गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

  महामारी बन रही एक बीमारी

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राजनीति में परिवारवाद इसी रफ्तार से बढ़ता गया तो नई पीढ़ी इस सिस्टम के खिलाफ एक दिन विद्रोह कर सकती है 

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सुरेंद्र किशोर

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घातक है जो देवता सदृश दिखता है,

लेकिन,कमरे में गलत हुक्म लिखता है,

जिस पापी को गुण नहीं,गोत्र प्यारा है,

समझो,उसने ही हमें यहां मारा है।

---- रामधारी सिंह दिनकर

         (परशुराम की प्रतीक्षा)

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राष्ट्रकवि दिनकर ने जब यह लिखा था,उस समय तक राजनीति में ‘‘गोत्र वाद’’(यानी वंशवाद-परिवारवाद का) का आज जैसा घिनौना रूप सामने नहीं आया था।आज जो कुछ हो रहा है,उसे आप नंगी आंखों से देख सकते हैं।दिनकर आज होते तो क्या लिखते !

बिहार विधान सभा के मौजूदा चुनाव में जिस तरह बड़े पैमाने पर राजनीतिक परिवारों के लोगों को टिकट दिए गए हैं,उसके कैसे संकेत हैं ?

लोकतंत्र के लिए खतरनाक संदेश हंै।

यह लोकतंत्र है या वैसा ही राजतंत्र जब इस देश में आजादी से पहले 565 रजवाड़े राज करते थे ?

संकेत यही है कि यदि इसी गति से यह कुप्रथा जारी रही तो वह दिन दूर नहीं जब लोक सभा की 543 और बिहार विधान सभा  की 243 सीटों में से लगभग सभी सीटों पर किसी न किसी राजनीतिक परिवार के ही सदस्य ही चुनाव लड़ेंगे।राजनीतिक कार्यकत्र्ता नामक प्राणी का मूलोच्छेद हो जाएगा।

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फिर वे सेवाभावी सामाजिक -राजनीतिक कार्यकर्ता (हांलाकि उनकी संख्या अब कम है)क्या करेंगे जो किसी राजनीतिक परिवार से नहीं आते हैं ?

ध्यान रहे कि परिवारवाद-वंशवाद नई -नई बुराइयां अपने साथ लाता है।यह संयोग नहीं है कि 

लगभग हर परिवादवादी -वंशवादी नेता के खिलाफ किसी न किसी घोटाले के आरोप में मुकदमे चल रहे हैं।यह भी संयोग नहीं कि अयोग्य उत्तराधिकारी के कारण कुछ वंशवादी राजनीतिक दल तेजी से पतन की ओर अग्रसर हैं।

हर देश,काल,समाज के 10 प्रतिशत लोग अत्यंत ईमानदार होते हैं।

अन्य 10 प्रतिशत अत्यंत बेईमान होते हैं।

बाकी 80 प्रतिशत उन्हीें के साथ हो जाते हैं ,इन दोनों में से जिसका राज होता है।साथ में या निरपेक्ष।

 परिवारवाद-वंशवाद की महामारी इस देश की राजनीति को जब पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लेगी तो ईमानदार समाज सेवकों के लिए खास कर उनमें से युवा वर्ग के लिए क्या रास्ता बच जाएगा ?

क्या वे मौजूदा ‘‘विकृतिकरण’’ को बर्दाश्त कर लेंगे ?

कत्तई नहीं।

वे सड़कों ंपर उतर सकते हैं।विद्रोह कर सकते हैं।

संभव है कि उस विदोह से कोई कल्याणकारी तानाशाह निकले। 

फिर वंशवाद-परिवारवाद को पराकाष्ठा पर पहुंचाने वाले नेतागण अपने हश्र की कल्पना कर लें।

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यहां की राजनीति की मौजूदा स्थिति को देखकर परलोक में मोतीलाल नेहरू खुश हो रहे होंगे।उन्होंने सन 1928-29 में महात्मा गांधी पर भारी दबाव डालकर कांग्रेस की राजनीति में वंशवाद का जो पौध रोपा,वह फल-फूल रहा है।वट वृक्ष बन रहा है। 

