कानोंकान
सुरेंद्र किशोर
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बिहार के मंत्रियों के लिए जारी ‘आचार संहिता’ एक सकारात्मक पहल
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राज्य के उप मुख्य मंत्री तेजस्वी यादव ने अपने दल यानी राजद के मंत्रियों के लिए छह सूत्री ‘आचार संहिता’ जारी की है।
इस तरह उन्होंने मंत्रियों के लिए ‘लक्ष्मण रेखा’ खींच दी है।
मौजूदा राजनीतिक माहौल में यह एक अत्यंत सराहनीय पहल है।
हालांकि इसे जारी करना जितना आसान है, लागू करना उतना ही मुश्किल काम है।
पर,उम्मीद की जानी चाहिए कि राजद का शीर्ष नेतृत्व उसे लागू कराने के लिए अपनी कठोर इच्छा शक्ति का इस्तेमाल करेगा।उसे लागू करने से राजद का
जन समर्थन बढ़ सकता है।
साथ ही,राजद को ‘‘ए टू जेड’’ की पार्टी बनाने में भी उसे मदद मिल सकती है।
पर, इसके साथ ही राजद के शीर्ष नेतृत्व को एक और बात का ध्यान रखना होगा।
कोई मंत्री या प्रवक्ता बिना किसी ठोस सबूत के अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ सार्वजनिक रूप से कोई आरोप न लगाए।
हांलाकि यह बात अन्य दलों के नेताओं और प्रवक्ताओं पर भी समान रूप से लागू होती है।
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चांसलर पद पर विचार
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कुछ राज्य सरकारें विश्व विद्यालयों के चांसलर पद से
राज्यपाल को मुक्त कर देने की प्रक्रिया अपना रही हैं।
कुछ लोगों की राय है कि यह काम बिहार सरकार को भी कर ही देना चाहिए।
विश्व विद्यालयों पर द्वैध शासन का प्रयोग अब विफल हो रहा है।केंद्र और राज्यों में अलग -अलग दलों के शासन होने के कारण चांसलर के काम कठिन हो रहे हैं।
यदि विश्वविद्यालयों के चांसलर मुख्य मंत्री ही रहेंगे तो उच्च शिक्षा क्षेत्र की सफलताओं का श्रेय मुख्य मंत्री को ही मिलेगा।विफलताओं के लिए भी मुख्य मंत्री को जिम्मेदार ठहराया जा सकेगा।
अभी तो इस मामले में कई बार एक दूसरे पर दोषारोपण होते रहते हैं।दूसरी तरफ उच्च शिक्षा क्षेत्र में सुधार
की दिशा में काम नहीं हो पाते।
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प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की गुणवत्ता
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बिहार में नए- नए और बड़े -बड़े निजी और सरकारी अस्पताल खुल रहे हैं।
फिर भी अस्पतालों पर मरीजों का बोझ घट ही नहीं रहा है।बल्कि बढ़ता जा रहा है।बड़े अस्पतालों में मेला के दृश्य नजर आते हैं।
इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण अस्पतालों की भारी
कमी है।अधिकतर प्राथमिक चिकित्सालयों में बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं।इस समस्या से कैसे निपटा जाए,यह बड़ी समस्या सामने है।
बिहार में उद्योग लगाने पर जोर दिया जा रहा है।
यदि इस काम में सफलता मिलती है तो बड़ी अच्छी बात है।
राज्य सरकार को इच्छुक उद्योगपतियों से एक आग्रह करना चाहिए।वह यह कि उद्योगपति अपने कार्य क्षेत्र में एक गुणवत्तापूर्ण स्कूल और एक बेहतर अस्पताल की भी स्थापना करंे।जो उद्योगपति ऐसा करते हैं,उन्हें सरकार करों में कुछ रियायत दे।
इससे उन उद्योगों के कर्मचारी व उनके बाल-बच्चे भी तो बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर पाएंगे।
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भूमि -अधिग्रहण का उद्देश्य
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‘‘पटना में सुव्यवस्थित आवासीय काॅलोनी के निर्माण के लिए’’ बिहार सरकार ने सत्तर के दशक में दीघा में 1024 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था।
बाद के वर्षों में उस जमीन के अधिकांश पर भू माफियाओं ने कब्जा कर उसे बेच दिया।
यह अच्छी बात है कि पटना हाईकोर्ट के निदेश पर बिहार सरकार उन माफियाओं के खिलाफ इन दिनों सख्त कार्रवाई कर रही है।
उन 1024 एकड़ में से जो अंश माफियाओं के चंगुल में जाने से बच गया,उसे शासन सरकारी दफ्तरों के लिए इस्तेमाल कर रही है।
पर, 1981 में जिन 11 हजार लोगों से आवास बोर्ड ने अग्रधन वसूले थे,उन्हें सरकार व बोर्ड ने निराश किया।
हाई कोर्ट को इस सवाल पर भी विचार करना चाहिए कि जिस उद्देश्य से दीघा जमीन का अधिग्रहण किया गया,उस उद्देश्य की पूत्र्ति क्यों नहीं की गई।क्या अब से भी उन 11 हजार आवेदकों में से कुछ लोगों को वहां जमीन दी जा सकती है ?
आवास बोर्ड ने पिछले वर्षों में उन 11 हजार लोगों में से अधिकतर लोगों के पैसे लौटा दिए।किंतु अब भी कई लोग बचे हैं जिन्होंने अपने पैसे आवास बोर्ड से नहीं लिए हैं।
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गुणवत्तापूर्ण कैमरे जरूरी
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पटना के तीन सौ जगहों में ढाई हजार सी.सी.टी.वी.कैमरे लगाने का शासन का फैसला सराहनीय है।
इससे अपराध पर काबू पाने में सुविधा होगी ।
साथ ही, देर-सवेर सड़क दुर्घटनाओं में भी कमी आ सकती हैं।
किंतु ऐसे कैमरे लगाने के बाद भी एक दिक्कत अक्सर सामने आती रहती है।
कई बार कैमरे घटिया गुणवत्ता वाले होते हैं।तो कई बार उनके रख-रखाव में आपराधिक लापरवाही बरती जाती है।
अब उम्मीद की जाती है कि ढाई हजार कैमरों को लेकर वैसी लापारवाही और अनियमितता नहीं होगी।
यदि सार्वजनिक धन लगता है तो उसका लाभ भी लोगों को मिले।
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और अंत में
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पिछले दिनों बिहार के एक जिले के एक प्रखंड मुख्यालय परिसर में आयोजित जन सुशासन शिविर में अजीब दुर्भाग्यपूर्ण दृश्य उपस्थित हो गया।
वहां अफसर और पूर्व विधायक के बीच जम कर तू -तू मैं -मैं का दृश्य उपस्थित हो गया।
पर, उस बीच मौजूदा जन प्रतिनिधि चुप रहे।
यह गंभीर व चिंताजनक सवाल है कि सरकारी कार्यों में जिन घोटालों की खबरें मीडिया और पूर्व जन प्रतिनिधियों तक पहुंच जाती हैं, वैसी ही खबरें मौजूदा जन प्रतिनिधियों तक क्यों नहीं पहुंच पातीं ?
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प्रभात खबर-पटना- 22 अगस्त 22
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