरकार ने क्यों हासिल नहीं किया ? गुप्त बैंक खातों की यह कहानी भारत तथा कुछ अन्य देशों की मीडिया में विस्तार से गत साल आई थी। दरअसल यह कहानी स्विस बैंक के खातों की नहीं है।यह मामला स्विट्जर लैंड के बगल के एक देश का है। इस छोटे देश लाइखटेंस्टाइन के एल.जी.टी. बैंक में पड़े भारतीयों के अपार काले धन का विवरण देने के लिए उस बैंक का एक पूर्व कर्मचारी तैयार है। पर भारत सरकार उस विवरण को उससे हासिल करने को तैयार ही नहीं है।

एल.जी.टी. बैंक के बारे में कम ही लोगों को पता है। यह तब चर्चा में आया जब स्विस बैंकों ने अमेरिका के भारी दबाव के तहत अपने यहां के बैंकों के खातों की गोपनीयता से संबंिधत नियमों में ढील देने का निर्णय किया। उसके बाद दुनिया भर के काला धन वालों ने लाइखटेंस्टाइन के एल.जी.टी. बैंक की ओर रुख कर लिया।वह बैंक वहां के राजा के परिवार का है और वहां गोपनीयता की अब भी गारंटी है।

जर्मनी को उन खातों का विवरण कैसे मिला ? इसके पीछे भी एक कहानी है। लाइखस्टेंस्टाइन के एल.जी.टी. बैंक के साथ कुछ समय पहले एक हादसा हो गया।उस बैंक का एक कम्प्यूटर कर्मचारी हेनरिक कीबर कुछ कारणवश बैंक प्रबंधन से बागी हो गया। उसे नौकरी से निकाल दिया गया। वह बैंक के सारे गुप्त खातेदारों के नाम पते वाला वाला कम्प्यूटर डिस्क लेकर फरार हो गया। इस तरह दुनिया के अनेक देशों के भ्रष्ट लोगों के गुप्त खातों का विवरण कीबर के पास आ गया। उसने उस पूरी सी. डी.की काॅपी को जर्मनी की खुफिया पुलिस को 40 लाख पाउंड में बेच दिया। ब्रिटेन ने सिर्फ अपने देश के गुप्त खातेदारों के नाम उससे लिए। इसलिए उसे सिर्फ एक लाख पाउंड में विवरण मिल गया। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, बेल्जियम और अन्य दूसरे देश कीबर से बारी -बारी से अपने -अपने देश के भ्रष्ट लोगों के गुप्त खातों के विवरण ले गए। ब्रिटेन ने कहा कि उसे मात्र एक लाख पाउंड लगे।पर उस विवरण के आधार पर कार्रवाई करने पर सरकार को टैक्स के रूप में भारी धन राशि मिल गई। इस तरह यह सौदा ब्रिटेन के लिए काफी फायदे का साबित हुआ।

याद रहे कि यह सौदा भारत के लिए और भी फायदे का साबित हो सकता है। यह खबर गत साल ही पक्के तौर पर आ गई थी कि लाइखटेंस्टाइन के उस बैंक में बड़ी संख्या में भारतीयों के भारी मात्रा में काला धन जमा है। इसी की सूचना पाकर लोक सभा में प्रतिपक्ष के नेता एल.के. आडवाणी ने वित्त मंत्री को पत्र लिख कर उसे वापस लाने का उनसे आग्रह किया था।

एक अन्य खबर के अनुसार भारत के टैक्स चोर हर साल नौ लाख करोड़ रुपए की टैक्स चोरी करते हैं। इनमंे से अधिकांश राशि दुनिया भर में फैले ऐसे विदेशी बैंकों के गुप्त खातों में जमा कर दी जाती है। ये पैसे आम तौर पर भ्रष्ट नेताओं, व्यापारियों और अफसरों के होते हैं। इन पैसों का इस्तेमाल भारत में आतंकवादी गतिविधियां फैलाने और चुनावों को प्रभावित करने के लिए भी होता है। इस देश के काला धन वाले और भारतीय बैंकांे के रुपए मारने वाले इतने ताकतवर हैं कि उन पर कोई कार्रवाई करने की ताकत एल.के.आडवाणी सहित किसी नेता या दल की नहीं है जो अब तक केंद्र की सत्ता में रहे हैं।कांग्रेसी नेता व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने ठीक ही सवाल उठाया है कि एन.डी.ए. जब छह साल तक सत्ता में था तो उसने विदेशी बैंकों के गुप्त खातांे की खोज -खबर क्यों नहीं ली ?

स्विस बैंक कौन कहे, इस देश के राष्ट्रीयकृत बैंकों ंसे कर्ज के बहाने अरबों रुपए दबाकर बैठे बड़े बड़े व्यापरियों तथा अन्य लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने की ताकत भी एन.डी.ए. या यू.पी.ए. नेताओं में है ? सन् 2002 में इंडियन एक्सप्रेस ने यह खबर छापी थी कि ‘इस देश के व्यापारियों और उद्योगपतियों ने बैंकों के ग्यारह खरब रुपए दबा रखे हैं। उन उद्योगपतियों और व्यापारियों के नाम तक प्रकाशित करने की हिम्मत अब तक रिजर्व बैंक को नहीं हो रही है। ये रुपए कर्ज के रूप में लिए गए हैं। पर लौटाए नहीं जा रहे हैं।’ इस खबर के छपने के बाद तत्कालीन प्रतिपक्षी नेताओं यानी मनमोहन सिंह और पी. चिदम्बरम के उसी तरह के सरकार विरोधी कड़े बयान मीडिया में आए थे जिस तरह के बयान गुप्त विदेशी खातों पर इन दिनों एल.के. आडवाणी, शरद यादव तथा अन्य एन.डी.ए. नेताओं के आ रहे हैं।
मनमोहन सिंह और पी. चिदम्बरम गत पांच साल से सत्ता में हैं। क्या आपने कभी सुना कि इन सत्ताधारियों ने उस 11 खरब रुपए की कभी चर्चा भी की हो ? यदि अगली मई में आडवाणी जी सत्ता में आ जाएंगे, तो आप देखेंगे कि वे गुप्त विदेशी खातों की बात वे भी भूल जाएंगे। यदि वे खुदा न खास्ता याद रखेंगे, तो भारतीय राजनीति का इसे चमत्कार ही माना जाएगा ! इस देश के पक्ष -विपक्ष के नेताओं के बारे में पिछले अनुभव तो यही बताते हंै।


सन्मार्ग, पटना से साभार

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