मोतीलाल नेहरू 1928 में कांग्रेस अध्यक्ष थे-जवाहरलाल नेहरू 1929 में अध्यक्ष बने।(संदर्भ--मोतीलाल नेहरू पेपर्स--नेहरू मेमोरियल)

लालू प्रसाद ने कभी कहा था कि ‘‘मेरा परिवार, बिहार का नेहरू परिवार है।’’

अब तो लगभग हर राज्य में नेहरू या लालू परिवार है।

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परिवारवादी नेता चाहते हैं कि जितने भी नेता एक बार सांसद या विधायक बनें,वे अगली बार अपने परिजन को विधायक -सांसद बनवा दें ताकि बदनामी का वितरण हो जाये।सिर्फ मुझ पर ही परिवारवाद का आरोप न लगे।

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नब्बे के दशक में प्रधान मंत्री पी.वी.नरसिंह राव पर 

 शेयर दलाल हर्षद मेहता से एक करोड़ रुपए घूस लेने का आरोप लगा था।

जब राव साहब बदनाम हुए तो उन्होंने सोचा कि कैसे ऐसा ही आरोप सभी सांसदों पर भी लगने लगे।यानी मेरी नाक कटी तो दूसरे की भी कट जाये।

उन्होंने एक तरकीब निकाली ।नब्बे के दशक में अपने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के कड़े विरोध के बावजूद   सांसदों के लिए राव ने एक करोड़ रुपए सालाना का सांसद फंड शुरू कर दिया।(यह काम तब किया गया जब मनमोहन सिंह लंबी विदेश यात्रा पर थे।)

उन दिनों सरकारी रिश्वत का रेट 20 प्रतिशत था।(आज तो 40 प्रतिशत हो गया है।)पांच साल में सांसदों को पांच करोड़ रुपए मिलने लगे।अपवादों को छोड़कर 

अधिकतर सांसदों के यहां बिन मांगे 20 प्रतिशत पहुंचने लगे।उससे राव साहब-हर्षद मेहता प्रकरण को नेतागण भूल गये।

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उसी तरह का हाल परिवारवाद -वंशवाद  का हो जाए,ऐसा वंशवादी नेता चाहते हैं।वंशवाद के लिए अब कौन किसे बदनाम करेगा ?

अटल जी,मनमोहन जी,मोदी जी की चाह के बावजूद सांसद फंड बंद इसलिए भी नहीं हो पा रहा है क्योंकि उसके ठेकेदार अनेक जन प्रतिनिधियों के राजनीतिक कार्यकर्ता का काम करते हैं।(अब तो प्रशांत किशोर जैसे नेता वेतन पर राजनीतिक कार्यकर्ता बहाल करने लगे हैं।)

जन प्रतिनिधि यदि अपने क्षेत्र में नये कार्यकर्ता उभरने देंगे तो वे कार्यकर्ता टिकट के उम्मीदवार बन जाएंगे। किंतु टिकट तो उन्हें अपने परिजन को देने हैं।

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आज राजनीति में इतनी गिरावट है--कल क्या -क्या होने वाला है ?कल्पना कर लीजिए।

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और अंत में

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1.-डा.राम मनाहर लोहिया कहा करते थे--राजनीति में रहने वालों को संतति और संपत्ति से दूर रहना चाहिए।

2.-1977 में राज नारायण जी केंद्र में स्वास्थ्य मंत्री बने तो किसी ने उनकी पत्नी को उनके दिल्ली आवास पर पहुंचा दिया।पत्नी को देख कर राजनारायण जी ने पूछा--‘‘ई के हवी ?’’(मेरी भाषा या जानकारी सटीक न हो तो कोई बनारसी व्यक्ति मुझे सही बता दें।)

यानी,राजनारायण जी ने  पूछा--ये कौन 

हैं ?

नेता जी (असली नेता जी वही थे,मुलायम जी के समर्थकों ने उनकी ही नकल करके मुलायम जी को नेता जी कहना शुरू कर दिया।) को बताया गया कि यह आपकी धर्म पत्नी हैं।

यानी, सार्वजनिक कामों में व्यस्त रहने के कारण ‘‘नेता जी’’ अपने परिवार से दूर-दूर रहते थे, इतने अधिक दिनों के बाद मिले थे कि तब तक पत्नी के चेहरे में थोड़ा परिवर्तन हो चुका था।

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  23 अक्तूबर 25



  


बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

  मुख्य समस्याएं हैं--भ्रष्टाचार और जेहाद।

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जिस नेता के मन में इन दो तत्वों के खिलाफ गुस्सा नहीं, वह देश-प्रदेश का कभी भला नहीं कर सकता।

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सुरेंद्र किशोर

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मैं किसी नेता को इसी कसौटी पर कसता हूं कि उसके मन में भ्रष्टाचारियों और जेहादियांे के खिलाफ गुस्सा है या नहीं।

 जिसके मन में इन दो तत्वों के खिलाफ गुस्सा नहीं है,वह कभी देश-प्रदेश का भला नहीं कर सकता।

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इस पृृष्ठभूमि में कुछ लोग मुझसे पूछते हैं कि प्रशांत किशोर के बारे में आपकी क्या राय है ?

इसके जवाब में मैं कहता हूं--

ममता बनर्जी के मन में न तो जेहादियों के खिलाफ कोई गुस्सा दिखाई पड़ता है और न ही भ्रष्टाचारियों के खिलाफ।

दूसरी ओर, प्रशांत किशोर के मन में ममता बनर्जी के खिलाफ कोई गुस्सा नहीं है।पी.के.तो ममता के चुनावी सलाहकार रहे हैं।

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इतना ही नहीं,यह बात भी ध्यान में रखिए-पी.के.नीतीश से अलग क्यों हुए थे ?

इसलिए हुए थे क्योंकि नीतीश कुमार सी.ए.ए. के समर्थक थे और प्रशांत किशोर विरोधी।

यह भी ध्यान रहे कि जेहादी संगठन पी.एफ.आई.ने सी.ए.ए. के खिलाफ देश भर में हिंसा की थी।

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और अंत में

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नरेंद्र मोदी और योगी आदित्य नाथ जेहादियों -भ्रष्टाचारियों के सख्त खिलाफ हैं।

वे दोनों अमित शाह के सहयोग से भ्रष्टाचारी उन्मूलन-जेहादी उन्मूलन के काम में लगे हुए हैं।काम कठिन है।इसीलिए धीरे- धीरे हो रहा है।

इसी कारण आज देश के सबसे लोकप्रिय नेता मोदी और योगी हैं क्योंकि आम जनता की बहुसंख्या जेहाद-भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ है। जेहाद और भ्रष्टाचार का आपसी रिश्ता भी है।दोनों एक दूसरे को मदद पहुंचा रहे हैं।इससे देश की एकता-अखंडता को भारी खतरा है।क्योंकि इजरायल तो जेहादियों से घिरा हुआ है किंतु भारत के भीतर ही बड़ी संख्या में जेहादी बसते हैं।

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22 अक्तूबर 25 

 

  


मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

 ‘‘जब सरकार बनने का कोई चांस न हो तो 

टिकट के बदले भारी ‘‘चंदा’’ लेकर ही पार्टी व परिवार के लिए कुछ कमा लिया जाए,यही बेहतर रहेगा !

तालमेल करने के कारण यदि चंदा के बदले बांटने लायक सीटों की संख्या कम हो जाएगी तो फिर अगले पांच साल का खर्च कैसे निकलेगा ?’’

   

  


सोमवार, 20 अक्टूबर 2025

 भारतीय राजनीति का सफर-जनसेवा से 

‘व्यापार’ होते हुए ‘उद्योग’ तक का !!

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(अपवाद स्वरूप अब भी राजनीति में सेवा भाव वाले नेता-कार्यकर्ता मौजूद हैं, पर उनकी संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक ही है।अपवादों से देश नहीं चलता।)

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सुरेंद्र किशोर

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1.-राजनीति पहले सेवा थी।

2.-प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने पूर्व सांसदों के लिए पेंशन का प्रावधान करके इसे नौकरी की श्रेणी में ला खड़ा किया।

3.-नब्बे के दशक में प्रधान मंत्री पी.वी.नरसिंह राव ने

सांसद फंड का प्रावधान करके इस राजनीति को ‘व्यापार’ बना दिया।

4.-अब जब पता चलता है कि इस देश-प्रदेश के कुछ बड़े नेताओं के पास अरबों की संपत्ति है,जबकि पहले वे साइकिल के लिए भी तरसते थे,उन्होंने कभी कोई व्यापार भी नहीं किया,तो राजनीति को उद्योग मान लेने मेें अब किसको एतराज हो सकता है ?

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मौजूदा बिहार विधान सभा चुनाव में बहुत बड़ी अकल्पनीय राशि लेकर टिकट बेचने की जो चर्चा आम है,उससे तो यही लगता है कि अपवादों को छोड़ कर लोग टिकट वैसे ही पा रहे हैं जैसे कोई डीलर कार बेचने का डीलरशिप हासिल करता है।

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और अंत में

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मैं सन 1972-73 में कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था।

उन्हें विधायक के रूप में वेतन मद में मासिक 300 रुपए मिलते थे।

कमेटी की बैठक होने पर प्रति बैठक 15 रुपये भत्ता।

महीने में अधिकत्तम 4 बैठकें ही होती थीं।यानी 60 रुपए।

कर्पूरी जी की पत्नी ने एक बार मुझसे कहा कि ठाकुर जी से कहिए कि एक ही बार महीने भर का राशन खरीद कर घर में रख दिया करें।

कर्पूरी जी का जवाब था--‘‘सुरेंद्र जी,उन लोगों से कहिए कि वे जाकर पितौंझिया (यानी कर्पूरी जी के पुश्तैनी गांव )जाकर रहें।’’यानी, कर्पूरी जी की जायज आय पटना में परिवार रखकर उसका पालन-पोषण करने लायक नहीं थी।जबकि उससे पहले कर्पूरी जी मुख्य मंत्री रह चुके थे।

फिर भी कर्पूरी जी ने कभी सरकार से यह मांग नहीं की कि विधायकों का वेतन बढ़ना चाहिए।

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मेरे देखते -देखते क्या से क्या हो गया !!

जन सुराज पार्टी के मुखिया का चुनावी खर्च अरबों में है।यह उनकी ही स्वीकृति है।

आज विधायकों और सांसदों को वेतन आदि के रूप में कितने रुपए मिलते हंै ,उसका विस्तृत विवरण दैनिक जागरण (18 अक्तूबर 25)ने छापा है।

डा.आम्बेडकर कहते थे कि सांसदों-विधायकों को समुचित वेतन मिलना चाहिए।पर सवाल है कि समुचित का अर्थ कितना होता है ?

राजनीति को इतना महंगा बनाकर साधनहीन व स्वाभिमानी लोगों को लोकतंत्र से दूर रखने की जाने- अनजाने साजिश तो नहीं हो रही है ?

जितने बड़े पैमाने पर इन दिनों नेताओं के परिजनों को टिकट दिये जा रहे हैं,उससे सवाल उठता है कि आजादी से पहले देश में जो 565 रजवाडे थे,उस स्थिति में और आज के लोकतंत्र में क्या व कितना फर्क रह गया है ?

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19 अक्तूबर 25


  

 


शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

 जेपी जन्म दिन-11 अक्तूबर

लोहिया पुण्य तिथि-12 अक्तूबर

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जेपी-लोहिया इसलिए सफल हुए क्योंकि

उन दोनों ने देश-काल-पात्र की जरूरतों 

के अनुसार अपनी नीति-रणनीति तय की

पुरानी बातों की बंदरमूठ नहीं पकडी 

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सुरेंद्र किशोर

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डा.राम मनोहर लोहिया ने सन 1967 में देश की सत्ता पर से कांग्रेस का एकाधिकार तोड दिय़ा।

प्रतिपक्षी दलों को एकजुट कर लेने में उनकी सफलता के कारण ही सन 1967 में 9 राज्यों में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं।उससे पहले लोहिया के कुछ प्रमुख साथी कम्युनिस्टों और भारतीय जनसंघ के साथ समाजवादियों की एकजुटता के खिलाफ थे।पर लोहिया नहीं माने।

लोक नायक जयप्रकाश नारायण ने सन 1977 में केंद्र की सत्ता से कांग्रेस का एकाधिकार तोड़ा।

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जेपी -लोहिया इस मामले में सफल इसलिए हो सके क्योंकि उन महान व दूरदर्शी नेताओं ने देश के व्यापक हित के बारे में सोचा और जो दल साथ आ सकते थे ,उन्हें साथ लिया।दोनों नेताओं में से किसी ने यह नहीं कहा कि भारतीय जनसंघ अछूत है।

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डा.लोहिया ने कहा था कि कांग्रेस को हटाने के लिए हम शैतान से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं।क्योंकि वे कांग्रेस को बड़ा शैतान मानते थे।

इमर्जेंसी तो बाद में लगी,सन 1971 में लोक सभा के चुनाव के तत्काल बाद से ही जब प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी एकाधिकारवादी प्रवृति के तहत शासन  शुरू किया तो जेपी ने इंडियन एक्सपे्रस में लेख लिख कर उनका विरोध प्रारंभ कर दिया।तभी से इंदिरा जेपी पर खफा थी।

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ध्यान रहे कि लोहिया और जेपी अपने लिए सत्ता नहीं चाहते थे।इसीलिए लोगों ने उन पर भरोसा किया।

ये दोनों चाहते तो जवाहरलाल नेहरू, जेपी और लोहिया को अपनी सत्ता में शामिल कर सकते थे।

डा.लोहिया सन 1936 में कांग्रेस के विदेश विभाग के प्रधान बनाये गये थे जब जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष थे।

आजादी के बाद जेपी को नेहरू ने सरकार चलाने में मदद देने के लिए आमंत्रित किया था।पर,जेपी ने उन्हें 

समाजवादी कार्यक्रम की एक लंबी सूची थमा दी।नेहरू ने जब उसे लागू करने में असमर्थता दिखाई तो जेपी कांग्रेस से अलग ही रहे।

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आज देश की समस्याएं

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मेरी समझ से आज देश के सामने दो 

सबसे बड़ी समस्याएं हैं।

1.-भारत में सर्व व्यापी भ्रष्टाचार

2.-भारत सहित दुनिया भर में चल रही जेहादी आंधी

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इन दोनों समस्याओं के खिलाफ बेलाग-लपेट संघर्ष करके जो दल इन्हें पराजित करेगा,वे ही राजनीतिक दल या दल समूह इस देश की अधिकतर जनता के प्रिय बनेंगे,बाकी राजनीतिक दल समय के साथ कमजोर होते जाएंगे।

जेपी और लोहिया के जीवन से फिलहाल यही सबक मिलते हैं।

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पुनश्चः

जेपी पर जब भी कुछ आप लिखेंगे तो कुछ अर्ध ज्ञानी लोग कहेंगे कि उनके आंदोलन के कारण जेपी के जो चेले सत्ता में आए, वे बेईमान निकले।

 अरे भाई, जेपी के आंदोलन और इमर्जेंसी के तत्काल बाद सन 1977 में जो सरकारें बनीं थीं,उसके मुखिया कंेद्र में मोरारजी देसाई थे और बिहार में कर्पूरी ठाकुर।क्या ये दोनों बेईमान थे ?

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जिनकी ओर अज्ञानियों का इशारा होता है,वे ‘‘बोफोर्स आंदोलन’’और मंडल मंडल आंदोलन के कारण सत्ता में आए और जमे।केंद्र में सन 1989 में और बिहार में सन 1990 में।

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11 अक्तूबर 25


शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2025

       जब विधायकी से अधिक 

      कुछ और ही महत्वपूर्ण था

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    सुरेंद्र किशोर

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सन 1957 के आम चुनाव के समय मोरारजी देसाई

पर्यवेक्षक बन कर बिहार आए थे।

पटना के सदाकत आश्रम में कांग्रेस उम्मीदवारों से मिल रहे थे।

किसी ने पूर्वोत्तर बिहार के एक निवर्तमान विधायक और टिकट के उम्मीदवार के बारे में देसाई से शिकायत कर दी कि वे छुआछूत मानते हैं।

मोरारजी ने उस टिकटार्थी से पूछा--क्या यह सच है ?

उन्होंने कहा-- हां,मैं छुआछूत मानता हूं।

देसाई ने कहा कि कांग्रेस तो छुआछूत नहीं मानती।आपको टिकट कैसे मिलेगा ?

उस उम्मीदवार ने कहा--टिकट अपने पास रखिए।मैं चला।

(यहां छुआछूत के समर्थन में यह पोस्ट नहीं लिखा गया है।बल्कि यह बताने के लिए कि तब के कई विधायकों के लिए पैसे या पद का महत्व अपेक्षाकृत कम था।

अब तो सांसद-विधायक के साथ कानूनी तौर से प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से इतने अधिक धन जुड़ गये हैं कि अपवादों को छोड़कर टिकट के लिए वे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं।ध्यान रहे कि बिहार विधानसभा के मौजूदा चुनाव में जितने अधिक खर्च हो रहे हैं और जितने अधिक खर्च होने वाले हैं,वे अभूतपूर्व व अकल्पनीय है।राज्य के बाहर के लोगों को भी यदि राजनीति में इस भारी गिरावट के घिनौने दृश्य देखने हों तो वे इन दिनों बिहार का चुनाव आकर देखें।सिर्फ पैसे फेंक कर जीतेगा,वह इस अभागे प्रदेश को निर्ममता से लूटेगा ही।यह अब जनता पर है कि वह लूटने वालों को वोट देगी या 

किसी बड़े उद्देश्य मतदातन करेगी !  

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एक दूसरी कहानी

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पूर्वोत्तर बिहार के आलम नगर के पूर्व जमीन्दार परिवार के सदस्य रहे वीरेन्द्र कुमार सिंह आलम नगर से चार बार विधायक रह चुके थे।उनके खिलाफ अनियमितता की कोई शिकायत भी नहीं थी।

पर 1995 में जनता दल ने उनका टिकट काट दिया।

नरेंद्र नारायण यादव को टिकट मिला।

वीरेंद्र बाबू ने इन पंक्तियों के लेखक से बातचीत करते हुए तब कहा था कि भले मेरा टिकट काट दिया,पर मेरी जगह एक ईमानदार व्यक्ति को टिकट मिला है।यह अच्छी बात है।

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वीरेंद्र बाबू की राजनीति में पहले कोई रूचि नहीं थी।हां,कांग्रेस उम्मीदवार विद्याकर कवि की ही वे मदद करते थे।पर विशेष परिस्थिति में 1977 में पहली बार चुनाव लड़े और जीते।

विधायक के रूप में कैसा अनुभव रहा ?यह पूछने पर 

वीरेंद्र बाबू ने बताया कि ‘‘विधान सभा में पहले मामूली चापाकल के बारे में सवाल उठाये जाते थे तो प्रशासन हिल जाया करता था।आज वह स्थिति नहीं रही।सब कुछ (ये संस्थाएं)जड़ हो गया है।

यह तो 1995 तक का हाल था।

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पर आज ?

लोक सभा या विधान सभा की बैठक जैसे ही शुरू होती है,भारी शोरगुल शुरू हो जाता है।लगता है कि पागलखाने के गेट को तोड़कर कुछ लोग सीधे विधायिका मंे घुस गये हैं।

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स्पीकर,मार्शल,सत्ताधारी दल,कार्य संचालन नियमावली और अखिल भारतीय पीठासीन पदाधिकारी सम्मेलनों की सिफारिशें सब कुछ आज बेमतलब साबित हो चुके हैं।शांति पूर्वक -नियमपूर्वक सदनों के संचालन के पक्षधर सांसदों -विधायकों की संख्या अंगुलियों में गिनने लायक रह गई है।

ऐसे में नई पीढ़ी के आदर्शवादी युवक ,हालांकि समाज में अब उनकी संख्या काफी कम हो गई है,कैसे राजनीति की ओर आकर्षि होंगे ?

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3 अक्तूबर 25